गुप्त साम्राज्य-Gupta Empire-Gupta samrajye

गुप्त साम्राज्य-Gupta Empire-Gupta samrajye

गुप्त साम्राज्य-Gupta Empire-Gupta samrajye

कुषाण साम्राज्य के खंडहर पर नए साम्राज्य का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने अपना अधिपत्य कुषाण और सातवाहन दोनों के राज्यक्षेत्रों पर स्थापित किया। यह गुप्त साम्राज्य था। इसने सम्पूर्ण उत्तर भारत को 320 ई. से 455 ई. तक एक सदी से ऊपर राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँधे रखा।

 

गुप्त साम्राज्य-Gupta Empire-Gupta samrajye
गुप्त साम्राज्य-Gupta Empire-Gupta samrajye

श्रीगुप्त ( 240-280 ई.)

प्रभावती गुप्ता के पूना स्थित ताम्रपत्र अभिलेख में श्रीगुप्त का उल्लेख गुप्त वंश के आदिराज के रूप में किया गया है। लेखों में इसका गोत्र धारण बताया गया है। इसका शासन 280 ई. तक रहा। • श्रीगुप्त ने महाराज की उपाधि धारण की थी। इत्सिंग के अनुसार, श्रीगुप्त ने मगध में एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा मंदिर के लिए 24 गाँव दान में दिए थे।

घटोत्कच गुप्त ( 280-319 ई.)

लगभग 280 ई. में श्रीगुप्त ने घटोत्कच को अपना उत्तराधिकारी बनाया। घटोत्कच ने महाराज की उपाधि धारण की थी। प्रभावती गुप्ता के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम शासक बताया गया है।

चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)

चन्द्रगुप्त प्रथम गुप्तवंश का पहला प्रसिद्ध शासक हुआ। श्रीगुप्त व घटोत्कच महाराज कहलाते थे, वहीं चन्द्रगुप्त प्रथम ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया था। गुप्त वंश में सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने रजत (चांदी) की मुद्राओं का प्रचलन प्रारम्भ करवाया था। चन्द्रगुप्त प्रथम महान शासक हुआ, क्योंकि उसने 319-20 ई. में अपने राज्यारोहण की स्मृति में गुप्त संवत् चलाया था।

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समुद्रगुप्त (335-380 ई )

चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त (335-380 ई.) ने गुप्त राज्य का अत्यधिक विस्तार किया। उसके दरबारी कवि हरिषेण ने अपने आश्रयदाता के पराक्रम का उदात्त वर्णन किया है।

समुद्रगुप्त द्वारा विजित क्षेत्र को 5 समूहों में बाँटा जा सकता है:-

प्रथम समूह- में गंगा-यमुना दोआब के वे शासक हैं, जिन्हें पराजित कर उनके राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिए गए।

द्वितीय समूह- में पूर्वी हिमालय के राज्यों और कुछ सीमावर्ती राज्यों के शासक हैं, जैसे- नेपाल, असम, बंगाल आदि के शासक।

तृतीय समूह- में वे आटविक राज्य (जंगली क्षेत्रों में स्थित राज्य) थे, जो विंध्य क्षेत्र में पड़ते थे।

चतुर्थ समूह- में पूर्वी दक्कन और दक्षिण भारत के 12 शासक हैं, जिन्हें पराजित कर छोड़ दिया गया। समुद्रगुप्त तमिलनाडु में कांची तक पहुँचा, जहाँ इसने पल्लवों से अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार कराई।

पाँचवें समूह- में शकों और कुषाणों के नाम हैं, जिनमें से कुछ अफगानिस्तान में राज करते थे। ऐसा कहा गया है कि समुद्रगुप्त ने उन्हें पदच्युत कर दिया तथा सुदूर देश के शासकों को अपने अधीन कर लिया।

 

एक चीनी स्रोत के अनुसार, श्रीलंका के राजा मेघवर्मन् ने गया में बुद्ध का मंदिर बनवाने की अनुमति प्राप्त करने के लिए समुद्रगुप्त के पास दूत भेजा था।

  • इलाहाबाद की प्रशस्ति (प्रशंसात्मक अभिलेख) से प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ा। उसे अपनी बहादुरी एवं युद्ध कौशल के कारण भारत का नेपोलियन कहा जाता है। • वी.ए. स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है। समुद्रगुप्त अपने को लिच्छवी दौहित्र कह कर गर्व का अनुभव करता था

चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412 ई.)

