राष्ट्रपति
राष्ट्रपति भारत में संघीय कार्यपालिका का प्रधान राष्ट्रपति है तथा संघ की सभी कार्यपालिकीय शक्तियाँ उसमें निहित हैं, जिसका प्रयोग वह संविधान के अनुसार स्वयं या, अधीनस्थ पदाधिकारियों के माध्यम से करता है; अनु. 53(1)
राष्ट्रपति की योग्यतायें(Qualifications of The President)
अनुच्छेद 58 के अन्तर्गत राष्ट्रपति पद के लिए निम्नलिखित योग्यतायें विहित की गई हैं
1. वह भारत का नागरिक हो।
2. वह 3 5 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो, तथा
3. लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो। किन्तु ऐसा कोई व्यक्ति जो भारत सरकार, राज्य सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकरण के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है, राष्ट्रपति पद के लिए योग्य न होगा। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यों के राज्यपाल और संघ अथवा राज्यों के मंत्रियों के पद को लाभ का पद नहीं माना जाता है।
राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का नाम कम से कम 50 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित और 50 मतदाताओं द्वारा अनुमोदित होना चाहिए। 1997 से पूर्व यह संख्या 10-10 थी।
राष्ट्रपति पद के लिए जमानत की राशि 15000 रु. है। जो कि पहले 2500 रु0 थी। ज्ञातव्य है कि 1997 में राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम 1952 में संशोधन कर प्रस्तावकों व अनुमोदकों की संख्या तथा जमानत की राशि को इसलिए बढ़ा दिया गया जिससे कि ऐसे उम्मीदवारों को हतोत्साहित किया जा सके जो गम्भीरता से चुनाव नहीं लड़ते हैं
. किसी उम्मीदवार द्वारा कुल वैध मतों का 1/6 भाग मत प्राप्त न करने पर उसकी जमानत की राशि जब्त हो जाती है
राष्ट्रपति संसद अथवा राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होगा। यदि निर्वाचन के पर्व वह उनका सदस्य है तो निर्वाचन की तिथि से उसका स्थान उस सदन से रिक्त समझा जायेगा। राष्ट्रपति अपने कार्यकाल की अवधि में कोई अन्य पद ग्रहण नहीं कर सकता। (अनुच्छेद-59
अनुच्छेद 57 में कहा गया है कि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर पुनर्निर्वाचन (Re-election) के लिए योग्य है किन्तु वह कितनी बार राष्ट्रपति चुना जा सकता है इस प्रश्न पर संविधान मौन है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद अब तक के एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन्हें दो बार (1952 तथा 1957 में) इस पद हेतु चुना गया था। उल्लेखनीय है कि अमेरिका में एक व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति चुना जा सकता है।

राष्ट्रपति का निर्वाचक मण्डल
अनुच्छेद 54 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन ऐसे ‘निर्वाचक मण्डल’ द्वारा किया जायेगा जिसमें
(i) संसद के दोनों सदनों (लोक सभा तथा राज्य सभा) के निर्वाचित सदस्य तथा
(ii) राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होंगे।*
ध्यातव्य है कि 70वें संविधान संशोधन (1992) द्वारा ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली तथा ‘पुदुचेरी’ संघ शासित राज्य के विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को भी राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में शामिल कर लिया गया है।* उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में संसद तथा राज्यों की विधान सभाओं के मनोनीत सदस्यों और राज्य विधान परिषद के सदस्यों (निर्वाचित एवं मनोनीत दोनों) तथा दिल्ली व पुदुचेरी की विधान सभाओं के मनोनीत सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है।
राष्ट्रपति के निर्वाचन की रीति (Manner of Election of The President)
राष्ट्रपति का चुनाव ‘अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली’ द्वारा किया जाता है| नुच्छेद 55 में राष्ट्रपति के निर्वाचन की रीति दी गयी है। राष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित अन्य बातें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम-1952 में दी गयी हैं। अनुच्छेद 65 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन “आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा होगा* और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होगा तथा यथासम्भव विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधित्व के मापन में एकरूपता रखी जायेगी। अतः राष्ट्रपति के निर्वाचन में निम्न दो सिद्धान्तों को अपनाया जाता है
- समरूपता एवं समतुल्यता का सिद्धान्त : इसके अनुसार विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों के मतमूल्य के मापन में एकरूपता तथा विभिन्न राज्यों और संघ (Union) के प्रतिनिधित्व में समतुल्यता रखी जायेगी। दूसरे शब्दों में सभी राज्यों के निर्वाचित विधान सभा सदस्यों के मतमूल्य के निर्धारण के लिए एक ही प्रक्रिया अपनायी जायेगी तथा सभी राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य का योग, संसद के दोनों सदनों के सभी निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य के योग के समतुल्य अर्थात् समान होगा। इसे आनुपातिक प्रतिनिधत्व (Proportional Representation) का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार विधान सभा सदस्यों तथा संसद सदस्यों के मतमूल्य की (ऐसे मत की जिसे वह राष्ट्रपति के निर्वाचन में देने का हकदार है) गणना अधोलिखित प्रक्रिया के अनुसार की जाती है। यथा
विधान सभा सदस्यों के मतमल्य की गणनाः
किसी राज्य की विधान सभा के किसी एक सदस्य के मत का मूल्य जानने के लिए उस राज्य की कुल जनसख्या में, उस राज्य के विधान सभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है तथा प्राप्त भागफल को पुनः एक हजार से विभाजित किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त भागफल उस राज्य विशेष के किसी एक निर्वाचित सदस्य का मत मूल्य होता है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए जनसंख्या (Population) से तात्पर्य 1971 की जनगणना द्वारा अभिनिश्चित जनंसख्या से है।* 84वें संविधान संशोधन अधि. (2001) द्वारा अनु. 55 में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि 2026 तक राष्ट्रपति के चुनाव में 1971 की जनसंख्या को ही आधार माना जायेगा। • संसद सदस्यों के मतमूल्य की गणना-संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों में से किसी एक सदस्य का मतमूल्य जानने के लिए, सभी राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य को जोड़कर उसमें संसद के सभी निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है।
एकल संक्रमणीय मत प्रणाली सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार यदि प्रत्याशियों की संख्या एक से अधिक है तो प्रत्येक मतदाता उतने मत वरीयता.. क्रम से देगा जितने प्रत्याशी हैं अर्थात् प्रत्येक मतदाता, प्रत्येक प्रत्याशी को अपना मत वरीयता क्रम के अनुसार देता है। यथा-यदि कुल तीन प्रत्याशी राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे हैं तो मतदाता तीनों प्रत्याशियों को प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वरीयता क्रम के अनुसार अपना मत देगा। • मतगणना (Counting) राष्ट्रपति पद के चुनाव में मतगणना के लिए एक विशेष प्राक्रया का प्रावधान किया गया है। राष्ट्रपति पद के लिए उसी व्यक्ति को सफल घोषित किया जाता है जो कुल वैध मतों के आधे से कम से कम एक मत अधिक अर्थात् 50% से अधिक मत प्राप्त करता है। इसे न्यूनतम कोटा कहा जाता है।
