यूरोपीय कंपनियों का भारत में आगमन

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पर्तगालियों और स्पेनवासियों ने भौगोलिक खोजों का यग आरम्भ किया था। पुर्तगाल के राजकुमार हेनरी द नेवीगेटर के सतत् प्रयासों से ही भौगोलिक खोजों का कार्य आसान हुआ। पुर्तगाल के नाविक बार्थोलोम्योडियाज ने 1487 ई. में उत्तमाशा अन्तरीप की खोज की, जिसे उसने तूफानी अन्तरीप कहा। 1492 ई. में स्पेन के निवासी कोलम्बस ने भारत पहुँचने का मार्ग ढूँढ़ते हुए अमेरिका की खोज की। 1498 ई. में वास्कोडिगामा (पुर्तगाली) ने उत्तमाशा अन्तरीप (केप ऑफ गुड होप) के रास्ते भारत पहुँचने में सफलता प्राप्त की।

पुर्तगाल

यूरोपियन देशों में सर्वप्रथम पुर्तगाली भारत आए। वास्कोडिगामा ने यूरोप से भारत के लिए समुद्री मार्ग की खोज की। वह पुर्तगाल के शासक के प्रतिनिधि के रूप में भारत आया था। वास्कोडिगामा ने गुजराती पथ प्रदर्शक अब्दुल मजीद की सहायता से उत्तमाशा अन्तरीप का चक्कर लगाते हुए 17 मई, 1498 को कालीकट के प्रसिद्ध बन्दरगाह कप्पकडाबू पर अपना बेड़ा उतारा। 

  • कालीकट के हिन्दू राजा ने, जिसकी पैतृक उपाधि जमोरिन थी, उसका हार्दिक स्वागत किया तथा उसे मसाले एवं जड़ी-बूटियाँ इत्यादि ले जाने का आदेश दिया।
  • वास्कोडिगामा काली मिर्च लेकर अपने हेक्टर नामक जहाज से पुर्तगाल वापस चला गया।
  • वास्कोडिगामा को इन वस्तुओं से यात्रा व्यय निकालने के पश्चात् भी 60 गुना लाभ प्राप्त हुआ। इसने कालीकट बन्दरगाह में एक अरबी जहाज पकड़कर जमोरिन को उपहार स्वरूप भेंट किया।
  • पेड्रो अल्बारेज केब्राल 1500 ई. में भारत पहुँचने वाला दूसरा पुर्तगाली था। 1502 ई. में वास्कोडिगामा पुनः भारत आया।
  • 1503 ई. में पुर्तगालियों ने कोचीन में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की तथा 1505 ई. में कन्नूर (Connore) में दूसरी फैक्ट्री स्थापित की।

फ्रांसिस्को डी अल्मीडा (1505-1509 ई.)

वर्ष 1505 में फ्रांसिस्को डी अल्मीडा को प्रथम पुर्तगाली | | वायसराय बनाकर भारत भेजा गया। अल्मीडा का मूल उद्देश्य, शान्तिपूर्वक व्यापार करना था। उसकी यह नीति ब्लू वाटर पॉलिसी (Blue Water Policy) अथवा शान्त जल की नीति के नाम से जानी जाती है।

अल्मीडा का 1508 ई. में संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े (गुजरात + मिस्र + तुर्की) से चौल के समीप युद्ध हुआ, जिसमें वह पराजित हुआ। 1509 ई. में इसने संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े को पराजित किया। 16वीं शताब्दी में हिन्द महासागर पुर्तगाली सागर के रूप में परिवर्तित हो गया।

अल्फांसो डी अल्बुकर्क (1509-1515 ई.)

