मुगल साम्राज्य-Mugal samrajye in Hindi-Mughal Empire

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बाबर( 1526-1530 ई)

बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 को ट्रांसऑक्सियाना के एक छोटे से राज्य फरगना में हुआ था। इसका पूरा नाम जहीरूद्दीन मुहम्मद बाबर था। इसके पिता का नाम उमर शेख मिर्जा (तैमूर वंश) तथा माता का नाम कुतलुग निगार खानम (चंगेज खाँ के वंशज) था। वह कृष्णदेव राय व नुसरत शाह का समकालीन था। बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजुके-बाबरी तुर्की भाषा में लिखी थी। 1494 ई. में 14 वर्ष की अल्पायु में बाबर ट्रांस-ऑक्सियाना के  फरगना नामक एक छोटे से राज्य की गद्दी पर बैठा। • मध्य एशिया के अन्य असंख्य आक्रमणकारियों की तरह बाबर भी  भारत के धन-धान्य की ख्याति सुनकर उसकी ओर आकृष्ट हुआ था। उसने सुन रखा था कि, भारत सोने-चाँदी का देश है।

तैमूर यहाँ से अतुलित संपत्ति एवं कुशल कारीगर लेकर लौटा था, जिसके कारण उसने अपने एशियाई साम्राज्य को सुदृढ़ता प्रदान की थी तथा अपनी राजधानी को भव्य बनाया था, साथ ही उसने पंजाब के कुछ क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में भी मिला लिया था।  बाबर की भारत-विजय की आकांक्षा का एक और भी कारण यह था कि, उसे काबुल से बहुत कम आय होती थी।

उत्तर-पश्चिम भारत की राजनीतिक परिस्थिति भारत में बाबर के प्रवेश के लिए उपयुक्त थी। 1517 ई. में सिकंदर लोदी की मृत्यु हो चुकी थी तथा दिल्ली की गद्दी पर इब्राहिम लोदी आसीन था। अफगान सरदारों में एक सबसे दुर्धर्ष व्यक्ति पंजाब का सूबेदार दौलत खाँ लोदी था। दौलत खाँ पंजाब का लगभग स्वतंत्र शासक था। 1518-19 ई. में बाबर ने भेरा के शक्तिशाली दुर्ग को जीत लिया था।  इसके पश्चात् जब बाबर काबुल लौटा तो दौलत खाँ ने उसके प्रतिनिधि को भेरा से निकाल दिया। 1520-21 ई. में बाबर ने एक बार पुनः सिंधु नदी पार कर आसानी से भेरा और सियालकोट को जीत लिया।मुगल साम्राज्यमुगल साम्राज्य

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दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ के नेतृत्व में एक दूतमंडल बाबर के पास पहुँचा। उन्होंने बाबर को भारत आने के लिए निमंत्रित किया था।मुगल साम्राज्य

पानीपत का युद्ध : (21 अप्रैल, 1526)

इब्राहिम लोदी ने विशाल सेना के साथ पानीपत (हरियाणा) में बाबर का सामना किया। बाबर ने 12,000 सैनिकों के साथ सिंधु नदी पार की थी। बाबर ने दो कुशल उस्मानिया तोपचियों-उस्ताद अली और मुस्तफा की सेवाएँ प्राप्त की थीं।मुगल साम्राज्य

उस समय भारत में बारूद का प्रयोग धीर-धीरे विकसित हो रहा था।

इस युद्ध में बाबर को विजय प्राप्त हुई तथा इब्राहिम लोदी की मृत्यु हो गयी। पानीपत के युद्ध को भारतीय इतिहास के निर्णायक युद्धों में गिना जाता है।

इस युद्ध में लोदी साम्राज्य का अन्त हो गया तथा दिल्ली से आगरा तक के सम्पूर्ण क्षेत्र पर बाबर का नियंत्रण स्थापित हो गया। बाबर को दो और कठिन लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं- पहला, मेवाड़ के राणा सांगा के विरुद्ध तथा दूसरा, पूर्वी अफगानों के विरुद्ध। बाबर ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि, उसने सर्वप्रथम बारूदका प्रयोग भेरा के किले पर आक्रमण करते समय किया था।  इस युद्ध में बाबर ने तुलगमा पद्धति का प्रयोग किया था।मुगल साम्राज्य