राष्ट्रपति की पदाविध (Term of Office of The President)
अनुच्छेद-56 के अनुसार राष्ट्रपति पद ग्रहण की तिथि वर्ष की अवधि तक अपना पद धारण करता है। किन्तु वह पाँच वर्ष के पूर्व कभी भी उपराष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र दे सकता है। उसे संविधान का अतिक्रमण (Violation) करने पर अनुच्छेद-61 में उपबन्धित महाभियोग की प्रक्रिया द्वारा हटाया भी जा सकता है। अनु. 56(1) (ग) के अनुसार राष्ट्रपति अपने पाँच वर्ष की पदावधि की समाप्ति के पश्चात ‘मी तब तक अपना पद धारण किये रहता है जब तक कि उसका उत्तरधिकारी (नया राष्ट्रपति) अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। ध्यातव्य है कि इस स्थिति में उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य नहीं करता है।*संविधान में यह उपबन्ध पद रिक्ति की स्थिति में शासनांतरण से बचने के लिए किया गया है। राष्ट्रपति जव उपराष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र देता है तब उपराष्ट्रपति तत्काल इसकी सूचना लोकसभा अध्यक्ष को देता है।
राष्ट्रपति पद की रिक्तता की पूर्ति
अनुच्छेद 62 के तहत राष्ट्रपति के पद की रिक्तता को भरना लिए कराये जाने वाले चुनाव एवं उसकी पदावधि सम्बन्धी प्राव – दिया गया है।
इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति पदावधि समाप्त हाने के पूर्व ही नये राष्ट्रपति के लिए चुनाव सम्पन्न करा लिया जायेगा। यह प्रावधान अनिवार्य स्वरुप का है।
इन री प्रेसीडेंशियल पोल (1974) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि राष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति के पूर्व ही उसका चुनाव करा लेना अनिवार्य है और इसे किसी भी आधार पर टाला नहीं जा सकता है। ध्यातव्य है कि यह प्रावधान अनु0 56(1) (ग) के अधीन है; अर्थात् राष्ट्रपति अपनी पदावधि समाप्त हो जाने पर भी तब तक अपने पद पर बना रहेगा जब तक कि उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। यदि राष्ट्रपति का पद मृत्यु, त्यागपत्र, महाभियोग या किसी अन्य कारण से रिक्त होता है तो उसको भरने के लिए चुनाव 6 माह के भीतर कराया जायेगा। उल्लेखनीय है कि मध्यावधि चुनाव द्वारा निर्वाचित नया राष्ट्रपति पद ग्रहण की तिथि से 5 वर्ष तक अपना पद धारण करता है। ध्यातव्य है कि जब राष्ट्रपति का पद आकस्मिक रूप से (मृत्यु, त्यागपत्र, पद से हटाये जाने या किसी अन्य कारण से) रिक्त होता है तो उप-राष्ट्रपति कार्यवाहक, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि यदि उप राष्ट्रपति का पद भी रिक्त हो तो भारत का, मुख्य न्यायाधीश तथा मुख्य न्यायाधीश के पद की रिक्तता की स्थिति में उच्चतम न्यायालय का वरिष्ठतम न्यायाधीश कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। एम0 हिदायतुल्लाह भारत के एक मात्र ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं जिन्होंने 20 जुलाई 1969 से 24 अगस्त, 1969 तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया गया था।
राष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
अनुच्छेद 60 के अनुसार राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने के पूर्व उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय के ज्येष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष अधोलिखित रूप में शपथ या प्रतिज्ञान करता है। यथा; मैं अमुक
(i) श्रद्धापूर्वक राष्ट्रपति के पदीय कर्तव्यों का पालन करूंगा
(ii) संविधान और विधि का परिरक्षण (Preserve), संरक्षण (Protect) और प्रतिरक्षण (Defend) करुंगा तथा (iii) भारत की जनता की सेवा एवं कल्याण में निरत रहूंगा।
- ध्यातव्य है कि जब कोई अन्य व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में , कार्य करता है अथवा उसके पदीय कर्तव्यों का निर्वहन करता है तो वह भी इसी प्रकार शपथ ग्रहण करता है।
- उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के शपथ का प्रारुप अनु. 60में ही दिया गया है, अनुसूची-3 में नहीं।
राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ एवं भत्ते
अनुच्छेद 59 (3) में कहा गया है कि राष्ट्रपति बिना किराया दिये शासकीय आवास का उपयोग करेगा तथा ऐसी परिलब्धियों, भत्तों एवं विशेषाधिकारों का हकदार होगा जो संसद विधि द्वारा नियत करे। ‘राष्ट्रपति का वेतन, भत्ता एवं पेंशन (संशोधन) अधिनियम 2008’ के अनुसार, वर्तमान में राष्ट्रपति का वेतन रु 150000 है। राष्ट्रपति का वेतन भारत की संचित-निधि से दिया जाता है, जो आयकर से मुक्त होता है। राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ एवं भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किये जा सकते, अनु.59 (4)।
राष्ट्रपति पर महाभियोग
राष्ट्रपति पर महाभियोग की प्रक्रिया अनुच्छेद 61 में दी गयी. है।* अनुच्छेद 61 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा संविधान का अतिक्रमण (Violation) किये जाने पर उसके विरुद्ध महाभियोग (Impeachment) चलया जा सकता है।* राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग संसद द्वारा चलाई जाने वाली एक अर्द्ध-न्यायिक प्रक्रिया है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रस्ताव की सूचना राष्ट्रपति को 14 दिन पूर्व प्राप्त होनी चाहिए और प्रस्ताव की सूचना पर उस सदन के कम-से-कम एक चौथाई सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए। यदि इस आशय का प्रस्तोक उस सदन में, जिसमें वह रखा गया है समस्त सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है* तो वह आगे की जाँच के लिए दूसरे सदन में भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति को दूसरे सदन में स्वयं अथवा अपने किसी प्रतिनिधि के माध्यम से स्पष्टीकरण देने का अधिकार है। जाँच के पश्चात यदि द्वितीय सदन भी प्रथम सदन की भाँति महाभियोग के प्रस्ताव को समस्त सदस्यों के कम-से-कम दो तिहाई बहुमत से स्वीकार कर लेता है तो उसी दिन से राष्ट्रपति पद रिक्त समझा जाता है। अभी तक एक भी ऐसा अवसर नहीं आया जबकि राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाया गया हो। – ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग की प्रक्रिया में संसद के दोनों सदनों के नामांकित सदस्य, जो राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं, वे भी भाग लेते हैं किन्तु राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य तथा दिल्ली व पुदुचेरी संघ राज्य क्षेत्र की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य महाभियोग प्रक्रिया में भाग नहीं लेते हैं । यद्यपि वे राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं।
राष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी विवाद