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी कन्या प्रभावती का विवाह वाकाटक शासक रुद्रसेन द्वितीय से कराया जो ब्राह्मण जाति का था तथा मध्य भारत में शासन करता था। वाकाटक राज्य पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव स्थापित कर चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी मालवा और गुजरात पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया तथा वहाँ के 400 साल पुराने शक-क्षत्रपों के शासन का अंत किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को द्वितीय राजधानी बनाया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

यह उपाधि इससे पूर्व 57 ई. पू. में उज्जैन के शासक ने पश्चिमी भारत में शक क्षत्रपों पर विजय पाने के उपलक्ष्य में धारण की थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने दो रजत मुद्राओं (Silver Coins) का सर्वप्रथम प्रचलन करवाया था। चन्द्रगुप्त के सिक्के पर देवश्री लिखा हुआ है। मेहरौली से प्राप्त एक लौह स्तम्भ में चन्द्र नामक शासक की पहचान चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से की जाती है। चन्द्रगुप्त द्वितीय का उज्जैन स्थित दरबार कालिदास और अमरसिंह जैसे बड़े-बड़े विद्वानों से विभूषित था।

चन्द्रगुप्त के समय में चीनी यात्री फाह्यान (399-414 ई.) भारत आया। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के पश्चात् उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम गुप्त साम्राज्य का शासक बना।

 

कुमारगुप्त प्रथम (महेन्द्रादित्य) (415-455 ई.)

उसकी मुद्राओं पर श्रीमहेन्द्र, महेन्द्रादित्य, आदि उपाधियाँ अंकित थीं। उसके स्वर्ण सिक्कों पर उसे गुप्तकुलामल चन्द्र एवं गुप्तकुल व्योमशशि कहा गया है। शक्रादित्य को कुमारगुप्त की उपाधि महेन्द्रादित्य के समानार्थी माना गया है। कुमारगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया और अश्वमेध प्रकार की मुद्रा चलाई। कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। विश्वविद्यालय में समय की माप के लिए जल घड़ी का प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक छात्र एवं छात्राओं के लिए विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए प्रतियोगी परीक्षा से गुजरना पड़ता था।  कुमारगुप्त के समय में सर्वाधिक गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनकी संख्या लगभग 18 है। इसके समय में गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राओं का सबसे बड़ा ढेर बयाना मुद्राभंडार (राजस्थान के भरतपुर जिले में) से प्राप्त हुआ है, जिसमें 623 मुद्राएँ मिली हैं। इनमें मयूर शैली की मुद्राएँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इस शैली में चाँदी की कुछ मुद्राएँ सबसे पहले मध्यप्रदेश में प्राप्त हुईं। कुमारगुप्त प्रथम के अन्तिम दिनों में पुष्यमित्र नामक जातियों ने आक्रमण किया। इसका उल्लेख स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख में मिलता है। कुमारगुप्त ने इन्हें पराजित करने के लिए अपने योग्य पुत्र स्कन्दगुप्त को भेजा। स्कन्दगुप्त पुष्यमित्रों को पराजित करने में सफल हुआ।

स्कन्दगुप्त (शक्रादित्य) (455-467 ई.)