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खानवा का युद्ध (16 मार्च, 1527)

बाबर ने राणा सांगा पर संधि भंग करने का आरोप लगाया। उसने कहा कि, उसे राणा सांगा ने भारत आने के लिए निमंत्रित किया था और इब्राहिम लोदी के विरुद्ध उसका साथ देने का वचन दिया था, पर जब वह दिल्ली और आगरा पर विजय पाने में व्यस्त था, तब राणा सांगा ने उसका साथ नहीं दिया। अत्यधिक अफगानों ने राणा सांगा का सहयोग किया। इनमें इब्राहिम लोदी का छोटा भाई महमूद लोदी भी शामिल था, जिसे सांगा के विजित होने पर दिल्ली की गद्दी वापस मिल जाने की आशा थी। मेवात के शासक हसन खाँ ने मेवाती राणा का सहयोग किया था लगभग सभी राजपूत राजाओं ने राणा के अधीन लड़ने के लिए अपनी-अपनी सेनाओं की टुकड़ियाँ भेजींमुगल साम्राज्य

राणा  सांगा की ख्याति बयाना जैसे कुछ सीमावर्ती मुगल ठिकानों के  विरुद्ध उसकी प्रारंभिक सफलता की जानकारी से बाबर की सेना में पराजय की निराशा छा गयी। उनमे  उत्साह भरने क लिए बाबर ने पूरी गंभीरता से ऐलान किया यह लडाई है, अपने को सच्चा मुसलमान दिखाने के लिए (जिहाद का नारा) युद्ध से एक दिन पहले उसने अपने सैनिकों के सामने शराब की समूची सुराहियाँ उलीच दी एवं सारे पैमाने तोड़ डाले।. उसने अपने पूरे राज्य में शराब की खरीद-ब्रिकी पर पाबंदी लगा दी तथा मुसलमानों पर से सारी चुंगी हटा ली।

बाबर ने सावधानी पूर्वक आगरा से चालीस किलोमीटर दूर खानवा में एक उपयुक्त स्थान चुनकर अपना मोर्चा जमाया। खानवा के मैदान (1527 ई.) में भीषण युद्ध हुआ। बाबर के । अनुसार, राणा सांगा की सेना में 2,00,000 से अधिक सैनिक थे। इनमें 10,000 अफगान घुड़सवार भी थे। इस युद्ध में राणा सांगा की सेना पराजित हो गयी। खानवा के युद्ध से दिल्ली-आगरा क्षेत्र में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गयी। जिसके पश्चात् उसने मालवा क्षेत्र में चंदेरी के राजा मेदिनी राय पर आक्रमण कर दिया। राजपूत वीरतापूर्वक लड़े परन्तु मेदिनी राय पराजित हुआ। राजपूत स्त्रियों ने इस युद्ध के बाद जौहर कर लिया।मुगल साम्राज्य

बाबर की आत्मकथा

बाबर ने तुर्की भाषा में अपनी आत्मकथा तुजुक-ए- बाबरी की रचना की थी। इसे बाबरनामा (वाकियाते-बाबरी) के नाम से | जाना जाता है। सर्वप्रथम अकबर के समय में इसका फारसी भाषा म अनुवाद पायंदा खाँ ने किया था। इसके पश्चात् 1590 ई. में अब्दुरहीम खान ने इसका फारसी में अनुवाद किया। बाबरनामा का फारसी भाषा से अंग्रेजी अनुवाद सर्वप्रथम लीडन, अर्सकिन व  एल्किंग ने 1826 ई. में किया था।मुगल साम्राज्य

बाबर के भारत आगमन का महत्व

कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद यह पहला अवसर था, जब काबुल और कंधार उस साम्राज्य के अंग बन गए थे, जिसमें उत्तर भारत शामिल था। बाबर ने भारत में एक नई युद्ध पद्धति (तुलगमा) का सूत्रपात किया। यद्यपि भारत में बारूद की जानकारी पहले भी थी, परन्तु बाबर ने दिखा दिया कि, तोपखाने और अश्वारोही सेना के कुशल संयोग से कितना कुछ प्राप्त किया जा सकता था। उसकी विजय से भारत में बारूद और तोपखाने की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी।