अल्मीडा के पश्चात् अल्बुकर्क गर्वनर बना। उसने कोचीन को पुर्तगालियों का मुख्यालय बनाया। अल्बुकर्क को भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। 1510 ई. में अल्बुकर्क ने बीजापुर के आदिलशाही युसुफ सुल्तान से गोवा जीत लिया।

अल्बुकर्क ने विजयनगर के शासक कृष्णदेवराय से मिलकर • भटकल में एक किला बनाने का आदेश प्राप्त कर लिया था।

अल्बुकर्क ने 1511 ई. में दक्षिण-पूर्वी एशिया की महत्वपूर्ण मण्डी मलक्का पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। फारस की खाड़ी में स्थित होर्मुज पर उसका अधिकार 1515 ई. में हुआ।

अल्बुकर्क भारत में स्थायी पुर्तगीज आबादी बसाना चाहता था। इसलिए उसने स्वदेशवासियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया।

1515 ई. में प्रथम चर्च (Church) का निर्माण गोवा में किया गया जिसका नाम सेंट जेवियर चर्च रखा गया था।

अल्बुकर्क ने अपने क्षेत्र में सती प्रथा को निषिद्ध कर दिया। 1515 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात् पुर्तगीज भारत की सबसे प्रबल जल शक्ति बन चुके थे।

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नूनो डी कुन्हा (1529-38 ई.) 

इसने 1530 ई. में सरकारी कार्यालय को कोचीन से गोवा स्थानान्तरित कर दिया। इस प्रकार, गोवा भारत में पुर्तगाली राज्य की औपचारिक राजधानी बन गया।

कुन्हा ने 1534 ई. में कृष्णा बेसिन पर और 1535 ई. में दीव पर अधिकार कर लिया। इसका गुजरात के शासक बहादुरशाह से कृष्णा बेसिन के विषय में समझौता हो गया, परन्तु वहाँ दीवार खड़ी करने के प्रश्न पर बहादुरशाह से पुर्तगालियों का विवाद हो गया जिसके कारण बहादुरशाह समुद्र में गिरकर डूब गया।

पुर्तगालियों ने सामुद्रिक भारतीय साम्राज्य को एस्तादो द इण्डिया नाम दिया। उन्होंने हिन्द महासागर में होने वाले व्यापार को नियंत्रित करने और उस पर कर लगाने का प्रयास किया।

पुर्तगालियों ने कार्टेज-आर्मेडा-काफिला व्यवस्था (CartazArmada-Cafile System) द्वारा एशियाई व्यापार पर गहरा प्रभाव डाला।  पुर्तगाली अपने आप को सागर के स्वामी कहते थे तथा  कार्टेज-आर्मेडा व्यवस्था को उचित ठहराते थे।

इस व्यवस्था के अन्तर्गत, कोई भी भारतीय या अरबी जहाज पुर्तगाली अधिकारियों से कार्टज (परमिट) लिए बिना अरब सागर में नहीं जा सकता था।

काफिला व्यवस्था के अन्तर्गत स्थानीय व्यापारियों के जहाजों का | एक काफिला होता था, जिसकी रक्षा के लिए पुर्तगाली बेड़ा साथ-साथ चलता था।

1560 ई. में गोवा में ईसाई धर्म न्यायालय (Institution of Inquisition) की स्थापना की गई। 1542 ई. में पुर्तगाली गवर्नर मार्टिन डिसूजा के साथ प्रसिद्ध ईसाई संत जेवियर भारत आए।

यूरोपीय कंपनियों का भारत में आगमन
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  • पुर्तगालियों को भारत और जापान के बीच व्यापार प्रारंभ करने काश्रेय दिया जाता है। _
  • पुर्तगाली मध्य अमेरिका से तम्बाकू, आलू और मक्का भारत लाए। पुर्तगालियों ने भारत में प्रिटिंग प्रेस (छपाई) का आरम्भ किया।  अनन्नास, पपीता, बादाम, काजू, मूंगफली, शकरकन्द, लीची और संतरा पुर्तगालियों की देन थी, जिसे उन्होंने अन्य देशों से प्राप्त किया था।