अनुच्छेद 71 में कहा गया है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी विवादों का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जायेगा, तथा उसका निर्णय अन्तिम होगा।* यदि उच्चतम न्यायालय किसी व्यक्ति का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में निर्वाचन को अवैध घोषित कर देता है तो ऐसे व्यक्ति द्वारा राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में, निर्णय के पूर्व किया गया कोई कार्य या घोषणा अवैध नहीं होगा। 11वें संविधान संशोधन अधिनियम 1961 द्वारा अनुच्छेद.. 71 में उपखण्ड (4) जोड़कर यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव की वैधता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि निर्वाचक मण्डल में कुछ स्थान रिक्त है। अतः यदि किसी राज्य की विधानसभा राष्ट्रपति के निर्वाचन के समय भंग हो तब भी उसका निर्वाचन अवैध न होगा। यह संशोधन डा० खरे बनाम एलेक्शन कमीशन आफ इण्डिया (1957) के मामले के पश्चात पारित किया गया था।
राष्ट्रपति की शक्तियाँ
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। राष्ट्रपति की इन शक्तियों को अधोलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। यथा
1. कार्यपालिका शक्तियाँ,
2. विधायी शक्तियाँ
, 3. न्यायिक शक्तियाँ
, 4. वित्तीय शक्तियाँ,
5. सैन्य शक्तियाँ,
6. राजनयिक शक्तियाँ,
7. आपात कालीन शक्तियाँ
कार्यपालिका शक्तियाँ
अनुच्छेद-53 के अनुसार, संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति, में निहित होगी और वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों के माध्यम से करेगा। अधीनस्थ प्राधिकारियों . से तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रीमण्डल से है। अनु. 77 के अनुसार भारत सरकार के समस्त कार्यपालिकीय कृत्य राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं तथा सरकार के सभी निर्णय उसके निर्णय माने जाते हैं। राष्ट्रपति को संघ के मामलों में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। अनुच्छेद-78 के अनुसार प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य है कि वह राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों और प्रशासन सम्बन्धी उन सभी मामलों की सूचना दें, जिसके बारे में राष्ट्रपति द्वारा ऐसी सूचना मांगी जाय।
. अनुच्छेद 74 के तहत् राष्ट्रपति अपनी कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में सलाह देने के लिए एक ‘मंत्रीपरिषद’ का गठन करता है; जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है।
- वह भारत के प्रधानमंत्री सहित संघ के अन्य प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति करता है। यथा
_(i) संघ के मंत्रियों की
, (ii) राज्यों के राज्यपाल,
(ii) , उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों,
(iv भारत के महान्यायवादी
(v) भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक
(vi) संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य,
(vii) मुख्य निर्वाचन अयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्त
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों, (ix) राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (x) राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (xi) अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (xii) पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य, (xiii) संघ राज्य क्षेत्रों के राज्यपाल या प्रशासक तथा मुख्यमंत्री (दिल्ली व पांडिचेरी)* (xiv) वित्त आयोग तथा (xv) राजभाषा आयोग आदि की।
- राष्ट्रपति को संघ के कुछ प्रमुख अधिकारियों को पदच्युत करने का भी अधिकार है; यथा- संघ के मंत्री, राज्यों के राज्यपाल, भारत के महान्यायवादी (Attorney General of India) आदि। ये राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त अपना पद धारण करते हैं
- अनु. 160 के तहत राष्ट्रपति आकस्मिक या असाधारण परिस्थितियों में राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन हेतु उपबन्ध कर सकता है,
- शासन सम्बन्धी कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा मंत्रियों के कार्यों को बाँटने के लिए वह नियम बनाता है।
. संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की संख्या, सेवा शर्तों तथा पदावधि आदि के विषय में नियम बनाने का अधिकार राष्ट्रपति को है।*
- राष्ट्रपति केन्द्र-राज्य तथा विभिन्न राज्यों के मध्य सहयोग के लिए एक अंतर्राज्यीय परिषद गठित कर सकता है (अनु. 263)।
- वह स्वयं द्वारा नियुक्त प्रशासकों के माध्यम से केन्द्र शासित राज्यों का प्रशासन संभालता है।
- राष्ट्रपति किसी भी क्षेत्र को अनुसूचित या जनजाति क्षेत्र घोषित कर सकता है। इन क्षेत्रों का प्रशासन भी उसके द्वारा ही किया जाता है।
- ध्यातव्य है कि इन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति मंत्रि परिषद . की सलाह पर ही करता है।
विधायी शक्तियाँ
भारत का राष्ट्रपति संघीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख होने के साथ-साथ संसद का भी अभिन्न अंग है, क्योंकि संसद का गठन राष्ट्रपति, लोकसभा तथा राज्य सभा तीनों से मिलकर होता है* (अनुच्छेद-79)। अतः राष्ट्रपति को व्यापक विधायी शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। जो अधोलिखित हैं। यथा• राष्ट्रपति को संसद का अधिवेशन बुलाने तथा सत्रावसान की घोषणा करने का अधिकार है* किन्तु संसद के एक सत्र की अन्तिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के मध्य 6 माह से अधिक का अन्तराल नहीं होगा। इस प्रकार राष्ट्रपति एक वर्ष में संसद की कम से कम दो बैठकें बुलाने के लिए बाध्य है। वह लोकसभा को..उसके नियत अवधि के पूर्व भंग कर सकता है (अनुच्छेद-85)। लोकसभा के विघटन के लिए उसे प्रधानमंत्री से परामर्श करना होता है।
- राष्ट्रपति लोक सभा के प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात प्रथम सत्र के आरम्भ में तथा प्रत्येक वर्ष प्रथम सत्र के आरम्भ में संसद के दोनों… सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधित करता है। जिसमें वह सरकार की सामान्य नीति तथा भावी कार्यक्रमों का विवरण देता है परन्तु यह राष्ट्रपति का वैयक्तिक अभिभाषण नहीं होता है बल्कि मंत्रिमण्डल द्वारा लिखा गया होता है। (अनुच्छेद-87)।
- राष्ट्रपति उक्त आरम्भिक अभिभाषण के अतिरिक्त कभी भी संसद के किसी एक सदन या संयुक्त सदन में अभिभाषण कर सकता है तथा उसके लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता है उसे संसद के किसी सदन को, लम्बित किसी विधेयक के सम्बन्ध में या अन्यथा, संदेश (Massage) भेजने का अधिकार भी है। (अनु.86)।
- ० यदि किसी साधारण विधेयक पर संसद के दोनों सदनों में – मतभेद हो तो राष्ट्रपति ऐसे विधेयेक को पास कराने के लिए संयुक्त अधिवेशन बुला सकता है* (अनु.108)।
- राष्ट्रपति लोक सभा में आंग्ल-भारतीय समुदय के दो प्रतिनिधयों को मनोनीति (Nominate) कर सकता है यदि उसकी राय में लोकसभा . में इस समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त न हो (अनुच्छेद331)। इसी प्रकार राज्य सभा में साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव रखने वाले व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने के लिए राष्ट्रपति द्वारा 12 सदस्य मनोनीति (Nominate) किये जाते हैं (अनु. 80 )।
- संसद द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के पश्चात ही कानून बनता है। धन विधेयक तथा संविधान संशोधन विधेयक को छोड़कर अन्य विधेयकों को राष्ट्रपति संसद को पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है; अनुच्छेद-111 के अनुसार संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक जब राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिए रखा जाता है तब वह उस पर अपनी अनुमति दे सकता है या अनुमति नहीं दे सकता है या उसे पुनर्विचार के लिए वापस कर सकता है। किन्तु यदि संसद द्वारा विधेयक संशोधन सहित या रहित पुनः पारित कर दिया जाता है तब राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति देने के लिए बाध्य होता है।