बाबर को फारसी, अरबी तुर्की का स्पष्ट ज्ञान था। तुर्की भाषा उसकी मातृ भाषा थी।

उसका प्रसिद्ध संस्मरण तुजुक-ए-बाबरी विश्व साहित्य की एक अमर कृति मानी जाती है। एक मसनवी और एक जाने-माने सूफी संत की रचना का तुर्की भाषा में अनुवाद उसकी अन्य कृतियाँ हैं। वह एक गंभीर प्रकृति-विशारद था तथा उसने भारत की वनस्पतियों व जीव-जंतुओं का वर्णन विस्तार से किया है। उसने कई योजनाबद्ध बगीचे लगवाए और उनमें पानी के तीव्र प्रवाह की व्यवस्था करवाई। आगरा में ज्यामितीय विधि से एक बाग लगवाया जिसे नूरे अफगान नामक बाग कहा जाता है। इसे आरामबाग के नाम से भी जाना जाता है। बाबर ने सड़क मापने हेतु गज-ए-बाबरी नामक पैमाने का प्रयोग किया था। बाबर ने राज्य की एक नई अवधारणा का सूत्रपात किया। इस राज्य का आधार बादशाह की शक्ति और प्रतिष्ठा थी।

हुमायूँ ( 1530-40, 1555-56 ई.)

बाबर के चार पुत्रों (हुमायूँ, कामरान, अस्करी, हिंदाल) में हुमायूँ सबसे बड़ा था बाबर की मृत्यु के बाद 30 दिसंबर, 1530 में उसका पुत्र हुमायूँ सिंहासन पर बैठा। हुमायूँ ने अपने पिता के आदेश के अनुसार, कामरान को काबुल एवं कन्धार, अस्करी को सम्भल तथा हिन्दाल को अलवर की जागीर दी। इसके अतिरिक्त अपने चचरे भाई सुलेमान मिर्जा को बदख्शाँ की जागीर दी। 1530 ई. में हुमायूँ ने कालिंजर का अभियान किया। जिसका शासक प्रताप रूद्रदेव था। 1532 ई. में उसने दौराह नामक स्थान पर बिहार को जीतने वाली अफगान सेना को परास्त कर दिया तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में जौनपुर पर अधिकार कर लिया।

हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डाला। यह सशक्त दुर्ग आगरा और पूर्व के मध्य के थल मार्ग और नदी मार्ग को नियंत्रित करता था तथा पूर्वी भारत के प्रवेश द्वार के रूप में जाना जाता थाशेर खाँ इस समय अफगान सरदारों में सबसे अधिक शक्तिशाली था। चार महीने की घेराबंदी के बाद हुमायूँ शेर खाँ के समझौते के प्रस्ताव पर सहमत हो गया। जिसके अनुसार, चुनार के किले पर शेर खाँ का अधिकार कायम रहना तथा इसके स्थान पर उसने मुगलों के प्रति वफादार रहने का वचन दिया और बंधक के रूप में अपना एक बेटा हुमायूँ के पास भेज दिया।

गुजरात के शासक बहादुरशाह की बढ़ती हुई शक्ति तथा आगरा की सीमा पर पड़ने वाले क्षेत्रों तक फैली उसकी गतिविधियों से हुमायूँ चिंतित हो उठा था। बहादुरशाह लगभग हुमायूँ की उम्र का सुयोग्य और महत्वाकांक्षी शासक था। 1526 ई. में गद्दी पर बैठते ही उसने मालवा विजित कर अधिकार कर लिया था।

इसी समय राणा सांगा की रानी कर्णवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर उससे मदद माँगी थी तथा हुमायूँ वीरोचित आचरण करते हुए उसकी गुहार (पुकार) के जवाब में सहायता के लिए पहुँच गया था। मुगल हस्तक्षेप के भय से बहादुरशाह ने राणा से संधि कर ली तथा उससे नकद और भारी हर्जाना वसूल कर किले को उसके अधिकार में छोड़ दिया। अगले डेढ़ साल तक हुमायूँ दिल्ली में एक नए नगर के निर्माण  में व्यस्त रहा, जिसका नाम दीनपनाह रखा गया। दीनपनाह के निर्माण का उद्देश्य, मित्रों और शत्रुओं दोनों को प्रभावित करना था।