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डच

पुर्तगालियों के पश्चात् डच भारत आए। जो नीदरलैंड (हॉलैण्ड) के मूल निवासी थे।

प्रथम डच यात्री कार्नेलियन हाउटमैन 1596 ई. में भारत के पूर् में स्थित सुमात्रा पहुंचा।

कम्पनी को हॉलैण्ड सरकार द्वारा 21 वर्षों के लिए भारत और पूर्वी जगत के साथ व्यापार, आक्रमण एवं क्षेत्रों पर अधिकार करने के सम्बंध में व्यापक अधिकार प्रदान किए गए।

1602 ई. में विभिन्न डच कम्पनियों को मिलाकर यूनाईटेड ईस्ट इंडिया कम्पनी ऑफ नीदरलैंड के नाम से एक विशाल व्यापारिक संस्था की स्थापना की गई। इस कम्पनी का मूल नाम VOC (Vereenigde Oostindische Compagnie) 9911 44 -it 2017 देख-रेख के लिए 17 सदस्यों का एक बोर्ड बनाया गया। • 1605 ई. में मसूलीपत्तनम् में प्रथम डच फैक्ट्री की स्थापना हुई।

1605 ई. में डचों ने पुर्तगालियों के अम्बायना पर कब्जा कर लिया तथा धीरे-धीरे मसाला द्वीप पुंज (इण्डोनेशिया) में उन्हें पराजित कर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया।

1610 ई. में डचों ने चन्द्रगिरि के राजा के साथ समझौता कर पुलीकट में एक अन्य फैक्ट्री की स्थापना की तथा इसे अपना मुख्यालय बनाया। डचों ने यहीं पर अपने स्वर्ण सिक्के पगोडा (Pagoda) को ढाला था। डचों ने जकार्ता को जीतकर, 1619 ई. • म इसके खण्डहरों पर बैटेविया नामक नगर बसाया।

डचों ने 1616 ई. में सूरत में एवं 1641 ई. में विमलीपत्तनम् में फैक्ट्रियों की स्थापना की। बंगाल में प्रथम डच फैक्ट्री की स्थापना पीपली में 1627 ई. में की गई थी ।

1658 ई. में डचों ने कासिम बाजार, बालासोर, पटना और नागपट्टनम् में अपनी फैक्ट्रियाँ स्थापित की। औरंगजेब ने 1664 ई. में डचों को 3%% वार्षिक चुंगी पर बंगाल, बिहार और उड़ीसा में व्यापार करने का अधिकार दिया। 1690 ई. में पुलीकट के स्थान पर नागपट्टनम् को डच गवर्नर का मुख्यालय बनाया गया। मालाबार तटवर्ती प्रदेशों में कोचीन, कन्नौर और वेनगुर्ला डचों के व्यापारिक केन्द्र थे।

डच फैक्ट्रियों के प्रमुख जिन्हें फैक्टर कहा जाता था, को व्यापारियों | के रूप में वर्गीकृत किया गया। डचों ने मसालों के स्थान पर भारतीय कपड़ों के निर्यात को अधिक महत्व दिया गया।

डच कम्पनी ने कासिम बाजार में स्वयं रेशम बनाने का उद्योग स्थापित किया, जिसमें लगभग 3,000 कारीगरों को वेतन पर रखा गया। भारतीय वस्त्र को निर्यातित वस्तु बनाने का श्रेय डचों को जाता है।

1759 ई. में अंग्रेजों के साथ बेदरा (बंगाल) के युद्ध में डच पराजित हुए। इस पराजय ने भारत से उनकी शक्ति समाप्त कर दी। डच व्यापारिक व्यवस्था सहकारिता अर्थात् कार्टेल पद्धति (Cartel System) पर आधारित थी। डच कम्पनी में साझेदारों को जितना अधिक लाभ दिया जाता था, वह व्यापारिक इतिहास में रिकॉर्ड माना जाता है। लगभग 200 वर्षों के इतिहास में डच कम्पनी ने अपने हितधारकों को औसत रूप से 18% लाभांश दिया था।