- जब राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित किसी विधेयक को राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित कर लेता है तब राष्ट्रपति विधेयक पर अपनी अनुमति देता है अथवा अनुमति रोक लेता है अथवा राज्यपाल को यह निर्देश देता है कि विधेयक (यदि वह धन विधेयक नहीं हो तो) राज्य विधान मण्डल को पुनर्विचार हेतु वापस भेज दे। ध्यातव्य है कि यदि राज्य विधान मण्डल विधेयक को संशोधन सहित या रहित पारित कर पुनः राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजता है तो राष्ट्रपति यहाँ अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं है।)
- कुछ विधेयकों को संसद में प्रस्तुत किये जाने के पूर्व राष्ट्रपति की पूर्व सहमति आवश्यक होती है; किन्तु यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना भी संसद में पेश कर दिया जाता है तो उसे न्यायालय द्वारा अवैध नहीं घोषित किया जा सकता है। ऐसे विधेयक जिन्हें राष्ट्रपति की पूर्वानुमति आवश्यक है, अधोलिखित हैं। यथा
(i) धन विधेयक (अनुच्छेद 110)
(ii) किसी नये राज्य का निर्माण या वर्तमान राज्य के क्षेत्र, सीमा या नाम में परिवर्तन करने वाले विधेयक (अनु. 3)
(iii) ऐसा विधेयक जो भारत की संचित निधि से व्यय करने से सम्बन्धित है; किन्तु धन विधेयक नहीं है (अनु. 117)
(iv) भूमि अधिग्रहण से सम्बन्धित विधेयक
(v) व्यापार की स्वतंत्रता को सीमित करने वाला राज्य का कोई विधेयक, (अनु. 304)
(vi) कराधान से सम्बन्धित ऐसा विधेयक जिससे राज्य का हित प्रभावित होता हो (अनु. 274
अध्यादेश जारी करने की शक्ति अनुच्छेद-123 के अन्तर्गत::
राष्ट्रपति को अध्यादेश (Ordinance) जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है। राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश उस स्थिति में जारी किया जाता है जबकि संसद के दोनों सदन सत्र में न हो तथा राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाय कि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है कि अविलम्ब कार्यवाही आवश्यक है।* यहाँ राष्ट्रपति के विश्वास से तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के विश्वास से है। अतः राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति वैवेकीय (Discretionary) नहीं है। राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश का वही प्रभाव व बल होता है जो संसद के अधिनियम का होता है। ऐसा अध्यादेश संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष अनुमोदन के लिए रखा जायेगा और यदि संसद के पुनः समवेत (Reasemble) होने के 6 सप्ताह के भीतर दोनों सदनों द्वारा इसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है, तो यह प्रवर्तन में नहीं रहेगा* राष्ट्रपति उसे किसी भी समय वापस ले सकता है। संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित अध्यादेश राष्ट्रपति की अनुमति के बाद अधिनियम (Act) बन जाता है।*
– ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति उन्ही विषयों से सम्बन्धित है जिन पर संसद को विधि बनाने का अधिकार प्राप्त है। अनु. 13 (क) के अधीन ‘विधि’ शब्द के अन्तर्गत ‘अध्यादेश भी आता है। अतः ऐसा कोई अध्यादेश जो मूल अधिकार (भाग-3) का अतिक्रमण करता है शून्य होगा। उल्लेखनीय है
यदि संसद का एक सदन सत्र में हो तब भी अध्यादेश जारी किया जा सकता है, क्योंकि एक सदन विधि बनाने के लिए समक्ष नहीं है। • “राष्ट्रपति वित्त-आयोग, नियंत्रक-महालेखा परीक्षक, भाषा आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग एवं चुनाव आयोग की कार्यवाही रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखवाता है।*
न्यायिक शक्तियां
संविधान के अनुच्छेद 50 के तहत् न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखा गया है। अतः राष्ट्रपति को न्याय प्रबंधन के क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का कोई विशेष अधिकार नहीं है किन्तु फिर भी उसे कुछ न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त हैं।
क्षमादान की शक्ति-
अनुच्छेद-72 के तहत् राष्ट्रपति को क्षमादान (Pardons) की शक्ति प्रदान की गयी है। अतः राष्ट्रपति किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध व्यक्ति के दण्ड को क्षमा कर सकता है अथवा प्रविलम्ब, परिहार, विराम या लघुकरण कर सकता है। वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करता है। राष्ट्रपति को यह शक्ति निम्नलिखित मामलों में प्राप्त है। यथा(i) जबकि दण्ड सेना न्यायालय द्वारा दिया गया हो।
(ii) जबकि दण्ड संघीय विषय से सम्बन्धित विधि के विरुद्ध अपराध के लिए दिया गया हो तथा
(iii) जबकि दण्डादेश मृत्युदण्ड हो।
क्षमा (Pardons) से तात्पर्य दण्ड की पूर्णतः मुक्ति से है। क्षमादान न केवल दोषसिद्ध व्यक्ति के दण्ड को समाप्त करता है बल्कि उसे उस स्थिति में ला देता है जैसे कि उसने कोई अपराध
किया ही न हो अर्थात् वह पूर्णतः निर्दोष हो जाता है। ज्ञातव्य है कि क्षमादान एक अनुग्रह है। अतः इसकी मांग अधिकार के रूप में नहीं की जा सकती है। प्रविलम्ब (Reprieves) के तहत मृत्युदण्ड को अस्थायी रूप से निलम्बित किया जाता है। इसका उद्देश्य दोषी व्यक्ति को क्षमादान या दण्डादेश के स्वरुप में परिवर्तन हेतु याचना के लिए समय देना है। परिहार (Remission) के तहत् दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन किये बिना, दण्ड की मात्रा को कम किया जाता है। जैसे दो वर्ष के कठोर कारावास को एक वर्ष के कठोर कारावास में परिहार करना। लघुकरण (Commute) में दण्ड की प्रकृति में परितर्वन करते हुए उसे कम किया जाता है। जैसे; दो वर्ष के कठोर कारावास को 1 वर्ष के साधारण कारावास में बदलना। विराम (Respite) के तहत् किसी विशेष कारण से दण्ड की मात्रा को कम कर दिया जाता है। जैसे; गर्भवती महिला के मृत्यु दण्ड को साधारण कारावास में परिवर्तित करना।
ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति अपनी क्षमादान की शक्ति का प्रयोग परीक्षण के पूर्व, परीक्षण के दौरान और उसके पश्चात् अर्थात् सभी दशाओं में कर सकता है।
अनु. 161 के अधीन राज्यपाल को भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राष्ट्रपति एवं राज्यपाल दोनों की क्षमादान की शक्ति में निम्न अन्तर हैं, यथा :
(i) राष्ट्रपति को सभी प्रकार के मृत्यु-दण्डादेश के मामले में भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राज्यपाल को मृत्युदण्डादेश के मामले में क्षमादान की शक्ति प्राप्त नहीं है।*
(ii) राष्ट्रपति को सेना न्यायालय यानि कोर्ट मार्शल के दण्डादेश के मामले में भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इपुरू बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य (2006)* के मामले में निर्णीत किया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति का पुनर्विलोकन किया जा सकता है। साथ ही यह भी कहा कि क्षमादान की शक्ति का प्रयोग राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत कारणों से प्रयोग नहीं किया जा सकता।