स्कन्दगुप्त गुप्त वंश का अंतिम प्रतापी शासक था। कहोम अभिलेख से विदित होता है कि, इसने शक्रादित्य की उपाधि धारण की थी। हूणों का गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण स्कन्दगुप्त के शासनकाल की महत्वपूर्ण घटना थी। श्वेत हूणों को पूर्वी हूण भी कहा जाता है, जिन्होंने हिंदुकुश पार कर गांधार प्रदेश पर आक्रमण किया तथा गुप्त साम्राज्य के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। स्कन्दगुप्त न केवल एक योग्य सैन्य संचालक था, अपितु एक आदर्श प्रशासक भी था। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि, उसने सौराष्ट्र प्रान्त में पर्णदत्त को अपना राज्यपाल नियुक्त किया। इस लेख में गिरनार के प्रशासक चक्रपालित द्वारा सुदर्शन झील के बाँध के पुनर्निर्माण का वर्णन है। ह्वेनसांग ने नालन्दा संघाराम को बनवाने वाले शासकों में शक्रादित्य के नाम का उल्लेख किया है, जिससे स्कन्दगुप्त द्वारा नालंदा संघाराम को सहायता देने का प्रमाण मिलता है। स्कन्दगुप्त ने चीन के साथ मित्रतापूर्ण सम्पर्क बनाए रखा तथा 466 ई. में एक राजदूत को चीन के सांग सम्राट के दरबार में भेजा।

 

 स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारी

पुरूगुप्त (467-476 ई.)

यह कुमारगुप्त प्रथम का पुत्र तथा स्कंदगुप्त का सौतेला भाई था। संभवतः स्कन्दगुप्त सन्तानहीन था और उसके बाद सत्ता पुरूगुप्त के हाथों में आई। भीतरी मुद्रालेख में उसकी माता का नाम महादेवी अनंन्त देवी तथा पत्नी का नाम चन्द्रदेवी मिलता है। चूँकि वह वृद्धावस्था म शासक हुआ अतः उसका शासन अल्पकालीन रहा। उसक समय में गुप्त साम्राज्य की अवनति प्रारम्भ हो गयी थी।

कुमारगुप्त द्वितीय

पुरूगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ से गुप्त संवत् 154 अर्थात् 473 ई. का उसका लेख मिलता है, जो बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है। • सारनाथ लेख में भूमि रक्षति कुमारगुप्त उत्कीर्ण मिलता है।

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बुद्धगुप्त :-

गुप्त संवत् 157 अर्थात् 477 ई. का उसका सारनाथ से लेख मिला है। यह उसके शासनकाल की ज्ञात तिथि है। दामोदरपुर ताम्रपत्र में उसे परमभट्टारक महाराजाधिराज कहा गया है। बुद्धगुप्त ने 477 ई. से 495 ई. तक शासन किया था। स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों में बुद्धगुप्त सबसे अधिक शक्तिशाली शासक था, जिसने एक विस्तृत प्रदेश पर शासन किया। स्वर्ण मुद्राओं पर उसकी उपाधि श्रीविक्रम मिलती है। बुद्धगुप्त बौद्धमतानुयायी था, चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि, वह अंतिम गुप्त सम्राट था, जिसने हिमालय से लेकर नर्मदा नदी तक तथा मालवा से लेकर बंगाल तक के विस्तृत भू-भाग पर शासन किया था।

नरसिंहगुप्त (बालादित्य)

यह बुद्धगुप्त का छोटा भाई था, जो उसकी मृत्यु के बाद शासक बना। . भीतरी मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त की माता का नाम महादेवी चन्द्रदेवी मिलता है। हूण नरेश मिहिरकुल बड़ा क्रूर व अत्याचारी था। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि, उसने मगध के शासक बालादित्य पर आक्रमण किया, किन्तु पराजित हुआ और बंदी बना लिया गया। बालादित्य ने अपनी माता के कहने पर उसे मुक्त कर दिया। नरसिंहगुप्त बौद्धमतानुयायी था। उसने बौद्ध विद्वान वसुबन्धु की शिष्यता ग्रहण की थी। नालंदा मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त को परम्भागवत कहा गया है

