दिल्ली सल्तनत : प्रशासनिक आर्थिक एवं सामाजिक जीवन
सल्तनत में सुल्तान का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण था तथा सर्वोच्च राजनीतिक, कानूनी और सैनिक सत्ता उसी में निहित थी। वह राज्य की सुरक्षा और प्रशासन के लिए जिम्मेदार था, जो सल्तनत की सेना का प्रधान सेनापति था। इसके अतिरिक्त कानून और न्याय की व्यवस्था करना भी सुल्तान का दायित्व था। इस कार्य के लिए वह न्यायाधीशों की नियुक्ति करता था। उसके किसी भी पदाधिकारी के अन्याय के विरुद्ध उससे सीधे अपील की जा सकती थी। न्याय करना किसी भी शासक का अत्यंत महत्वपूर्ण दायित्व माना जाता था। दिल्ली के अधिकांश तुर्की सुल्तानों ने स्वतंत्र होते हुए भी सिद्धांततः खलीफा (जो मुस्लिम राज्य एवं इस्लाम धर्म का प्रधान होता था) की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार की। दिल्ली के सुल्तान स्वयं को खलीफा का नायब (सहयोगी) ही मानते थे। समस्त इस्लामी राज्य का संवैधानिक प्रधान खलीफा ही माना जाता था। तुक-सुल्तानों में इल्तुतमिश ही प्रथम सुल्तान था, जिसने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए अब्बासी खलीफा से 1229 ई. में प्राथना कर नासिर-अमीर-उलमोमिनीन (खलीफा का सहायक) की उपाधि प्राप्त की थी। बलबन ने निरंकश राजतंत्र की स्थापना की, वह स्वयं को जल्ल-इलाही (अल्लाह की परछाईं) मानता था। 1258 ई. में हलाकू द्वारा अब्बासी खलीफा की हत्या के बाद भी दिल्ली के सुल्तानों ने खलीफा की अधिसत्ता बनाए रखी। अलाउद्दीन खिलजी ने भी खिलाफत का सम्मान किया। उसने मोमीन-उल-खिलाफत (खलीफा का दाहिना हाथ) और नासिर-ए-अमीर उलमोमिनीन (खलीफा का सहायक) की उपाधि धारण की। मुस्लिम शासकों में उत्तराधिकार का कोई स्पष्ट नियम विकसित नहीं हुआ। केन्द्रीय प्रशासन सुल्तान की मदद के लिए अनेक मंत्री होते थे, जिनका चयन वह स्वयं करता था। इन मंत्रियों का पदासीन रहना या न रहना उसकी इच्छा पर निर्भर करता था। प्रशासन में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति वजीर होता था। वजीर के अधीन एक महालेखा परीक्षक होता था, जो आय-व्यय की जाँच पड़ताल का काम करता था एवं महालेखाकार आय की निगरानी करता था। फिरोजशाह तुगलक ने इस्लाम में धर्मांतरित एक तैलंग ब्राह्मण खान-ए-जहाँ को अपना वजीर बनाया था। वजीर के विभाग के बाद राज्य का सबसे महत्वपूर्ण विभाग दीवान-ए-अर्ज या सैन्य विभाग था। इस विभाग के प्रधान को आरिज़-ए-मुमालिक कहा जाता था।सैनिकों की भर्ती करना, उन्हें प्रशिक्षण देना और उनको वेतन देना आरिज के विभाग की मुख्य जिम्मेदारी थी।

भारत में आरिज के लिए एक अलग विभाग की स्थापना सर्वप्रथम बलबन ने की थी।

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अलाउद्दीन का आग्रह सैनिकों की नियमित हाजिरी पर था। उसने घोड़ों को दागने (दाग) का चलन भी आरम्भ किया जिससे सिपाही तुच्छ दर्जे के घोड़े सेना में न ला सकें। अलाउद्दीन पहला सुल्तान था, जिसने सभी सैनिकों को पूरा वेतन नकद अदा करना शुरू किया। राज्य के दो और भी महत्वपूर्ण विभाग थे- दीवान-ए-रिसालत और दीवान-ए-इंशा। इनमें से पहला विभाग धार्मिक मामलों, धार्मिक संस्थानों, सुपात्र विद्वानों और धर्मवेत्ताओं को दिए जाने वाले अनुदानों का कामकाज सम्भालता था। उसका सर्वोच्च अधिकारी आला सदर होता था, जो सामान्य रूप से प्रमुख काजी होता था। जबकि, दूसरा विभाग दीवान-ए-इंशा राज्य में पत्र व्यवहार के कार्यों की निगरानी करता था। सुल्तान साम्राज्य के विभिन्न भागों में जासूसी करने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति करता था।