• परामर्श का अधिकार- अनुच्छेद 143 के तहत् राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय से परामर्श (Consult) का अधिकार दिया गया है;। जब राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का सार्वजनिक महत्व का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है जिस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना आवश्यक है, तब वह उस प्रश्न को उच्चतम न्यायालय को राय के लिए भेजता है, किन्तु वह उच्चतम न्यायालय की राय को मानने के लिए . बाध्य नहीं हैं। • निर्वाचन में भ्रष्ट आचरण के कारण कोई सदस्य सदन का सदस्य हाने के लिए अनर्ह हो गया है या नहीं, इस प्रश्न का विनिश्चय राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की राय से करता* (अनुच्छेद-103)। – राष्ट्रपति को अनुच्छेद 124 के तहत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद-217 के तहत उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की
राष्ट्रपति भारत में संघीय कार्यपालिका का प्रधान राष्ट्रपति है तथा संघ की सभी कार्यपालिकीय शक्तियाँ उसमें निहित हैं, जिसका प्रयोग वह संविधान के अनुसार स्वयं या, अधीनस्थ पदाधिकारियों के माध्यम से करता है; अनु. 53(1)
राष्ट्रपति की योग्यतायें(Qualifications of The President)
अनुच्छेद 58 के अन्तर्गत राष्ट्रपति पद के लिए निम्नलिखित योग्यतायें विहित की गई हैं
1. वह भारत का नागरिक हो।
2. वह 3 5 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो, तथा
3. लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो। किन्तु ऐसा कोई व्यक्ति जो भारत सरकार, राज्य सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकरण के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है, राष्ट्रपति पद के लिए योग्य न होगा। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यों के राज्यपाल और संघ अथवा राज्यों के मंत्रियों के पद को लाभ का पद नहीं माना जाता है।
राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का नाम कम से कम 50 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित और 50 मतदाताओं द्वारा अनुमोदित होना चाहिए। 1997 से पूर्व यह संख्या 10-10 थी।
राष्ट्रपति पद के लिए जमानत की राशि 15000 रु. है। जो कि पहले 2500 रु0 थी। ज्ञातव्य है कि 1997 में राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम 1952 में संशोधन कर प्रस्तावकों व अनुमोदकों की संख्या तथा जमानत की राशि को इसलिए बढ़ा दिया गया जिससे कि ऐसे उम्मीदवारों को हतोत्साहित किया जा सके जो गम्भीरता से चुनाव नहीं लड़ते हैं
. किसी उम्मीदवार द्वारा कुल वैध मतों का 1/6 भाग मत प्राप्त न करने पर उसकी जमानत की राशि जब्त हो जाती है
राष्ट्रपति संसद अथवा राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होगा। यदि निर्वाचन के पर्व वह उनका सदस्य है तो निर्वाचन की तिथि से उसका स्थान उस सदन से रिक्त समझा जायेगा। राष्ट्रपति अपने कार्यकाल की अवधि में कोई अन्य पद ग्रहण नहीं कर सकता। (अनुच्छेद-59
अनुच्छेद 57 में कहा गया है कि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर पुनर्निर्वाचन (Re-election) के लिए योग्य है किन्तु वह कितनी बार राष्ट्रपति चुना जा सकता है इस प्रश्न पर संविधान मौन है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद अब तक के एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन्हें दो बार (1952 तथा 1957 में) इस पद हेतु चुना गया था। उल्लेखनीय है कि अमेरिका में एक व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति चुना जा सकता है।
राष्ट्रपति का निर्वाचक मण्डल
अनुच्छेद 54 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन ऐसे ‘निर्वाचक मण्डल’ द्वारा किया जायेगा जिसमें
(i) संसद के दोनों सदनों (लोक सभा तथा राज्य सभा) के निर्वाचित सदस्य तथा
(ii) राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होंगे।*
ध्यातव्य है कि 70वें संविधान संशोधन (1992) द्वारा ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली तथा ‘पुदुचेरी’ संघ शासित राज्य के विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को भी राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में शामिल कर लिया गया है।* उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में संसद तथा राज्यों की विधान सभाओं के मनोनीत सदस्यों और राज्य विधान परिषद के सदस्यों (निर्वाचित एवं मनोनीत दोनों) तथा दिल्ली व पुदुचेरी की विधान सभाओं के मनोनीत सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है।
राष्ट्रपति के निर्वाचन की रीति (Manner of Election of The President)
राष्ट्रपति का चुनाव ‘अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली’ द्वारा किया जाता है| नुच्छेद 55 में राष्ट्रपति के निर्वाचन की रीति दी गयी है। राष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित अन्य बातें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम-1952 में दी गयी हैं। अनुच्छेद 65 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन “आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा होगा* और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होगा तथा यथासम्भव विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधित्व के मापन में एकरूपता रखी जायेगी। अतः राष्ट्रपति के निर्वाचन में निम्न दो सिद्धान्तों को अपनाया जाता है
- समरूपता एवं समतुल्यता का सिद्धान्त : इसके अनुसार विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों के मतमूल्य के मापन में एकरूपता तथा विभिन्न राज्यों और संघ (Union) के प्रतिनिधित्व में समतुल्यता रखी जायेगी। दूसरे शब्दों में सभी राज्यों के निर्वाचित विधान सभा सदस्यों के मतमूल्य के निर्धारण के लिए एक ही प्रक्रिया अपनायी जायेगी तथा सभी राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य का योग, संसद के दोनों सदनों के सभी निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य के योग के समतुल्य अर्थात् समान होगा। इसे आनुपातिक प्रतिनिधत्व (Proportional Representation) का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार विधान सभा सदस्यों तथा संसद सदस्यों के मतमूल्य की (ऐसे मत की जिसे वह राष्ट्रपति के निर्वाचन में देने का हकदार है) गणना अधोलिखित प्रक्रिया के अनुसार की जाती है। यथा
विधान सभा सदस्यों के मतमल्य की गणनाः
किसी राज्य की विधान सभा के किसी एक सदस्य के मत का मूल्य जानने के लिए उस राज्य की कुल जनसख्या में, उस राज्य के विधान सभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है तथा प्राप्त भागफल को पुनः एक हजार से विभाजित किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त भागफल उस राज्य विशेष के किसी एक निर्वाचित सदस्य का मत मूल्य होता है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए जनसंख्या (Population) से तात्पर्य 1971 की जनगणना द्वारा अभिनिश्चित जनंसख्या से है।* 84वें संविधान संशोधन अधि. (2001) द्वारा अनु. 55 में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि 2026 तक राष्ट्रपति के चुनाव में 1971 की जनसंख्या को ही आधार माना जायेगा। • संसद सदस्यों के मतमूल्य की गणना-संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों में से किसी एक सदस्य का मतमूल्य जानने के लिए, सभी राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य को जोड़कर उसमें संसद के सभी निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है।