अंग्रेज

डचों के पश्चात् भारत में अंग्रेजों का आगमन हुआ। अंग्रेजों की प्रारम्भिक समुद्री यात्राएँ सुमात्रा, जावा एवं मलक्का के लिए हुईं, जिनका उद्देश्य मसाले के व्यापार के एक हिस्से पर नियंत्रण प्राप्त करना था। सितम्बर, 1599 में लन्दन में कुछ व्यापारियों ने लॉर्ड मेयर की अध्यक्षता में एक सभा का आयोजन किया।  इन  यूरोपियन ने पूर्व  के देशों के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से 1599 ई. में एक कम्पनी का गठन किया। इस कम्पनी का नाम गवर्नर एण्ड कम्पनी ऑफ मर्चेन्ट्स ऑफ लन्दन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इण्डीज रखा गया।

इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने 31 दिसम्बर, 1600 में एक आज्ञापत्र द्वारा इसे 15 वर्षों के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया। कम्पनी के प्रबंध के लिए एक समिति की व्यवस्था की गई। इसमें एक निदेशक, एक उपनिदेशक और 24 अन्य सदस्य होते थे। यही समिति बाद में कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स या निदेशक मण्डल के नाम से जानी गई

1601 ई. में अंग्रेज, कम्पनी के जहाज से इण्डोनेशिया के मसाला दीप पहुँचे। भारत में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करने का प्रथम प्रयास 1608 ई. में प्रारम्भ हुआ। .

कैप्टन हॉकिन्स के नेतृत्व में हेक्टर नामक प्रथम अंग्रेजी जहाज  1608 ई. में सूरत बन्दरगाह पर पहुंचा। जॉन हॉकिन्स प्रथम अंग्रेज था, जिसने समुद्र के रास्ते भारत की भूमि पर कदम रखा। हॉकिन्स जहाँगीर के नाम ब्रिटिश सम्राट जेम्स-प्रथम का पत्र लेकर मुगल बादशाह जहाँगीर के दरबार में पहुंचा। 

हॉकिन्स को तुर्की एवं फारसी भाषा का ज्ञान था। उसने मुगल  दरबार में फारसी भाषा में बात की। जहाँगीर ने उसे 400 का मनसब प्रदान किया। हॉकिन्स ने अंग्रेजों के लिए सूरत में एक फैक्ट्री खोलने की अनुमति माँगी। प्रारंभ में अनुमति प्रदान कर दी गई, परन्तु पुर्तगालियों के शत्रुतापूर्ण कारनामों और सूरत के सौदागरों के विरोध के कारण यह अनुमति रद्द कर दी गई। हॉकिन्स को जहाँगीर ने प्रसन्न होकर इंग्लिश खान की उपाधि प्रदान की। 

1611 ई. में कैप्टन मिडिल्टन ने स्वाली में पुर्तगालियों के  जहाजी बेड़े को परास्त किया। पुर्तगालियों को पराजित करने के कारण जहाँगीर अंग्रेजों से प्रभावित हुआ। 1613 ई. में जहाँगीर ने अंग्रेजों को सूरत में स्थायी कारखाना स्थापित करने की अनुमति दे दी। इसके पहले 1611 ई. में मसूलीपत्तनम् (मछलीपत्तनम्) में अंग्रेजों ने व्यापारिक कोठी स्थापित की थी।

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मसूलीपत्तनम् गोलकुण्डा राज्य का मुख्य बन्दरगाह था। यहाँ से अंग्रेज स्थानीय सूती वस्त्रों को खरीदकर फारस एवं बैण्टम भेजते • थे। यहाँ अंग्रेजों का विरोध होने लगा, स्थानीय अधिकारी भी बारबार रुपयों की माँग करने लगे। इन समस्याओं से परेशान होकर अंग्रेजों ने 1629 ई. में अरमागाँव में दूसरी कोठी खोली। अरमागाँव पुलीकट की डच बस्ती के कुछ मील उत्तर दिशा में स्थित था।

