बलबन
मुइजुद्दीन बहरामशाह (1240-1242 ई.)
रजिया के पश्चात् 1240 ई. में बहरामशाह सुल्तान बना, परन्तु वह कुछ वर्षों तक ही गद्दी पर रह सका। वह नाममात्र का सुल्तान था।
राज्य की वास्तविक शक्ति का संचालन चालीस गुलामों का दल करता था।
शासक पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए तुर्की अमीरों ने – नायब-ए-मामलिकात (संरक्षक) का पद बनाया और उस पर एतगीन को बहाल कर दिया गया, परन्तु उसकी बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत होकर बहरामशाह ने उसकी हत्या कर दी।
एतगीन की हत्या के पश्चात् बदरूद्दीन सुंकर रूमी ने नायब के अधिकार प्राप्त कर लिए। उसने बहराम की हत्या का षड्यंत्र रचा परन्तु वह स्वयं ही एक षड्यंत्र में मारा गया। इन हत्याओं से तुर्की अमीर भयभीत हो उठे। उन लोगों ने सुल्तान को पदच्युत करने का षड्यंत्र रचा था।
1241 ई. में लाहौर पर मंगोलों ने आक्रमण कर दिया तथा 13 मई, 1242 को बहरामशाह की हत्या कर दी गयी।
अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246 ई.)
अलाउद्दीन मसूदशाह, रूकुनुद्दीन फिरोजशाह का पुत्र व इल्तुतमिश का पौत्र था। जो एक दुर्बल और अयोग्य व्यक्ति था। वह नाममात्र का शासक था। इसके शासनकाल में मलिक कुतुबद्दीन हसन को नायब और अबू बक्र को वजीर बनाया गया।
बलबन को हाँसी का इक्ता प्राप्त हुआ। शासन की वास्तविक सत्ता वजीर महाजबद्दीन के हाथों में थी जो तजाकिस्तान का गैर-तुर्क था। धीरे-धीरे बलवन सबसे प्रमुख व्यक्ति बन गया। बलबन ने षड्यंत्र कर मसूदशाह को गद्दी से हटाकर कैद कर लिया। जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी।
नसिरूद्दीन महमूद ( 1246–1265 ई.)
10 जून, 1246 में युवा नसिरूद्दीन महमूद शम्सी मलिकों द्वारा सुल्तान के पद पर आसीन हुआ। उसने तुर्की अमीरों की शक्ति का अनुमान लगाकर सम्पूर्ण सत्ता चालीसा के सरगना और नायब बलबन के हाथों में सौंप दी। नसिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में समस्त शक्ति बलबन के हाथों में थी।
1249 ई. में उसने बलबन को उलूग खाँ की उपाधि प्रदान की और | सेना पर पूर्ण नियंत्रण के साथ नायब-ए-मामलिकात का पद दिया।
1266 ई. में नसिरूद्दीन की अचानक मृत्यु हो गयी। वह शम्सी वंश का अंतिम शासक था। इसका कोई पुत्र नहीं था इसलिए अगला शासक गयासुद्दीन बलबन बना।
बलबन (1265-1287 ई.)
उलूग खाँ नामक एक तुर्क सरदार 1265 ई. में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा। वह अपने खिताबी नाम बलबन के रूप में इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। इसने बलबनी वंश की स्थापना की। बलबन राजपद की शक्ति और प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहा। गद्दी पर अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए उसने घोषणा की कि, वह विख्यात ईरानी शहंशाह अफरासियाब का वंशज है।
अपने कुलीन रक्त का पक्ष सिद्ध करने के लिए बलबन ने खुद को तुर्क अमीरों के हितों के रक्षक के रूप में पेश किया। इतिहासकार बरनी ने लिखा है कि, बलबन कहता था, जब भी मैं किसी नीच कुल में उत्पन्न हुए व्यक्ति को देखता हूँ तो मेरी आँखों में अंगारे फूटने लगते हैं और क्रोध से मेरा हाथ (उसे मारने के लिए) मेरी तलवार पर चला जाता है।

बलबन पहला सुल्तान था जिसने राजत्व के सिद्धांत का प्रतिपादन किया उसने राजत्व को नियाबते-खुदाई (ईश्वर द्वारा प्रदत्त) तथा राजा को जिल्ले-इलाही (ईश्वर की छाया) कहा है। बलबन ने मद्यपान का निषेध कर दिया था।
बलबन ने फारसी-नववर्ष की शुरूआत पर मनाये जाने वाले उत्सव नौरोज को भारत में प्रारम्भ किया था तथा सुल्तान की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए दरबार में फारसी परंपरा सजदा (घुटनों के बल बैठकर सुल्तान के सामने सिर झुकाना) तथा पैबोस (पेट के बल लेटकर सुल्तान के पैरों को चूमना) प्रथाएँ प्रारम्भ की थीं।
अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिये बलबन ने चालीसा दल व नायब का पद पूर्णतः समाप्त कर दिया। स्वयं को राज्य की परिस्थितियों से परिचित रखने के लिये गुप्तचर प्रणाली प्रारम्भ की। गुप्तचरों को बरीद कहा जाता था।
दिल्ली सल्तनत के लिए खतरा बने मंगोलों का सामना करने के लिए बलबन ने एक शक्तिशाली केंद्रीयकृत सेना संगठित की। इस प्रायोजन से उसने सैन्य विभाग (दीवान-ए-अर्ज) का पुनर्गठन किया। विरोधियों एवं लुटेरों से निपटने के लिए बलबन ने रक्त और लौह की नीति अपनाई। इसके अन्तर्गत, लुटेरों कादूर तक पीछा कर उनकी हत्या कर दी जाती थी
बलबन ने गढ़मुक्तेश्वर की मस्जिद की दीवारों पर उत्कीर्ण | शिलालेख पर स्वयं को खलीफा का सहायक कहा है।
बलबन ने बदायूँ के आस-पास के क्षेत्रों में राजपूतों के गढ़ों को नष्ट कर दिया। लोगों पर अपनी शक्ति और सामर्थ्य को प्रदर्शित करने के लिए बलबन अपने दरबार का वातावरण अत्यधिक शानो-शौकत से भरा रखता था। बलबन की मृत्यु 1286 ई. में हुई थी।
बरनी लिखता है कि, 1286 ई. में बलबन की मृत्यु से दु:खी हुए मलिकों ने अपने वस्त्र फाड़ डाले तथा सुल्तान के शव को नंगे पैरों दारुन-अमन के कब्रिस्तान को ले जाते हुए अपने-अपने सिरों पर धूल फेंकी। उन्होंने चालीस दिनों तक उसकी मृत्यु का शोक मनाया तथा भूमि पर सोये।
मोइजुद्दीन कैकुबाद (1287-1290 ई.)