एकल संक्रमणीय मत प्रणाली सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार यदि प्रत्याशियों की संख्या एक से अधिक है तो प्रत्येक मतदाता उतने मत वरीयता.. क्रम से देगा जितने प्रत्याशी हैं अर्थात् प्रत्येक मतदाता, प्रत्येक प्रत्याशी को अपना मत वरीयता क्रम के अनुसार देता है। यथा-यदि कुल तीन प्रत्याशी राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे हैं तो मतदाता तीनों प्रत्याशियों को प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वरीयता क्रम के अनुसार अपना मत देगा। • मतगणना (Counting) राष्ट्रपति पद के चुनाव में मतगणना के लिए एक विशेष प्राक्रया का प्रावधान किया गया है। राष्ट्रपति पद के लिए उसी व्यक्ति को सफल घोषित किया जाता है जो कुल वैध मतों के आधे से कम से कम एक मत अधिक अर्थात् 50% से अधिक मत प्राप्त करता है। इसे न्यूनतम कोटा कहा जाता है।
राष्ट्रपति की पदाविध (Term of Office of The President)
अनुच्छेद-56 के अनुसार राष्ट्रपति पद ग्रहण की तिथि वर्ष की अवधि तक अपना पद धारण करता है। किन्तु वह पाँच वर्ष के पूर्व कभी भी उपराष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र दे सकता है। उसे संविधान का अतिक्रमण (Violation) करने पर अनुच्छेद-61 में उपबन्धित महाभियोग की प्रक्रिया द्वारा हटाया भी जा सकता है। अनु. 56(1) (ग) के अनुसार राष्ट्रपति अपने पाँच वर्ष की पदावधि की समाप्ति के पश्चात ‘मी तब तक अपना पद धारण किये रहता है जब तक कि उसका उत्तरधिकारी (नया राष्ट्रपति) अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। ध्यातव्य है कि इस स्थिति में उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य नहीं करता है।*संविधान में यह उपबन्ध पद रिक्ति की स्थिति में शासनांतरण से बचने के लिए किया गया है। राष्ट्रपति जव उपराष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र देता है तब उपराष्ट्रपति तत्काल इसकी सूचना लोकसभा अध्यक्ष को देता है।
राष्ट्रपति पद की रिक्तता की पूर्ति
अनुच्छेद 62 के तहत राष्ट्रपति के पद की रिक्तता को भरना लिए कराये जाने वाले चुनाव एवं उसकी पदावधि सम्बन्धी प्राव – दिया गया है।
इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति पदावधि समाप्त हाने के पूर्व ही नये राष्ट्रपति के लिए चुनाव सम्पन्न करा लिया जायेगा। यह प्रावधान अनिवार्य स्वरुप का है।
इन री प्रेसीडेंशियल पोल (1974) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि राष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति के पूर्व ही उसका चुनाव करा लेना अनिवार्य है और इसे किसी भी आधार पर टाला नहीं जा सकता है। ध्यातव्य है कि यह प्रावधान अनु0 56(1) (ग) के अधीन है; अर्थात् राष्ट्रपति अपनी पदावधि समाप्त हो जाने पर भी तब तक अपने पद पर बना रहेगा जब तक कि उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। यदि राष्ट्रपति का पद मृत्यु, त्यागपत्र, महाभियोग या किसी अन्य कारण से रिक्त होता है तो उसको भरने के लिए चुनाव 6 माह के भीतर कराया जायेगा। उल्लेखनीय है कि मध्यावधि चुनाव द्वारा निर्वाचित नया राष्ट्रपति पद ग्रहण की तिथि से 5 वर्ष तक अपना पद धारण करता है। ध्यातव्य है कि जब राष्ट्रपति का पद आकस्मिक रूप से (मृत्यु, त्यागपत्र, पद से हटाये जाने या किसी अन्य कारण से) रिक्त होता है तो उप-राष्ट्रपति कार्यवाहक, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि यदि उप राष्ट्रपति का पद भी रिक्त हो तो भारत का, मुख्य न्यायाधीश तथा मुख्य न्यायाधीश के पद की रिक्तता की स्थिति में उच्चतम न्यायालय का वरिष्ठतम न्यायाधीश कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। एम0 हिदायतुल्लाह भारत के एक मात्र ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं जिन्होंने 20 जुलाई 1969 से 24 अगस्त, 1969 तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया गया था।
राष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
अनुच्छेद 60 के अनुसार राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने के पूर्व उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय के ज्येष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष अधोलिखित रूप में शपथ या प्रतिज्ञान करता है। यथा; मैं अमुक
(i) श्रद्धापूर्वक राष्ट्रपति के पदीय कर्तव्यों का पालन करूंगा
(ii) संविधान और विधि का परिरक्षण (Preserve), संरक्षण (Protect) और प्रतिरक्षण (Defend) करुंगा तथा (iii) भारत की जनता की सेवा एवं कल्याण में निरत रहूंगा।
- ध्यातव्य है कि जब कोई अन्य व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में , कार्य करता है अथवा उसके पदीय कर्तव्यों का निर्वहन करता है तो वह भी इसी प्रकार शपथ ग्रहण करता है।
- उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के शपथ का प्रारुप अनु. 60में ही दिया गया है, अनुसूची-3 में नहीं।
राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ एवं भत्ते
अनुच्छेद 59 (3) में कहा गया है कि राष्ट्रपति बिना किराया दिये शासकीय आवास का उपयोग करेगा तथा ऐसी परिलब्धियों, भत्तों एवं विशेषाधिकारों का हकदार होगा जो संसद विधि द्वारा नियत करे। ‘राष्ट्रपति का वेतन, भत्ता एवं पेंशन (संशोधन) अधिनियम 2008’ के अनुसार, वर्तमान में राष्ट्रपति का वेतन रु 150000 है। राष्ट्रपति का वेतन भारत की संचित-निधि से दिया जाता है, जो आयकर से मुक्त होता है। राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ एवं भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किये जा सकते, अनु.59 (4)।
राष्ट्रपति पर महाभियोग
राष्ट्रपति पर महाभियोग की प्रक्रिया अनुच्छेद 61 में दी गयी. है।* अनुच्छेद 61 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा संविधान का अतिक्रमण (Violation) किये जाने पर उसके विरुद्ध महाभियोग (Impeachment) चलया जा सकता है।* राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग संसद द्वारा चलाई जाने वाली एक अर्द्ध-न्यायिक प्रक्रिया है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रस्ताव की सूचना राष्ट्रपति को 14 दिन पूर्व प्राप्त होनी चाहिए और प्रस्ताव की सूचना पर उस सदन के कम-से-कम एक चौथाई सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए। यदि इस आशय का प्रस्तोक उस सदन में, जिसमें वह रखा गया है समस्त सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है* तो वह आगे की जाँच के लिए दूसरे सदन में भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति को दूसरे सदन में स्वयं अथवा अपने किसी प्रतिनिधि के माध्यम से स्पष्टीकरण देने का अधिकार है। जाँच के पश्चात यदि द्वितीय सदन भी प्रथम सदन की भाँति महाभियोग के प्रस्ताव को समस्त सदस्यों के कम-से-कम दो तिहाई बहुमत से स्वीकार कर लेता है तो उसी दिन से राष्ट्रपति पद रिक्त समझा जाता है। अभी तक एक भी ऐसा अवसर नहीं आया जबकि राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाया गया हो। – ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग की प्रक्रिया में संसद के दोनों सदनों के नामांकित सदस्य, जो राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं, वे भी भाग लेते हैं किन्तु राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य तथा दिल्ली व पुदुचेरी संघ राज्य क्षेत्र की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य महाभियोग प्रक्रिया में भाग नहीं लेते हैं । यद्यपि वे राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं।