1632 ई. में गोलकुण्डा के सुल्तान ने अंग्रेजों को एक सुनहरा फरमान (Golden Ferman) दिया। इसके अनुसार, 500 पगोडा (Pagoda) वार्षिक कर देकर व्यापार की अनुमति मिली। 1639 ई. में फ्रांसिस डे अधिकारी ने चंद्रगिरि के राजा से मद्रास को पट्टे पर लिया तथा वहाँ एक किलाबन्द कोठी बनाई। इस किलाबन्द कोठी का नाम फोर्ट सेण्ट जॉर्ज या फोर्ट सेण्ट डेविड जॉर्ज पड़ा। अंग्रेजों ने 1651 ई. में हुगली में व्यापारिक कोठी स्थापित की।

1615 ई. में सर टॉमस रो जहाँगीर के दरबार में आया। 1661 ई. में इंग्लैण्ड के राजा चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन (कैथरीन ऑफ ब्रिगेन्जा) के साथ हुआ। इस अवसर पर पुर्तगालियों ने चार्ल्स को दहेज के रूप में बम्बई द्वीप दे दिया। 1668 ई. में सम्राट चार्ल्स-II ने बम्बई को 10 पौंड के वार्षिक किराये पर कंपनी को सौंप दिया।

बम्बई का गवर्नर गेराल्ड औंगियार (1669 ई.-1677 ई.) बम्बई | का वास्तविक संस्थापक था।

हुगली पर अधिकार के पश्चात् अंग्रेजों ने कासिम बाजार, पटना और राजमहल में कारखाने स्थापित किए। इंग्लैण्ड में स्वदेशी प्रतिद्वन्द्वियों ने न्यू कम्पनी नामक एक व्यापारिक संस्था का गठन कर लिया।

1694 ई. के हाउस ऑफ कॉमन्स के प्रस्ताव के अन्तर्गत 1698 ई. में दो अन्य नई कम्पनियाँ स्थापित की गईं। इनमें से एक जनरल सोसायटी तथा दूसरी इंग्लिश कम्पनी ट्रेडिंग इन द ईस्ट के नाम से जानी गई।

1688 ई. में स्थापित न्यू कम्पनी, 1698 ई. में स्थापित जनरल सोसायटी और इंग्लिश कम्पनी ट्रेडिंग इन द ईस्ट नामक कम्पनी का 1708 ई. में विलय हो गया तथा द यूनाईटेड कम्पनी ऑफ मर्चेन्ट्स ऑफ लंदन ट्रेडिंग टू द ईस्ट इंडीज का जन्म हुआ। कम्पनी का यह नाम 1833 ई. तक रहा। 1833 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा इसका नाम बदलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी कर दिया गया

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  बंगाल में प्रारम्भिक राजनीतिक गतिविधियाँ

बगाल में सर्वप्रथम अंग्रेजों को व्यापारिक छूट 1651 ई. में उस समय प्राप्त हुई, जब ग्रेबियन बॉटन ने, जो बंगाल के सूबेदार शाहशुजा के साथ दरबारी चिकित्सक के रूप में रहता था, एक लाइसेंस अंग्रेजी कम्पनी के लिए प्राप्त किया। इसके द्वारा 3,000 रुपये वार्षिक कर के बदले में कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मुक्त व्यापार करने की अनुमति प्रदान कर दी गई। 

1656 ई. में एक दूसरा निशान मंजूर किया गया, जिसके तहत बिना किसी बाधा के अंग्रेजों को व्यापार करने की अनुमति की पुनः पुष्टि की गई। कम्पनी ने शाइस्ता खाँ से 1672 ई. में एक फरमान प्राप्त किया, जिसमें उसे कर अदा न करने की छूट प्रदान की गई।