भानुगुप्त

भानुगुप्त का ऐरण से एक प्रस्तर स्तंभ-लेख प्राप्त हुआ है। यह 510 ई. का है। इस लेख में उसके मित्र गोपराज का उल्लेख है। जिसकी हूणों के विरुद्ध भानुगुप्त की ओर से युद्ध करते हुए मृत्यु हो गई थी तथा उसकी पत्नी अग्नि में जल कर सती (सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य) हो गई। बुधगुप्त के बाद पूर्वी मालवा में जो हूणसत्ता स्थापित हुई, उसी का अंत करने लिए भानुगुप्त ने यह युद्ध किया और इसमें उसे सफलता प्राप्त हुई। इस युद्ध को स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी गई है।

वैन्यगुप्त 

इसके विषय में जानकारी का मुख्य स्रोत गुणैधर (बांग्लादेश के कोमिल्ला में स्थित) का ताम्रपत्र है, जो गुप्त संवत् 188 अर्थात् 507 ई. का है। गुणैधर ताम्रपत्र में उसके दो प्रांतीय शासकों (विजयसेन, रूद्रदत्त) के नाम मिलते हैं तथा इसमें बौद्ध विहार के लिए कुछ भूमिदान दिए जाने का वर्णन है।

 

कुमारगुप्त तृतीय

नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध का शासक बना। भीतरी एवं नालंदा मुद्रालेखों में उसकी माता का नाम महादेवी मित्रदेवी मिलता है। दामोदरपुर के 5वें ताम्रपत्र में किसी शक्तिशाली गुप्त राजा का उल्लेख मिलता है जिसकी उपाधियाँ परमदैवत परमभट्टारक महाराजाधिराज मिलती हैं। उसके नाम का केवल प्रथम अक्षर कु प्राप्त है। अतः इस शासक को कुमारगुप्त तृतीय ही मानना चाहिये। इस लेख की तिथि गुप्त संवत् 224 अर्थात 543 ई. है।

विष्णुगुप्त

 कुमारगुप्त तृतीय गुप्तवंश का अंतिम महान शासक था। नालंदा से प्राप्त एक मुद्रालेख में विष्णुगुप्त का लेख मिलता है, जो संभवतः उसका पुत्र था जो 550 ई. तक राज्य करता रहा। इसके बाद गुप्त-साम्राज्य पूर्णतः छिन्न-भिन्न हो गया।

गुप्त साम्राज्य का पतन

चन्द्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारियों को ईसा की पाँचवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मध्य एशिया के हणों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। • गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त ने हूणों को भारत में आगे बढ़ने से रोकने के लिए अथक प्रयास किया। हूण घुड़सवारी में कुशल थे तथा संभवतः धातु के बने रकाबों का इस्तेमाल करते थे। 485 ई. में आकर हूणों ने पूर्वी मालवा को और मध्य भारत के बड़े हिस्से को अपने अधिकार में कर लिया था। छठीं सदी के आरम्भ में गुप्त साम्राज्य बहुत ही सीमित हो गया था। मालवा नरेश ने गुप्त शासकों की सत्ता को चुनौती दी और सम्पूर्ण उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उपलक्ष्य में 532 ई. में विजय स्तम्भ खड़े किए। सामंत राजाओं ने भी गुप्त साम्राज्य को और भी दुर्बल बना दिया। गुप्त सम्राटों की ओर से उत्तरी बंगाल में नियुक्त शासनाध्यक्ष (गवर्नर) ने और समतट अर्थात् दक्षिण-पूर्व बंगाल के उनके सामंतों ने अपने को स्वतंत्र बनाना आरम्भ कर दिया।

विदेशी व्यापार के ह्रास से गुप्त साम्राज्य की आय निश्चित रूप से | कम हुई होगी, जिसके कारण रेशम बुनकरों की एक श्रेणी (व्यवसायी संघ) 473 ई. में गुजरात से मालवा चली गई तथा वहाँ उन बुनकरों ने अन्य पेशे अपना लिए। गुप्त सम्राटों का शासन छठीं सदी के मध्य तक समाप्ति की ओर अग्रसर हो चुका था।