राष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी विवाद
अनुच्छेद 71 में कहा गया है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी विवादों का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जायेगा, तथा उसका निर्णय अन्तिम होगा।* यदि उच्चतम न्यायालय किसी व्यक्ति का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में निर्वाचन को अवैध घोषित कर देता है तो ऐसे व्यक्ति द्वारा राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में, निर्णय के पूर्व किया गया कोई कार्य या घोषणा अवैध नहीं होगा। 11वें संविधान संशोधन अधिनियम 1961 द्वारा अनुच्छेद.. 71 में उपखण्ड (4) जोड़कर यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव की वैधता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि निर्वाचक मण्डल में कुछ स्थान रिक्त है। अतः यदि किसी राज्य की विधानसभा राष्ट्रपति के निर्वाचन के समय भंग हो तब भी उसका निर्वाचन अवैध न होगा। यह संशोधन डा० खरे बनाम एलेक्शन कमीशन आफ इण्डिया (1957) के मामले के पश्चात पारित किया गया था।
राष्ट्रपति की शक्तियाँ
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। राष्ट्रपति की इन शक्तियों को अधोलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। यथा
1. कार्यपालिका शक्तियाँ,
2. विधायी शक्तियाँ
, 3. न्यायिक शक्तियाँ
, 4. वित्तीय शक्तियाँ,
5. सैन्य शक्तियाँ,
6. राजनयिक शक्तियाँ,
7. आपात कालीन शक्तियाँ
कार्यपालिका शक्तियाँ
अनुच्छेद-53 के अनुसार, संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति, में निहित होगी और वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों के माध्यम से करेगा। अधीनस्थ प्राधिकारियों . से तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रीमण्डल से है। अनु. 77 के अनुसार भारत सरकार के समस्त कार्यपालिकीय कृत्य राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं तथा सरकार के सभी निर्णय उसके निर्णय माने जाते हैं। राष्ट्रपति को संघ के मामलों में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। अनुच्छेद-78 के अनुसार प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य है कि वह राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों और प्रशासन सम्बन्धी उन सभी मामलों की सूचना दें, जिसके बारे में राष्ट्रपति द्वारा ऐसी सूचना मांगी जाय।
. अनुच्छेद 74 के तहत् राष्ट्रपति अपनी कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में सलाह देने के लिए एक ‘मंत्रीपरिषद’ का गठन करता है; जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है।
- वह भारत के प्रधानमंत्री सहित संघ के अन्य प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति करता है। यथा
_(i) संघ के मंत्रियों की
, (ii) राज्यों के राज्यपाल,
(ii) , उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों,
(iv भारत के महान्यायवादी
(v) भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक
(vi) संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य,
(vii) मुख्य निर्वाचन अयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्त
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों, (ix) राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (x) राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (xi) अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (xii) पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य, (xiii) संघ राज्य क्षेत्रों के राज्यपाल या प्रशासक तथा मुख्यमंत्री (दिल्ली व पांडिचेरी)* (xiv) वित्त आयोग तथा (xv) राजभाषा आयोग आदि की।
- राष्ट्रपति को संघ के कुछ प्रमुख अधिकारियों को पदच्युत करने का भी अधिकार है; यथा- संघ के मंत्री, राज्यों के राज्यपाल, भारत के महान्यायवादी (Attorney General of India) आदि। ये राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त अपना पद धारण करते हैं
- अनु. 160 के तहत राष्ट्रपति आकस्मिक या असाधारण परिस्थितियों में राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन हेतु उपबन्ध कर सकता है,
- शासन सम्बन्धी कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा मंत्रियों के कार्यों को बाँटने के लिए वह नियम बनाता है।
. संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की संख्या, सेवा शर्तों तथा पदावधि आदि के विषय में नियम बनाने का अधिकार राष्ट्रपति को है।*
- राष्ट्रपति केन्द्र-राज्य तथा विभिन्न राज्यों के मध्य सहयोग के लिए एक अंतर्राज्यीय परिषद गठित कर सकता है (अनु. 263)।
- वह स्वयं द्वारा नियुक्त प्रशासकों के माध्यम से केन्द्र शासित राज्यों का प्रशासन संभालता है।
- राष्ट्रपति किसी भी क्षेत्र को अनुसूचित या जनजाति क्षेत्र घोषित कर सकता है। इन क्षेत्रों का प्रशासन भी उसके द्वारा ही किया जाता है।
- ध्यातव्य है कि इन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति मंत्रि परिषद . की सलाह पर ही करता है।
विधायी शक्तियाँ
भारत का राष्ट्रपति संघीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख होने के साथ-साथ संसद का भी अभिन्न अंग है, क्योंकि संसद का गठन राष्ट्रपति, लोकसभा तथा राज्य सभा तीनों से मिलकर होता है* (अनुच्छेद-79)। अतः राष्ट्रपति को व्यापक विधायी शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। जो अधोलिखित हैं। यथा• राष्ट्रपति को संसद का अधिवेशन बुलाने तथा सत्रावसान की घोषणा करने का अधिकार है* किन्तु संसद के एक सत्र की अन्तिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के मध्य 6 माह से अधिक का अन्तराल नहीं होगा। इस प्रकार राष्ट्रपति एक वर्ष में संसद की कम से कम दो बैठकें बुलाने के लिए बाध्य है। वह लोकसभा को..उसके नियत अवधि के पूर्व भंग कर सकता है (अनुच्छेद-85)। लोकसभा के विघटन के लिए उसे प्रधानमंत्री से परामर्श करना होता है।
- राष्ट्रपति लोक सभा के प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात प्रथम सत्र के आरम्भ में तथा प्रत्येक वर्ष प्रथम सत्र के आरम्भ में संसद के दोनों… सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधित करता है। जिसमें वह सरकार की सामान्य नीति तथा भावी कार्यक्रमों का विवरण देता है परन्तु यह राष्ट्रपति का वैयक्तिक अभिभाषण नहीं होता है बल्कि मंत्रिमण्डल द्वारा लिखा गया होता है। (अनुच्छेद-87)।
- राष्ट्रपति उक्त आरम्भिक अभिभाषण के अतिरिक्त कभी भी संसद के किसी एक सदन या संयुक्त सदन में अभिभाषण कर सकता है तथा उसके लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता है उसे संसद के किसी सदन को, लम्बित किसी विधेयक के सम्बन्ध में या अन्यथा, संदेश (Massage) भेजने का अधिकार भी है। (अनु.86)।
- ० यदि किसी साधारण विधेयक पर संसद के दोनों सदनों में – मतभेद हो तो राष्ट्रपति ऐसे विधेयेक को पास कराने के लिए संयुक्त अधिवेशन बुला सकता है* (अनु.108)।