बादशाह औरंगजेब ने 1680 ई. में एक फरमान जारी किया, जिसमें यह आदेश दिया गया कि, कोई चुंगी के लिए कम्पनी के कर्मचारियों को तंग न करे और न उसके व्यापार में कोई बाधा उत्पन्न करे।

इसमें यह भी आदेश था कि, अंग्रेजों से 2% चुंगी के अतिरिक्त 19% जजिया के रूप में लिया जाएगा।

अक्टूबर, 1686 में अंग्रेजों ने हुगली को लूट लिया, परन्तु  औरंगजेब द्वारा पराजित होने पर वे हुगली से भाग खड़े हुए। जॉब चॉरनाक ने अगस्त, 1690 में सूतानाती में एक अंग्रेजी कोठी स्थापित की। इस प्रकार ब्रिटिश भारत की भावी राजधानी कलकत्ता की नींव पड़ी।

बंगाल के सूबेदार अजीम-उस-शान ने 1698 ई. में अंग्रेजों को सूतानाती, कलिकाता और गोविन्दपुर नामक तीन गाँवों की जमींदारी प्रदान की। इंग्लैण्ड के सम्राट के सम्मान में उक्त किलाबन्द व्यावसायिक प्रतिष्ठान का नाम फोर्ट विलियम रखा गया। सर चार्ल्स ऑयर फोर्ट विलियम के प्रथम प्रेसीडेण्ट बने। 1700 ई. में यह प्रथम प्रेसीडेन्सी नगर घोषित किया गया, जो 1774-1911 ई. तक ब्रिटिश भारत की राजधानी रहा।

नॉरिश मिशन (1698 ई.)

1698 ई. में इंग्लैण्ड के राजा विलियम तृतीय ने एक अन्य कम्पनी स्थापित की, जो इंग्लिश कम्पनी ट्रेडिंग इन द ईस्ट के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस कम्पनी ने अपने लिए व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से सर विलियम नॉरिश को औरंगजेब के दरबार में राजदूत के रूप में भेजा।

जॉन सरमन मिशन (1715 ई.)

कम्पनी ने 1715 ई. में जॉन सरमन की अध्यक्षता में कलकत्ता से एक दूतमण्डल मुगल दरबार में भेजा। इस प्रतिनिधिमण्डल ने कम्पनी को औरंगजेब के समय से प्राप्त विशेषाधिकारों को बनाए रखने के अतिरिक्त बंगाल में सिक्का ढालने और कलकत्ता के नजदीक के 38 गाँवों को खरीदने की अनुमति देने की याचना की।

इस दूतमण्डल में एडवर्ड स्टीफेंसन, विलियम हैमिल्टन नामक सर्जन और ख्वाजा सेहूंद नामक एक आर्मीनियन दुभाषिया था। हैमिल्टन ने बादशाह फर्रुखसियर की एक दर्दनाक बीमारी को खत्म करने में सफलता प्राप्त की थी।

इससे फर्रुखसियर अंग्रेजों से प्रसन्न हो गया। उसने 1717 ई. में एक शाही फरमान जारी किया। जिसके अन्तर्गत  

  • 3,000 रुपए वार्षिक कर के बदले में कम्पनी को बंगाल में  मुक्त व्यापार करने की छूट मिल गई।
  • 10,000 रुपए वार्षिक कर देने के बदले में कम्पनी को सूरत . में सभी करों से मुक्ति मिल गई।
  •  बम्बई में कम्पनी द्वारा ढाले गए सिक्कों को सम्पूर्ण मुगल  राज्य में चलाने की आज्ञा मिल गई।

ब्रिटिश इतिहासकार और्स ने इसे कम्पनी का मैग्नाकार्टा (महान अधिकार पत्र) कहा है। • इस अधिकार पत्र से अंग्रेजों को बहुत लाभ हुआ। जिससे उनको  पूरे भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर प्राप्त हो गया। 