चित्तौड़ से बचकर जाने के पश्चात् बहादुरशाह ने अपना अभियान जारी रखा और चित्तौड़ पर फिर घेरा डाल दिया तथा इब्राहिम लोदी के एक रिश्तेदार तातार खाँ को अस्त्र-शस्त्र  और सैनिक उपलब्ध करवाये। तातार खाँ 40,000 की एक फौज से आगरा पर आक्रमण करने वाला था। हुमायूँ ने तातार खाँ की चुनौती को आसानी से विफल कर दिया तथा मालवा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के बाद हुए संघर्ष में हुमायूँ ने उल्लेखनीय सैनिक कौशल और व्यक्तिगत वीरता का परिचय दिया। बहादुरशाह में मुगलों का सामना करने का साहस नहीं था।

उसने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया था, परन्तु हुमायूँ के आक्रमण की सूचना पाते ही वह अपने किलेबंद शिविर को छोड़ कर मांडू भाग गया। बहादुरशाह पुर्तगालियों के एक जहाज पर पुर्तगाली गवर्नर से हुई लड़ाई में जहाज से समुद्र में गिर पड़ा और डूबकर उसकी मृत्यु हो गयी। गुजरात को जीतने के बाद हुमायूँ ने उसे अपने छोटे भाई अस्करी को सुपुर्द कर दिया था।

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चौसा का युद्ध (26 जून, 1539)

आगरा से हुमायूँ की गैर हाजिरी (फरवरी, 1535 से फरवरी 1920 के समय शेर खाँ ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। • अब वह बिहार का निर्विवाद स्वामी था। यद्यपि वह मगलों को प्रति वफादारी का दिखावा करता रहा, परन्तु वस्तुतः भारत से उनके निष्कासन की योजना व्यवस्थित रीति से तैयार कर रहा था। उसने एक विशाल और कुशल सेना खड़ी कर ली थी, जिसमें 1200 हाथी शामिल थे। हुमायूँ के आगरा लौटने के कुछ ही दिन बाद उसने इसी सेना के बल पर बंगाल के शासक को पराजित कर उससे 13,00,000 दीनार (सोने के सिक्के) हर्जाना वसूल किया था।

हुमायूँ ने शेर खाँ के विरुद्ध कूच कर दिया तथा 1537 ई. के अंतिम दिनों में चुनार पर घेरा डाल दिया। अफगानों ने वीरता के साथ किले की रक्षा की। तोपची रूमी खाँ की कई प्रयासों के बाद भी उस पर अधिकार करने में हुमायूँ को छः महीने लग गए। इस बीच शेर खाँ ने धोखे से रोहतास के मजबूत किले पर अधिकार कर लिया था। उसके बाद उसने दूसरी बार बंगाल पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार शेर खाँ ने हुमायूँ को पराजित कर दिया था।

गौड़ को जीतने के बाद शेर खाँ ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि, यदि वह बंगाल को उसके अधिकार में रहने दे तो वह बिहार उसे सौंप देगा और दस लाख दीनार का सालाना कर अदा भी करेगा। हुमायूँ ने शेर खाँ के प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा बंगाल पर चढ़ाई करने का निर्णय कर लिया। हुमायूँ अपनी सेना को बक्सर के पास चौसा तक ले आया। शेर खाँ के शांति के एक प्रस्ताव के झांसे में आकर, हुमायूँ कर्मनासा नदी पारकर उसके पूर्वी तट पर आ गया। हुमायूँ अपने घोड़े सहित गंगा नदी में कूद गया और एक भिश्ती की सहायता से सुरक्षित बाहर निकला। हुमायूँ ने इस उपकार के बदले भिश्ती को एक दिन का बादशाह घोषित किया।

कन्नौज/बिलग्राम का युद्ध (17 मई, 1540) 

इस युद्ध में हुमायूँ ने अफगानों का वीरतापूर्वक मुकाबला किया। हुमायूँ के दोनों भाई, हिंदाल और अस्करी बहादुरी से लड़े, परन्तु मुगलों की पराजय हुई। कन्नौज की लड़ाई ने हमायूँ और शेर खाँ के मध्य के सघष का फैसला कर दिया था। अब हुमायूँ बिना बादशाहत का बादशाह रह गया था।