सुल्तान की मृत्यु के बाद उसके अमीर पुनः सक्रिय हो उठे। उन लोगों ने कैखुसरो को मुल्तान भेज दिया एवं उसके स्थान पर बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद को सुल्तान घोषित किया।
कैकुबाद को सुल्तान बनाने में दिल्ली के कोतवाल मलिक फखरूद्दीन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राज्यारोहण के समय कैकुबाद की आयु मात्र सत्रह वर्ष की थी। उसका पालन-पोषण उसके दादा बलबन के संरक्षण में हुआ था
जो आचार-विचार के सम्बंध में अत्यन्त कट्टर था। अतः वह विलासिता पूर्ण जीवन से पूर्णतः दूर था। अब वह सभी प्रतिबन्धों से मुक्त हो गया तथा एक विशाल राज्य का स्वामी बन गया, इसलिए उसकी दबी हुई इच्छाएँ उमड़ पड़ीं और वह शराब, स्त्री-प्रसंग तथा विलासिता के जीवन में लिप्त हो गया।
उसके दरबारियों ने भी उसका अनुसरण किया, क्योंकि पूर्व-सुल्तान द्वारा लगाए गए प्रतिबन्धों से वे ऊब गए थे। राज्य की शक्ति दिल्ली के कोतवाल के दामाद निजामुद्दीन नामक एक चरित्रहीन व्यक्ति के हाथों में चली गयी।
कैकबाद उसके हाथों की कठपुतली बन गया। इस परिवर्तन का लाभ उठाकर मंगोलों ने अपने नेता तैमूर खाँ के नेतृत्व में पंजाब पर आक्रमण किया और समाना तक बढ़ आए। कैकूबाद का पिता बुगरा खाँ बलबन के समय से ही बंगाल की सूबेदारी करता आया था।
जब उसने दिल्ली से ये खबर सुनी तो एक शक्तिशाली सेना लेकर वह राजधानी की ओर चल पड़ा।
कहा जाता है कि, अपने दुर्बल पुत्रों के हाथों से गद्दी छीन लेना | | उसका मुख्य उद्देश्य था, किन्तु एक अन्य लेखक का कहना है कि, यह कैकुबाद को उचित सलाह देना चाहता था जिससे वह आमोदप्रिय जीवन त्यागकर राज-काज की ओर ध्यान देने लगे।
उसका उद्देश्य कुछ भी रहा हो, 1288 ई. में उसने अयोध्या के निकट घाघरा नदी के किनारे अपना डेरा जमा दिया। कैकुबाद ने भी एक बड़ी सेना लेकर उसके विरुद्ध कूच किया।
निजामुद्दीन ने पिता और पुत्र को मिलने से रोकने का प्रयत्न किया और कैकुबाद को उसने युद्ध के लिए प्रोत्साहित किया, परन्तु बलबन के समय के कुछ स्वामिभक्त सेवकों के प्रभाव के कारण अन्त में पिता-पुत्र में समझौता हो गया।
तुर्की अमीर जो खिलजियों को गैर-तुर्क समझते थे, जलालुद्दीन के शत्रु थे। इसके कुछ ही समय पश्चात् कैकुबाद लकवा ग्रस्त हो गया। इसलिए तुर्की अमीरों ने उसके पुत्र को (जो अभी शिशु ही था) शम्सुद्दीन क्यूमर्स के नाम से सिंहासन पर बैठा दिया।
क्यूमर्स (1290 ई.)
तुर्की अमीरों ने कैकुबाद के नाबालिग पुत्र क्यूमर्स द्वितीय की उपाधि से गद्दी पर बिठाया तथा जलालुद्दीन उसका संरक्षक नियुक्त हुआ। तीन माह पश्चात् क्यूमर्स को बंदी बनाकर उसका हत्या कर जलालुद्दीन सुल्तान बन गया। इस प्रकार, इल्बरी तुका का शासन समाप्त हुआ तथा खिलजी वंश की सत्ता स्थापित हुई।