फिरोज तुगलक ने गलामों का एक अलग विभाग खोला इनमें से बहुत से गुलाम शाही कारखानों में नियुक्त किए गए। वकील-ए-दर नामक अधिकारी दरबार में शिष्टाचार का निर्यात व औपचारिक समारोहों में अमीरों को उनके सामर्थ्य के हिसा से बैठाने का कार्य करता था। कोतवाल और मुफरिद किलों की व्यवस्था देखते थे। सुल्तानों के पास जल-बेड़ा भी था, जिसका प्रधान अमीर-ए-बहर कहलाता था। गुप्तचर (यजीक) सेना के आवश्यक अंग थे।
स्थानीय प्रशासन
जब तुर्कों ने इस देश को जीता तो इसे कई प्रदेशों में बाँट दिया था, जो इक्ता कहलाता था। इन इक्ताओं को प्रमुख तुर्क अमीरों के अधीन कर दिया गया। जिन अमीरों को इक्ता दिए गए थे, उन्हें मुक्ती या वली कहा जाता था। आरम्भ में मुक्ती लगभग स्वतंत्र थे । उनसे अपने-अपने प्रदेश में शांति-सुव्यवस्था कायम रखने और सरकार को देय भू-राजस्व वसूल करने की आशा की जाती थी। सूबे के नीचे शिक और शिक के नीचे परगना होता था। गांव के महत्वपूर्ण व्यक्ति खूत (भू-स्वामी)और मुकद्दम (मुखिया)
आर्थिक और सामाजिक
जीवन मोरक्को (उत्तरी अफ्रीका में टांजियर) का निवासी इब्नबतता चौदहवीं सदी में भारत आया था। वह मुहम्मद-बिन-तुगलक के दरबार में आठ वर्षों तक रहा। उसने पूरे देश की यात्रा की। वह भारत की उपजों के विषय में अत्यन्त रोचक विवरण छोड़ गया है। जिनमें फल-फूल और जड़ी-बूटियाँ शामिल हैं।
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इब्नबतूता के अनुसार, भारत की मिट्टी इतनी उपजाऊ है कि साल | में दो-दो फसलें उगाई जाती हैं तथा चावल की तीन-तीन फसलें पैदा की जाती हैं।
उसके अनुसार, अलसी, गन्ना और कपास भी पैदा की जाती थी। ये फसलें ग्रामोद्योगों के लिए आधार का काम करती थीं। इनमें प्रमुख उद्योग थे- कोल्हू में तेल पेरना, गुड़ बनाना, बुनाई करना आदि। शिया एवं सुन्नी मुस्लिमों के दो प्रमुख धार्मिक वर्ग बन गए। इसी प्रकार, नस्ल एवं जाति के आधार पर तुर्क, अफगान, मंगोल, सैय्यद और पठान आदि वर्गों का उदय हुआ। संपूर्ण सल्तनत काल में उत्तरी भारत में सुन्नियों का प्रभाव बना रहा, क्योंकि दिल्ली के सुल्तान सुन्नी-मतावलंबी थे, पण दक्षिण भारत में शिया सम्प्रदाय अधिक प्रबल था। दक्षिण भारत के प्रमुख मुस्लिम-राजवंशों की स्थापना शिया-मतावलंबिया । की थी। जिन भारतीयों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। मस्लिम एक वर्ग विदेशियों का था। मध्य एशिया की अनेक मस्लिम जातियाँ भारत में आकर बस गयी थीं।
व्यापार, उद्योग और व्यापारी
इलबतता ने दिल्ली को इस्लामी दुनिया के पूर्वी हिस्से का सबसे बडा नगर कहा है। उस काल के अन्य महत्वपूर्ण नगरों में उत्तर-पश्चिम में लाहौर और मुल्तान, पूर्व में कड़ा और लखनौती तथा पश्चिम में अन्हिलवाड़ (पाटन) और कैंबे (खंभात) प्रमुख थे।
बंगाल और गुजरात के शहर अपने उत्तम कपड़ों और सोने व चाँदी के कार्य के लिए प्रसिद्ध थे। बंगाल का सोनारगाँव अपने कच्चे रेशम और मलमल के लिए विख्यात था।
कागज बनाने की विधि का आविष्कार दूसरी सदी में चीनियों ने किया था। पाँचवीं सदी में विश्व इससे अवगत हुआ तथा यूरोप में यह कला बहुत आगे चलकर चौदहवीं सदी में पहुँची।