डेनिश

अंग्रेजों के पश्चात् डेन व्यापारी 1616 ई. में भारत आए। डेनों ने 1620 ई. में तंजौर जिले के त्रावणकोर में अपनी प्रथम फैक्ट्री स्थापित की। 

बंगाल के सेरामपुर में 1676 ई. में उन्होंने दूसरी फैक्ट्री स्थापित की। एक स्वीडिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना 1731 ई में हुई। परन्तु उन्होंने अपना व्यापार चीन के साथ स्थापित किया। 1745 ई. में उन्होंने अपनी सभी फैक्ट्रियाँ ब्रिटिश कम्पनी को बेच दी तथा वे भारत से चले गए।

  फ्रांसीसी

लुई XIV के मंत्री कॉलबर्ट तथा सरकार की सहायता से 1664 ई. में भारत से व्यापार करने के लिए प्रथम फ्रांसीसी कंपनी कम्पनी द इडेंस ओरियंतलेस की स्थापना की गई। फ्रांसीसी सर्वप्रथम पहले मेडागास्कर द्वीप पहुँचे थे, परन्तु वहाँ उपनिवेश स्थापित करने में असफल रहे।

फ्रांस से एक दूसरा दल 1667 ई. में चला। इसका नायक फ्रैंको कैरो था। भारत में फ्रांसीसियों की पहली कोठी को कैरो द्वारा सन् 1668 में सूरत में स्थापित की गई।

1672 ई. में फ्रांसीसियों ने मद्रास के निकट सेंटटोमे को जीत लिया परन्तु, अगले वर्ष उनका नौसेना अध्यक्ष दी ला हे (De la Haye) गोलकुण्डा के सुल्तान और डचों की सम्मिलित सेना द्वारा पराजित हुआ तथा डचों को सेंटटोमे देने के लिए बाध्य हुआ।

1673 ई. में कम्पनी के निदेशक फ्रैंको मार्टिन और वेलांग द लेस्पिने (यह गैर पेशेवर सैनिक था, जो एडमिरल दी ला हे क साथ आया था) ने वलिकोंडापुरम् के मुस्लिम सूबेदार शेर खा लोदी से एक छोटा गाँव प्राप्त कर एक फ्रांसीसी बस्ती स्थान की, जिसे पाण्डिचेरी के नाम से जाना जाता है। यह पूर्णरूप । किलाबन्द बस्ती थी। 1674 ई. में फ्रैंको मार्टिन इस बस्ता ” प्रमुख नियुक्त हुआ।

अंग्रेज समर्थित डचों ने 1693 ई. में फ्रांसीसियों से पाण्डिचेरी ले लिया, परन्तु 1697 ई. में रिजविक की संधि द्वारा इसे वापस लौटा दिया।

बंगाल के सूबेदार शाइस्ता खाँ ने 1674 ई. में फ्रांसीसियों को एक जगह दी, जहाँ 1690-92 ई. में उन्होंने चन्द्रनगर की प्रसिद्ध फ्रांसीसी कोठी बनाई। फ्रांसीसियों ने 1721 ई. में मॉरीशस, 1725 ई. में मालाबार समुद्र तट पर स्थित माहे और 1739 ई. में कराइकल पर अधिकार कर लिया। पाण्डिचेरी को 1701 ई. में पूर्व की फ्रांसीसियों की सभी बस्तियों का मुख्यालय बनाया गया तथा फ्रांसिस मार्टिन को भारत में फ्रांसीसी मामलों का महानिदेशक बनाया गया। फ्रांसीसी गवर्नर  डूप्ले के समय में फ्रांसीसी प्रभुत्व की स्थापना हुई। 

इन यूरोपीय कंपनियों में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए संघर्ष हुआ जिसमें अंग्रेज कम्पनी सफल रहीं और 200 वा तक भारत में व्यापार और शासन किया। 

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