काबल और कन्धार कामरान के हाथों में था। अगले ढाई वर्षों तक ब सिंध और उसके आस-पास के क्षेत्रों में भटकता रहा तथा अपना राज्य वापस पाने के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाएँ बनाता रहा। उसे ईरान के शाह के दरबार में शरण मिली तथा 1545 ई. में उसी की सहायता से उसने काबुल और कन्धार पर पुनः अधिकार कर लिया। अपने निर्वासन काल के दौरान हुमायूँ ने हिन्दाल के आध्यात्मिक गरु मीर अली की पुत्री हमीदाबानो बेगम से 29 अगस्त, 1541 में विवाह कर लिया। जिन्होंने अकबर को जन्म दिया।

23 जुलाई, 1555 में हुमायूँ एक बार पुनः दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। परन्तु वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका। एक दिन हुमायूँ जब दिल्ली में दीनपनाह भवन में स्थित पुस्तकालय (शेर-ए-मण्डल) की सीढ़ियों से उतर रहा था वह गिर गया और इस प्रकार जनवरी, 1556 में हुमायूँ की मृत्यु हो गयी। लेनपूल ने हुमायूँ पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, हुमायूँ जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लडखड़ाते हुए अपनी जान दे दी। उसकी पत्नी हाजी बेगम ने किले के समीप उसका एक मकबरा बनवाया। अबुल फजल ने हुमायूँ को इन्सान-ए-कामिल कहकर सम्बोधित किया था।

कानून-ए-हुमायूँ के अनुसार, हुमायूँ ने प्रशासन में सहायता के लिए अहल-ए-मुराद वर्ग का गठन किया, जिसमें नर्तक व नर्तकियाँ शामिल थीं। उसने दिल्ली में मीनाबाजार की शुरुआत की थी, जिसमें कर्मचारियों की पत्नियाँ बाजार लगाती थीं और राजपरिवार के लोग क्रय करते थे। चूँकि हुमायूँ ज्योतिष में विश्वास करता था, इसलिए उसने सप्ताह के सातों दिन 7 रंग के कपड़े पहनने के नियम बनाए थे। वह मुख्यतः रविवार को पीला, शनिवार को काला एवं सोमवार को सफेद कपड़े पहनता था।

शेरशाह सूरी (1540 – 1545 ई.)

शेरशाह सूरी (शेर खाँ) दिल्ली के सिंहासन पर 67 साल की आयु में बैठा। उसका मूल नाम फरीद था तथा उसके पिता हसन खाँ जौनपुर के एक छोटे-से जागीरदार थे। फरीद को शेर खाँ का खिताब उसके संरक्षक ने एक शेर को मारने  पर दिया था। मुहम्मद शाह (बहार खां लोहानी) की मृत्यु के बाद शेर खाँ ने उसकी विधवा दूदू बेगम से विवाह कर लिया और दक्षिण बिहार का शासक बन गया।

शेरशाह सूरी ने मुहम्मद-बिन-तुगलक की मृत्यु के पश्चात् उत्तर भारत में स्थापित सबसे बड़े साम्राज्य पर शासन किया। उसका साम्राज्य बंगाल से लेकर सिंधु नदी तक (कश्मीर को छोड़ कर) फैला हुआ था। पश्चिम में उसने मालवा और लगभग पूरे राजस्थान को जीत लिया था। 1532 ई. में मारवाड़ की गद्दी पर बैठने वाले राजा मालदेव ने बहुत तेजी से सम्पूर्ण पश्चिमी और उत्तरी राजपूताना पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था।

शेरशाह मारवाड़ के युद्ध में राजपूतों के शौर्य से इतना प्रभावित हुआ कि, उसने कहा- मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए लगभग हिन्दुस्तान का साम्राज्य खो चुका था। राजपूत और अफगान सेनाओं के साथ युद्ध (1544 ई.) अजमेर और जोधपुर के मध्य सामेल नामक स्थान पर हुआ था। दस महीनों की अल्प अवधि में ही शेरशाह ने लगभग पूरे राजस्थान को अपने अधीन कर लिया।