प्रशासन-पद्धति

गुप्त शासकों ने परमेश्वर, महाराजाधिराज, परमभट्टारक आदि उपाधियों को धारण किया। गुप्त शासकों की तुलना सूर्य, अग्नि, यम, कुबेर, विष्णु से की गई है। राजपद वंशानुगत था, परंतु राजसत्ता ज्येष्ठाधिकार की · अटल प्रथा के अभाव में सीमित थी। . राजा स्थायी सेना रखता था और सामंतों द्वारा समय-समय पर प्रदत्त सेनाएँ उसकी पूरक होती थीं। गुप्त काल में भूमि सम्बंधी करों की संख्या बढ़ गई, परंतु वाणिज्य करों की संख्या कम हो गई थी। राज्य द्वारा उपज को चौथे भाग से लेकर छठे भाग तक कर के रूप में लिया जाता था। मध्य और पश्चिमी भारत में ग्रामवासियों से सरकारी सेना और अधिकारियों की सेवा के लिए बेगार (निःशुल्क श्रम) कराया जाता था, जो विष्टि कहलाता था। गुप्तकाल में न्याय-पद्धति अत्यधिक विकसित थी। पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून (व्यवहार विधि और दण्ड विधि) स्पष्टतः परिभाषित और पृथक्कृत हुए। चोरी और व्यभिचार, फौजदारी कानून के अन्तर्गत तथा संपत्ति सम्बंधी विविध विवाद दीवानी कानून के अन्तर्गत आते थे।

राजा न्याय-निर्णय ब्राह्मण और पुरोहितों की सहायता से करता था। गुप्त साम्राज्य के सबसे बड़े अधिकारी कुमारामात्य होते थे, जिन्हें राजा अपने प्रान्त में नियुक्त करता था। गुप्त राजाओं ने प्रांतीय और स्थानीय शासन की पद्धति चलाई।

गुप्तकाल में गाँव का मुखिया अधिक महत्वपूर्ण हो गया। वह ग्रामश्रेष्ठों की सहायता से गाँव का काम-काज देखता था। नगर के प्रशासन में व्यवसायियों के संगठनों की अच्छी साझेदारी रहती थी।

 

 

शिल्पियों और वणिकों के अपने अलग-अलग संगठन (श्रेणियाँ) थे। मालवा के मंदसौर और इंदौर में रेशम बुनकरों की अपनी प्रमुख श्रेणी थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले में तेलियों की अपनी अलग श्रेणियाँ थीं। ये श्रेणियाँ अपने सदस्यों के मामले देखती थीं तथा श्रेणी के नियम कानून व परम्परा का उल्लंघन करने वालों को दण्ड दे सकती थीं। गुप्तकाल में पुरोहितों व प्रशासकों को क्षेत्र विशेष में ग्राम-अनुदान के द्वारा कर-ग्रहण और शासन करने की रियायत दी जाती थी, जिससे सामंत तंत्र को बल मिला। भूमि-अनुदान प्रथा का आरम्भ दक्कन में सातवाहनों ने किया तथा गुप्तकाल में विशेषकर मध्य प्रदेश में यह सामान्य परिपाटी बन गई। पुरोहितों और अन्य धर्माचार्यों को कर मुक्त भूमि दान में दी जाती थी जिसे ग्राम को दे दिया जाता था, उनमें राजा के अधिकारियों और अमलों को प्रवेश करने का हक नहीं रहता था।

स्वर्णमुद्रा की बहुतायत से पता चलता है कि, ऊँचे अधिकारियों को नगद वेतन देने की परिपाटी चलती रही। गुप्तकालीन व्यापार और कृषिमूलक अर्थव्यवस्था की प्रवृत्तियों की कुछ झलक हमें चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान के विवरण से मिलती है। वह बताता है कि, मगध नगरों और धनवानों से भरा-पूरा था तथा धनी लोग बौद्ध धर्म का संपोषण करते थे एवं उसके लिए दान देते थे।

