जैन धर्म
उद्भव के कारण
उत्तर वैदिक काल में समाज स्पष्टतः चार वर्गों में विभाजित था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। प्रत्येक वर्ण के कर्तव्य अलग-अलग निर्धारित किये गये थे। कालान्तर में वर्ण का निर्धारण कर्म पर आधारित न होकर जन्ममूलक (जन्म आधारित) हो गया। वर्णव्यवस्था में जो जितने ऊँचे वर्ण का होता था, वह उतना ही शुद्ध और सुविधाधिकारी समझा जाता था। इस व्यवस्था में अपराधी जितने ही निम्न वर्ण का होता था, उसके लिए उतने ही कठोर दण्ड की व्यवस्था होती थी।
इस वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय लोग जो शासक के रूप में काम करते थे, वे ब्राह्मणों के धर्म विषयक प्रभुत्व पर प्रबल आपत्ति व्यक्त करते थे। विविध विशेषाधिकारों का दावा करने वाले पुरोहितों या ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना, नए धर्मों के उद्भव का कारण बना। जैन धर्म के संस्थापक वर्द्धमान महावीर और बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध दोनों क्षत्रिय वंश के थे तथा दोनों ने ब्राह्मणों की मान्यता को चुनौती दी। छठी सदी के उत्तरार्द्ध में लोहे का प्रयोग बढ़ने से मध्य गंगा के मैदानों में लोग अधिक संख्या में बसने लगे, तथा लोहे के औज़ारों के प्रयोग से जंगलों की सफाई, खेती और बड़ी-बडी स्थायी बस्तियों का निर्माण संभव हआ।
इस काल में पूर्वोत्तर भारत में अनेक नगरों की स्थापना हुई। उदाहरणार्थ- कौशांबी (प्रयाग के समीप), कुशीनगर (जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश), वाराणसी, वैशाली (इसी नाम का नवस्थापित जिला, उत्तर बिहार), चिरांद (सारण जिला) और राजगीर (पटना से लगभग 100 किमी. दक्षिण-पूर्व) आदि।
सबसे पुराने सिक्के ईसा-पूर्व पाँचवीं सदी के हैं, जो पंचमार्क या आहत् सिक्के कहलाते हैं। आरम्भ में इनका प्रचलन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ था। इन सिक्कों के प्रचलन से व्यापार व वाणिज्य का विस्तार हुआ, जिसके पश्चात् वैश्यों (जो व्यापारी थे) का महत्व बढ़ गया। ब्राह्मण प्रधान समाज में वैश्यों का स्थान तृतीय कोटि में था। वे ऐसे किसी धर्म की खोज में थे, जहाँ उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार हो।
वणिकों (जो सेट्ठी कहलाते थे) ने गौतम बुद्ध और उनके शिष्यों को अत्यधिक मात्रा में दान दिए। •
पहला कारण यह था कि, जैन और बौद्ध धर्म की आरम्भिक अवस्था में तत्कालीन वर्ण-व्यवस्था को कोई महत्व नहीं दिया गया था।
दूसरा . वे अहिंसा का उपदेश देते थे, जिससे विभिन्न राजाओं के मध्य होने वाले युद्धों का अंत हो सकता था तथा उसके फलस्वरूप व्यापार-वाणिज्य में उन्नति हो सकती थी।
तीसरे, ब्राह्मणों की कानून सम्बंधी पुस्तकों में, जो धर्मसूत्र कहलाती थी। सूद (ब्याज) के कारोबार को निंदनीय समझा जाता था तथा सूद (ब्याज) पर जीने वाले को अधम कहा जाता था। बौद्ध और जैन दोनों सम्प्रदाय सरल, शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे। • बौद्ध और जैन दोनों धर्मों के भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन में विलासीता की वस्तुओं का उपभोग न करें।
वर्द्धमान महावीर और जैन संप्रदाय
जैन शब्द संस्कृत के जिन शब्द से बना है, जिसका अर्थ विजेता (जितेन्द्रिय) होता है। जैन महात्माओं को निर्ग्रन्थ (बन्धन रहित) व जैन धर्म के अधिष्ठाता को तीर्थंकर कहा गया। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ थे। अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को ऋग्वेद में वासुदेव कृष्ण का भाई बताया गया है। जैन धर्मावलम्बियों का विश्वास है कि, उनके सबसे महान धर्मोपदेष्टा महावीर थे इसके पहले तेईस और आचार्य हुए हैं, जो तीर्थंकर कहलाते थे।

जैन धर्म के प्राचीनतम् सिद्धांतों के उपदेष्टा तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं, जो वाराणसी के निवासी थे। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार, पार्श्वनाथ को 100 वर्ष की आयु में सम्मेद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ। पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित चार महाव्रत इस प्रकार हैं – सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह तथा अस्तेय।
यथार्थ में जैन धर्म में जैन धर्म की स्थापना पार्श्वनाथ के आध्यात्मिक शिष्य महावीर ने की। वर्द्धमान महावीर का जन्म 540 ई.प. वैशाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ था।
उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक कुल के प्रधान थे। उनकी माता का नाम त्रिशला था, जो बिम्बिसार के ससुर लिच्छवि-नरेश चेटक की बहन थीं। महावीर सत्य की खोज के लिए (30 वर्ष की अवस्था में) सांसारिक जीवन का परित्याग कर यती (संन्यासी) हो गए। जब 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हो गया तो उन्होंने वस्त्रों का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया। कैवल्य द्वारा उन्होंने सुख-दु:ख पर विजय प्राप्त की। इसी विजय के कारण वे महावीर अर्थात् महान शूर, या जिन अर्थात् विजेता कहलाये और उनके अनुयायी जैन कहलाते हैं। उनका निर्वाण 468 ई.पू. में 72 वर्ष की उम्र में वर्तमान में राजगीर के समीप पावापुरी में हुआ।
इन पाँच व्रतों में ऊपर के चार पार्श्वनाथ ने दिये थे, जबकि पाँचवाँ व्रत ब्रह्मचर्य महावीर ने जोड़ा। जैन धर्म में अहिंसा या किसी प्राणी को नहीं सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। • जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया श्वेताम्बर अर्थात् सफेद वस्त्र धारण करने वाले और दिगम्बर अर्थात् नग्न रहने वाले। जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है, परन्तु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है।
जैन सहित्य ::-
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है। इसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेद सूत्र, 4 मूल सूत्र, 1 नंदी सूत्र एवं 1 अनुयोगद्वार हैं।
जैन धर्म में मुख्यतः सांसारिक बंधनों से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं। इसमें छुटकारा या मोक्ष पाने के लिए सम्यक् ज्ञान, सम्यक् ध्यान और सम्यक् आचरण आवश्यक है। ये तीनों जैन धर्म के विरल अर्थात् तीन जौहर माने जाते हैं।
जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित हैं, क्योंकि दोनों में जीवों के प्रति हिंसा होती है।जैन धर्म पुनर्जन्म व कर्मवाद में विश्वास करता है। उसके अनुसार कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है। जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है परन्तु सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारता है।
जैन धर्म का प्रसार
जैन धर्म के उपदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए महावीर ने अपने अनुयायियों का संघ बनाया, जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को स्थान मिला। महावीर के अनुयायियों की संख्या 14,000 बताई गई है।
जैन धर्म ने अपने को ब्राह्मण धर्म से स्पष्टतः पृथक् नहीं किया। जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण और पश्चिम भारत में फैला जहाँ पर ब्राह्मण धर्म कमजोर था। कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य (322-298 ई. पू.) ने किया। जैन धर्म के मुख्य उपदेशों को संकलित करने के लिए पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में एक परिषद् का आयोजन किया गया था।
पाँचवीं सदी में कर्नाटक में अधिक संख्या में जैन मठ स्थापित हुए, जो बसदि कहलाते थे। कलिंग या उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार ईसा पूर्व चौथी सदी में हुआ और ईसा पूर्व पहली सदी में इसे आंध्र और मगध के राजाओं को पराजित करने वाले कलिंग-नरेश खारवेल का संरक्षण मिला।
जैन धर्म का योगदान
जैन धर्म ने वर्ण व्यवस्था और वैदिक कर्मकांड की बुराइयों को रोकने के लिए गंभीर प्रयास किए। जैनों ने मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा संपोषित संस्कृत भाषा का परित्याग किया और अपने धर्मोपदेश के लिए आम लोगों की बोलचाल की प्राकृत भाषा को अपनाया। जैनों ने मध्यकाल के आरम्भ में संस्कृत भाषा का अत्यधिक प्रयोग किया तथा कन्नड़ भाषा के विकास में यथेष्ट योगदान दिया। उनके धार्मिक ग्रंथ अर्द्धमागधी भाषा में लिखे गए हैं। ये ग्रंथ ईसा की छठी सदी में गुजरात में वल्लभी नामक स्थान पर अन्तिम रूप से संकलित किए गए थे। जो एक महान विद्या का केन्द्र था, • जैनों ने प्राकृत को अपनाया, जिससे प्राकृत भाषा और साहित्य की समृद्धि हुई।
भद्रबाहु ने कल्पसूत्र को संस्कृत भाषा में लिखा। प्रमय कमलमार्तण्ड की रचना प्रभाचन्द्र ने की। परिशिष्ट पर्व की रचना हेमचन्द्र सूरी ने की थी।
भगवती सूत्र, महावीर के जीवन पर प्रकाश डालता है तथा इसमें 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। जैन भिक्षुओं के आचार व नियमों का उल्लेख आचारांगसूत्र में उल्लिखित है। जैन धर्म के प्रचार के लिए पावापुरी में एक जैन संघ की स्थापना की थी। • जैनों ने अपभ्रंश भाषा में पहली बार कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे एवं इसका पहला व्याकरण तैयार किया। बौद्धों की तरह जैन लोग भी आरम्भ में मूर्तिपूजक नहीं थे। बाद में वे महावीर और अन्य तीर्थंकरों की मूर्ति या प्रतिमा की पूजा करने लगे।
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