उसका आखिरी सैनिक अभियान कालिंजर के विरुद्ध था। कालिंजर की घेराबंदी के दौरान उक्का नामक आग्नेय अस्त्र चलाने के दौरान शेरशाह बुरी तरह से घायल हो गया था। किले पर अधिकार हो जाने की खबर सुनने के बाद (1545 ई.) उसकी मृत्यु हो गयी। शेरशाह सूरी का दूसरा बेटा इस्लाम शाह सिंहासन पर बैठा। उसने 1553 ई. तक शासन किया। इस्लामशाह की मुत्यु के बाद अफगान अमीरों ने मृत सुल्तान के नाबालिग (12 वर्ष) पुत्र फिरोज को सुल्तान घोषित कर दिया। उसका राज्याभिषेक ग्वालियर में हुआ वह केवल तीन दिनों का बादशाह बन सका।

मुबारिज खाँ ने अल्पवयस्क सुल्तान की हत्या कर दी और स्वयं  मुहम्मदशाह आदिल के नाम से सुल्तान बन गया।

शेरशाह की देन 

  • अपने साम्राज्य के एक छोर से दूसरे छोर तक शांति-व्यवस्था की  पुनर्स्थापना शेरशाह का एक प्रमुख योगदान था।
  • शेरशाह ने अपने राज्य में वाणिज्य-व्यापार के उत्थान और संचार-सुविधाओं के सुधार की ओर विशेष ध्यान दिया।
  • उसने पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर बंगाल में सोनार गाँव तक पहुँचने वाली पुरानी शाही सड़क (जिसे ग्रैन्ड ट्रंक रोड कहा जाता है) को पुनः शुरू करवाया, जिसे प्राचीन भारत में उत्तराप  कहते थे। 
  • लार्ड डलहौजी ने इसका नाम बदलकर जी. टी. रोड रखा था,  वर्तमान में यह NH-1 व NH-2 के नाम से जानी जाती है।

उसने आगरा से जोधपुर व चित्तौड़ तक सड़क बनवाई। एक अन्य सड़क उसने लाहौर से मुल्तान तक बनवाई थी। यात्रियों की सुविधा के लिए उसने इन सड़कों पर लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर सरायें बनवाईं। अब्बास खाँ सरवानी ने कहा था कि, इन सरायों का यह नियम था कि, इनमें जो भी दाखिल होता था, उसे सरकार की ओर से अपनी पद-प्रतिष्ठा के अनुरूप सुविधाएँ, भोजन और उसके पशु के लिए चारा दिया जाता था। शेरशाह सूरी ने कुल 1700 सरायें बनवाईं। शेरशाह द्वारा बनवाई गयी सड़कों और सरायों को साम्राज्य की धमनियाँ कहा गया है। बहुत-सी सरायें बाजार-बस्तियों के रूप में विकसित हुईं, जिन्हें कस्बा कहा जाता था। सरायों का उपयोग समाचार-सेवाओं के लिए अर्थात् डाक-चौकियों के लिए भी किया जाता था।

शेरशाह ने वाणिज्य और व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए और भी सुधार किए उसके सम्पूर्ण साम्राज्य में व्यापार के माल पर सिर्फ दो स्थानों में चुंगी लगती थी। किसी व्यापारी की मृत्यु हो जाने पर लोगों को उसकी वस्तुओं को लावारिस मान कर उन पर कब्जा करना अपराध माना गया था। शेरशाह ने स्पष्ट कर दिया कि, किसी व्यापारी की जो भी क्षति होगी, उसकी जिम्मेदारी स्थानीय मुकद्दमों और जमींदारों की होगी।

अब्बास खाँ सरवानी की व्यंग्यपूर्ण भाषा में कहें तो कोई जर्जर बूढ़ी औरत भी अपने सिर पर सोने के गहनों से भरी टोकरी रख कर यात्रा पर निकल जाती थी तो शेरशाह द्वारा दी जाने वाली सजा के भय से कोई भी चोर-डाकू उसके पास फटकने की हिम्मत नहीं कर सकता था। उसने मिश्र धातु के निम्न कोटि के सिक्कों के स्थान पर सोने, चाँदी और ताँबे के मानक सिक्के ढलवाए। उसके चाँदी के सिक्के इतनी अच्छी तरह ढले हुए थे कि, वे उसकी मत्य के बाद भी सदियों तक मानक सिक्कों के रूप में चलते रहे।