प्राचीन भारत के गुप्त राजाओं ने सबसे अधिक स्वर्णमुद्राएँ जारी की, जो उनके अभिलेखों में दीनार कही गई हैं। इन पर गुप्त शासकों के स्पष्ट चित्र हैं। यद्यपि स्वर्णाश में ये मुद्राएँ उतनी शुद्ध नहीं हैं, जितनी कुषाण मुद्राएँ। गुजरात विजय के बाद गुप्त शासकों ने बड़ी संख्या में चाँदी के सिक्के निर्गमित किए। कुषाणों के विपरीत गुप्तकालीन तांबे के सिक्के बहुत ही कम प्राप्त हुए हैं। 550 ई. के आस-पास पूर्वी रोमन साम्राज्य के लोगों ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला को सीख लिया, जिससे भारत के निर्यात-व्यापार पर हानिकारक प्रभाव पड़ा। छठीं सदी के मध्य तक आते-आते भारतीय रेशम की माँग विदेशों में कमजोर पड़ गई थी। ब्राह्मण पुरोहितों का भू-स्वामी के रूप में उदय किसानों के हितों के विपरीत था। मध्य और पश्चिम भारत के किसानों से बेगार लिया जाने लगा।

सामाजिक गतिविधि

ब्राह्मणों को बड़े पैमाने पर ग्राम-अनुदान मिलना इस बात का प्रमाण है कि, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता गुप्त काल में बनी रही। वर्ण जातियों-उपजातियों में बँट गए। इस काल में शूद्रों की स्थिति में सुधार हुआ। अब इन्हें रामायण, महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार मिल गया। साथ ही कुछ गृह संस्कारों या घरेलू अनुष्ठानों का अधिकार मिला। सातवीं सदी से इनकी पहचान मुख्यतः कृषक के रूप में होने लगी, जबकि पूर्व काल में उनका चित्रण केवल ऊपर के तीनों वर्गों के लिए सेवक, दास और कृषि-मजदूर के रूप में होता था। इस काल में अछूतों की संख्या में वृद्धि हुई विशेषकर चाण्डालों की संख्या में। फाह्यान ने लिखा है कि, चाण्डाल गाँव के बाहर बसते थे और मांस का व्यवसाय करते थे, जब कभी वे नगर में प्रवेश करते तो उच्च वर्ण के लोग उनसे दूर रहते थे क्योंकि वे मानते थे कि, चाण्डालों के स्पर्श से सड़क अपवित्र हो जाती है गुप्तकाल में शूद्रों की भांति स्त्रियों को रामायण, महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार प्राप्त हुआ। पर्दाप्रथा, सती प्रथा, नियोग प्रथा का प्रचलन तीव्रता से दृष्टिगोचर होने लगा था। स्त्रियों की स्थिति पहले से दयनीय हो गयी। पितृतंत्रात्मक व्यवस्था में वे पत्नी को निजी संपत्ति समझने लगे यहाँ तक कि, पत्नी से मृत्यु में भी साथ देने की आशा करने लगे। पति के मृत्यु पर पत्नी का पति की चिता में सती करने का पहला अभिलेखीय उदाहरण गुप्तकाल में मिलता है।

स्मृतियों में यह कहा गया है कि, विवाह के समय वधू को भेंट के रूप में माँ बाप द्वारा दिए गए भूषण, अलंकरण, वस्त्र आदि सामान्य स्त्रीधन होते हैं। छठीं सदी के स्मृतिकार कात्यायन का कहना है कि, स्त्री अपने स्त्रीधन के साथ अपनी अचल सम्पत्ति को बेच सकती है तथा गिरवी रख सकती है। कात्यायन के अनुसार, भूमि में स्त्रियों को हिस्सा मिलता था। बौद्ध धर्म की अवस्था • गुप्तकाल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय मिलना समाप्त हो गया। यथार्थ में इस धर्म का जो उत्कर्ष अशोक और कनिष्क के दिनों में था, वह गुप्त काल में नहीं रहा। नालंदा बौद्ध शिक्षा का केन्द्र बन गया। कुमारगुप्त प्रथम ने नालंदा महाविहार की स्थापना करवाई थी।