इस काल में उत्तम कोटि का भारतीय वस्त्र चीन को निर्यात किया जाने लगा। भारत चीन से कच्चा रेशम और चीनी मिट्टी के बर्तन आयात करता था। जल और थल दोनों मार्गों से चलने वाला भारत का व्यापार एक अंतर्राष्ट्रीय उद्यम था। यद्यपि हिन्द महासागर के रास्ते होने वाले व्यापार में अरब लोग सबसे बड़े साझेदार थे, लेकिन वे भारत के तमिल और गुजराती व्यापारियों को जिनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों शामिल थे, इस मार्ग से होने वाले व्यापार के क्षेत्र से हटा नहीं पाए थे। तटवर्ती बंदरगाहों और उत्तर भारत के मध्य होने वाला व्यापार मारवाड़ियों और गुजरातियों के अधिपत्य में था, जिनमें से अधिकांश लोग जैन थे। इन्होंने मंदिर निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया था
मध्य और पश्चिमी एशिया के साथ थल मार्ग से होने वाला व्यापार मुल्तानियों (अधिकांश हिंदू) और खुरासानियों (अफगान, ईरानी आदि) के हाथों में था। कैंबे (गुजरात) एक बड़ा नगर था, जिसमें बहुत से समृद्ध व्यापारी रहते थे। उनके पास सुन्दर पत्थरों और गारे से बने ऊँचे-ऊँचे महल थे, जिनकी छतें अच्छी किस्म की खपरैलों से बनी हुई थीं। ये संपन्न व्यापारी और कुशल कारीगर आरामदायक जिंदगी बिताते थे तथा अच्छा खाने-पहनने के अभ्यस्त थे।
बरनी के अनुसार, मुल्तानी व्यापारी इतने समृद्ध थे कि, उनके ! घर सोने-चाँदी से भरे होते थे तथा अमीर लोग इतना शाही खर्च करते थे कि, जब वे कोई भोज या समारोह आयोजित करना चाहत थ तब उन्हें पैसा उधार लेने के लिए मल्तानियों के घर भागना पड़ता था।
चोर-डाकुओं और लुटेरे कबीलों के कारण उन दिनों यात्रा करना कठिन था। फिर भी राजमार्ग को अच्छी हालत में रखा जाता था तथा यात्रियों की सुरक्षा व सुविधा के लिए उन पर जगह-जगह सरायें बनी होती थीं।
पेशावर से सोनारगाँव तक पहुँचने वाले राजमार्ग के अतिरिक्त मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली से दौलताबाद तक एक सड़क का निर्माण कराया।
देश के एक भाग से दूसरे भाग तक तेजी से डाक पहुँचाने की व्यवस्था की गई थी। यह काम डाक को मंजिल-दर-मंजिल (एक स्थान से दूसरे स्थान) ले जाने वाले अलग-अलग घोड़ों या हरकारों द्वारा किया जाता था। हरकारे लोग कुछ किलोमीटर की दूरी पर डाक-व्यवस्था के लिए विशेष रूप से बनाए गए मचानों पर बैठे रहते थे तथा पिछले पड़ाव से डाक लेकर वे अगली मंजिल के लिए तुरन्त भाग पड़ते थे।
हरकारा दौड़ते समय एक घंटी बजाता रहता था ताकि अगली मंजिल पर बैठे व्यक्ति को उसके आगमन की आहट लग जाए तथा वह डाक लेकर आगे जाने को तुरंत तैयार हो जाए।
जब मुहम्मद तुगलक दौलताबाद में था (जहाँ दिल्ली से पहुँचने में चालीस दिन लगते थे) तब इन्हीं हरकारों के द्वारा उसके पीने के पानी को प्रतिदिन यमुना से ले जाया जाता था। संचार व्यवस्था में सुधार होने तथा जल एवं थल दोनों मार्गों से व्यापार में वृद्धि होने से इस काल में आर्थिक जीवन विकसित हुआ। तुर्कों ने कई नए शिल्प और तकनीकें आरम्भ की और पुराने शिल्पों एवं तकनीकों को लोकप्रिय बनाया। कागज बनाना, शीशा बनाना, चरखा और अच्छी किस्म का करघा आदि शिल्पों के अन्य उदाहरण थे। तुर्कों के शासनकाल में सिंचाई व्यवस्था को भी अत्यधिक महत्व दिया गया था।
राज्य का स्वरूप
भारत में स्थापित तुर्क राज्य सैन्यवादी और कुलीनतंत्र था। सुल्तान इस्लामी कानून के उल्लंघन की इजाजत नहीं देते थे। राज-काज चलाने के लिए सुल्तान को मुस्लिम कानून के अतिरिक्त अपनी ओर से जरूरी विनियम भी बनाने पड़ते थे, जिन्हें जवाबित कहा जाता था।
हिन्दू प्रजा को सिंध विजय के समय से ही जिम्मियों का दर्जा दिया गया था। वे मुस्लिम शासन को कबूल लेने वाले और जजिया अदा करने वाले संरक्षित लोग थे। जजिया वस्तुतः सैनिक सेवा के अंतर्गत अदा किया जाने वाला कर था।
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