शेरशाह ने सल्तनत काल से प्रचलित प्रशासनिक विभाजनों में बहुत परिवर्तन नहीं किए। कई गाँवों को मिला कर एक परगना बनता था। परगना शिकदार के जिम्मे होता था, जो शांति-व्यवस्था का ध्यान रखता था। मुंसिफ या आमिल भू-राजस्व की उगाही की निगरानी करता था। लेखा-जोखा (हिसाब-किताब) फारसी और स्थानीय भाषा (हिंदवी) दोनों में रखे जाते थे।

परगना से ऊपर की इकाई शिक या सरकार थी, जो शिकदार-ए-शिकदारान और एक मुंसिफ-ए-मुंसिफान के अन्तर्गत होती थी। राज्य का हिस्सा उपज का एक-तिहाई था। जमीन को उत्तम, मध्यम और निम्न इन तीन दों में बाँट दिया गया था तथा लगान इन तीनों श्रेणियों के अलग-अलग औसत उत्पादन के आधार पर तय किया गया था।

बोई गयी  गयी जमीन के क्षेत्रफल, लगाई गयी फसलों की किस्में और प्रत्येक किसान द्वारा देय लगान एक कागज में दर्ज होता था, जिसे पट्टा कहते थे। अपने विस्तृत साम्राज्य को संभालने के लिए शेरशाह ने एक शक्तिशाली सेना खड़ी की। उसने सिपाहियों की सीधी भर्ती का कार्यक्रम शुरू कर दिया। जिसके लिए प्रत्येक रंगरूट के चरित्र की जाँच की जाती थी।

प्रत्येक सिपाही का पूरा व्यक्तिगत वर्णन दर्ज रहता था, जिसे चेहरा कहते थे। शेरशाह की खास सेना में 1,50,000 घुड़सवार और 25,000 पैदल सैनिक शामिल बताए जाते हैं। ये लोग तोड़ेदार बंदूकों या धनुषों से सज्जित होते थे। न्याय पर शेरशाह का बहुत जोर रहता था। अलग-अलग स्थानों में न्याय करने के लिए काजी नियुक्त किए जाते थे। लेकिन गाँवों में पहले की तरह फौजदारी और दीवानी दोनों के मामलों का निपटारा स्थानीय तौर पर पंचायतें और जमींदार करते थे। उसने सासाराम (बिहार) में अपने लिए मकबरा बनवाया, जो स्थापत्य का एक उत्कृष्ट नमूना माना जाता है।

शेरशाह ने दिल्ली के निकट यमुना के किनारे एक नया नगर भी बसाया। अब उसमें केवल पुराना किला और उसके अंदर बनी एक मस्जिद सुरक्षित हैं। शेरशाह ने विद्वानों को भी संरक्षण दिया। उनमें से एक मलिक मुहम्मद जायसी था, जिसने पद्मावत नामक काव्य ग्रंथ की रचना की। यद्यपि यह शेरशाह के संरक्षण में नहीं था।

शेरशाह ने सम्पूर्ण साम्राज्य से उत्पादन का 1/3 भाग कर के रूप में लिया। जबकि मुल्तान से उपज का 1/4 हिस्सा लगान के रूप में वसूला जाता था। शेरशाह ने भूमि की माप के लिए सिकन्दरी गज 34 अंगुल या 32 इंच एवं सन की डंडी का प्रयोग करवाया था। शेरशाह की मुद्रा व्यवस्था अत्यन्त विकसित थी। उसने पुराने घिसे पिटे सिक्कों के स्थान पर शुद्ध चाँदी का रुपया (180 ग्रेन) और ताँबे का दाम ( 380 ग्रेन) चलाया। शेरशाह के समय में 23 टकसालें थीं।

शेरशाह के सिक्कों पर शेरशाह का नाम और पद अरबी या नागरी लिपि में अंकित होता था। शेरशाह द्वारा रुपये के बारे में स्मिथ ने लिखा है- यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा प्रणाली का आधार है।

मालगुजारी (लगान) के अतिरिक्त किसानों को जरीबाना (सर्वेक्षण-शुल्क) एवं महासिलाना (कर-संग्रह शुल्क) नामक कर देने पड़ते थे, जो क्रमशः भूराजस्व का 2.5 प्रतिशत एवं 5 प्रतिशत होता था।

म्राज्यमुगल साम्राज्य

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