भागवत सम्प्रदाय का उद्भव और विकास

इसका उद्भव मौर्योत्तर काल में हुआ। वैदिक काल में विष्णु गौण देवता थे। ईसा पूर्व दूसरी सदी में आकर वह नारायण नामक देवता से अभिन्न हो गये और नारायण विष्णु कहलाने लगे। नारायण मूलतः अवैदिक जनजातीय देवता थे। वह भागवत् कहलाते थे और उसके उपासक भी भागवत् कहलाते थे। जब विष्णु और नारायण दोनों एक हो गए तब दोनों के उपासक भी धर्म की एक ही छत्रछाया में आ गए। तदुपरान्त, विष्णु का सम्बंध पश्चिमी भारत के निवासी वृष्णि कुल के एक पौराणिक महापुरूष से जुड़ गया, जो कृष्ण वासुदेव कहलाता था। भागवत संप्रदाय के मुख्य तत्व हैं भक्ति और अहिंसा। भक्ति का अर्थ प्रेममय निष्ठा निवेदन है। अहिंसा अर्थात् किसी जीव का वध नहीं करना। यह नया धर्म परम उदार था। सहजता से इसने विदेशियों को भी अपनी ओर आकर्षित कर लिया। कृष्ण ने भगवद्गीता में घोषणा की है कि, जन्मतः अपवित्र, स्त्री, वैश्य और शूद्र भी उसकी शरण में आ सकते हैं। गुप्तकाल में आकर महायान बौद्ध धर्म की तुलना में भागवत वैष्णव अधिक प्रभावी हो गया। इसने अवतारवाद का उपदेश दिया और इतिहास में विष्णु के दस अवतारों के चक्र को प्रतिपादित किया। वैष्णव संप्रदाय के अनुसार, जब-जब सामाजिक व्यवस्था पर संकट आता है, तब-तब विष्णु उपयुक्त रूप में अवतार लेकर उससे रक्षा करते हैं। छठीं सदी में आकर विष्णु की गणना शिव और ब्रह्मा के साथ त्रिदेव में होने लगी।गुप्तवंश के कुछ राजा शिव के उपासक हुए, जो संहार या प्रलय के देवता हैं, लेकिन शिव का उत्कर्ष बाद में हुआ। गुप्त शासन की आरम्भिक अवस्था में शिव इतने महत्वपूर्ण नहीं लगते हैं, जितने कि विष्णु। गुप्तकाल में मूर्ति पूजा ब्राह्मण धर्म का सामान्य लक्षण हो गया। गुप्तवंशी राजाओं ने विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के प्रति सहनशीलता का मार्ग अपनाया। • गुप्तकाल प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय कला और साहित्य के संपोषक थे। समुद्रगुप्त को अपने सिक्के पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। चन्द्रगुप्त का दरबार नवरत्न अर्थात् नौ बड़े-बड़े विद्वानों से अलंकृत था। गुप्तकाल में बनी दो मीटर से भी ऊँची बुद्ध की कांस्यमूर्ति भागलपुर के निकट सुल्तानगंज में प्राप्त हुयी।गुप्तकाल में सारनाथ और मथरा में बद्ध की सुंदर व आकर्षक प्रतिमाओं का निर्माण हुआ है। गप्तकालीन अजंता की चित्रावली बौद्ध कला का सवा नमूना है। इन चित्रों में गौतम बुद्ध और उनके पिछले जन्मों की विभिन्न घटनाएँ चित्रित हैं। गुप्त शासक अजंता चित्रकला के संरक्षक नहीं थे। चूँकि गुप्तवंश के शासक हिन्दू धर्म के संपोषक थे, इसलिए पहली बार हम गुप्त काल में विष्णु, शिव एवं अन्य हिन्दू देवताओं की प्रतिमा पाते हैं। वास्तुकला में गुप्त काल पिछड़ा हुआ था। कानपुर के भीतरगाँव, गाजीपुर के भीतरी और झाँसी के देवगढ़ के ईंट के मंदिर उल्लेखनीय हैं। नालंदा का बौद्ध महाविहार पाँचवीं सदी में बना और इसकी सबसे पहले की संरचना जो ईंटों की है, गुप्तकाल में बनी है।

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