- राष्ट्रपति लोक सभा में आंग्ल-भारतीय समुदय के दो प्रतिनिधयों को मनोनीति (Nominate) कर सकता है यदि उसकी राय में लोकसभा . में इस समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त न हो (अनुच्छेद331)। इसी प्रकार राज्य सभा में साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव रखने वाले व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने के लिए राष्ट्रपति द्वारा 12 सदस्य मनोनीति (Nominate) किये जाते हैं (अनु. 80 )।
- संसद द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के पश्चात ही कानून बनता है। धन विधेयक तथा संविधान संशोधन विधेयक को छोड़कर अन्य विधेयकों को राष्ट्रपति संसद को पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है; अनुच्छेद-111 के अनुसार संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक जब राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिए रखा जाता है तब वह उस पर अपनी अनुमति दे सकता है या अनुमति नहीं दे सकता है या उसे पुनर्विचार के लिए वापस कर सकता है। किन्तु यदि संसद द्वारा विधेयक संशोधन सहित या रहित पुनः पारित कर दिया जाता है तब राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति देने के लिए बाध्य होता है।
- जब राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित किसी विधेयक को राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित कर लेता है तब राष्ट्रपति विधेयक पर अपनी अनुमति देता है अथवा अनुमति रोक लेता है अथवा राज्यपाल को यह निर्देश देता है कि विधेयक (यदि वह धन विधेयक नहीं हो तो) राज्य विधान मण्डल को पुनर्विचार हेतु वापस भेज दे। ध्यातव्य है कि यदि राज्य विधान मण्डल विधेयक को संशोधन सहित या रहित पारित कर पुनः राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजता है तो राष्ट्रपति यहाँ अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं है।)
- कुछ विधेयकों को संसद में प्रस्तुत किये जाने के पूर्व राष्ट्रपति की पूर्व सहमति आवश्यक होती है; किन्तु यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना भी संसद में पेश कर दिया जाता है तो उसे न्यायालय द्वारा अवैध नहीं घोषित किया जा सकता है। ऐसे विधेयक जिन्हें राष्ट्रपति की पूर्वानुमति आवश्यक है, अधोलिखित हैं। यथा
(i) धन विधेयक (अनुच्छेद 110)
(ii) किसी नये राज्य का निर्माण या वर्तमान राज्य के क्षेत्र, सीमा या नाम में परिवर्तन करने वाले विधेयक (अनु. 3)
(iii) ऐसा विधेयक जो भारत की संचित निधि से व्यय करने से सम्बन्धित है; किन्तु धन विधेयक नहीं है (अनु. 117)
(iv) भूमि अधिग्रहण से सम्बन्धित विधेयक
(v) व्यापार की स्वतंत्रता को सीमित करने वाला राज्य का कोई विधेयक, (अनु. 304)
(vi) कराधान से सम्बन्धित ऐसा विधेयक जिससे राज्य का हित प्रभावित होता हो (अनु. 274
अध्यादेश जारी करने की शक्ति अनुच्छेद-123 के अन्तर्गत::
राष्ट्रपति को अध्यादेश (Ordinance) जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है। राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश उस स्थिति में जारी किया जाता है जबकि संसद के दोनों सदन सत्र में न हो तथा राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाय कि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है कि अविलम्ब कार्यवाही आवश्यक है।* यहाँ राष्ट्रपति के विश्वास से तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के विश्वास से है। अतः राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति वैवेकीय (Discretionary) नहीं है। राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश का वही प्रभाव व बल होता है जो संसद के अधिनियम का होता है। ऐसा अध्यादेश संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष अनुमोदन के लिए रखा जायेगा और यदि संसद के पुनः समवेत (Reasemble) होने के 6 सप्ताह के भीतर दोनों सदनों द्वारा इसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है, तो यह प्रवर्तन में नहीं रहेगा* राष्ट्रपति उसे किसी भी समय वापस ले सकता है। संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित अध्यादेश राष्ट्रपति की अनुमति के बाद अधिनियम (Act) बन जाता है।*
– ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति उन्ही विषयों से सम्बन्धित है जिन पर संसद को विधि बनाने का अधिकार प्राप्त है। अनु. 13 (क) के अधीन ‘विधि’ शब्द के अन्तर्गत ‘अध्यादेश भी आता है। अतः ऐसा कोई अध्यादेश जो मूल अधिकार (भाग-3) का अतिक्रमण करता है शून्य होगा। उल्लेखनीय है
यदि संसद का एक सदन सत्र में हो तब भी अध्यादेश जारी किया जा सकता है, क्योंकि एक सदन विधि बनाने के लिए समक्ष नहीं है। • “राष्ट्रपति वित्त-आयोग, नियंत्रक-महालेखा परीक्षक, भाषा आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग एवं चुनाव आयोग की कार्यवाही रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखवाता है।*
न्यायिक शक्तियां
संविधान के अनुच्छेद 50 के तहत् न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखा गया है। अतः राष्ट्रपति को न्याय प्रबंधन के क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का कोई विशेष अधिकार नहीं है किन्तु फिर भी उसे कुछ न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त हैं।
क्षमादान की शक्ति-
अनुच्छेद-72 के तहत् राष्ट्रपति को क्षमादान (Pardons) की शक्ति प्रदान की गयी है। अतः राष्ट्रपति किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध व्यक्ति के दण्ड को क्षमा कर सकता है अथवा प्रविलम्ब, परिहार, विराम या लघुकरण कर सकता है। वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करता है। राष्ट्रपति को यह शक्ति निम्नलिखित मामलों में प्राप्त है। यथा(i) जबकि दण्ड सेना न्यायालय द्वारा दिया गया हो।
(ii) जबकि दण्ड संघीय विषय से सम्बन्धित विधि के विरुद्ध अपराध के लिए दिया गया हो तथा
(iii) जबकि दण्डादेश मृत्युदण्ड हो।
क्षमा (Pardons) से तात्पर्य दण्ड की पूर्णतः मुक्ति से है। क्षमादान न केवल दोषसिद्ध व्यक्ति के दण्ड को समाप्त करता है बल्कि उसे उस स्थिति में ला देता है जैसे कि उसने कोई अपराध
किया ही न हो अर्थात् वह पूर्णतः निर्दोष हो जाता है। ज्ञातव्य है कि क्षमादान एक अनुग्रह है। अतः इसकी मांग अधिकार के रूप में नहीं की जा सकती है। प्रविलम्ब (Reprieves) के तहत मृत्युदण्ड को अस्थायी रूप से निलम्बित किया जाता है। इसका उद्देश्य दोषी व्यक्ति को क्षमादान या दण्डादेश के स्वरुप में परिवर्तन हेतु याचना के लिए समय देना है। परिहार (Remission) के तहत् दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन किये बिना, दण्ड की मात्रा को कम किया जाता है। जैसे दो वर्ष के कठोर कारावास को एक वर्ष के कठोर कारावास में परिहार करना। लघुकरण (Commute) में दण्ड की प्रकृति में परितर्वन करते हुए उसे कम किया जाता है। जैसे; दो वर्ष के कठोर कारावास को 1 वर्ष के साधारण कारावास में बदलना। विराम (Respite) के तहत् किसी विशेष कारण से दण्ड की मात्रा को कम कर दिया जाता है। जैसे; गर्भवती महिला के मृत्यु दण्ड को साधारण कारावास में परिवर्तित करना।
ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति अपनी क्षमादान की शक्ति का प्रयोग परीक्षण के पूर्व, परीक्षण के दौरान और उसके पश्चात् अर्थात् सभी दशाओं में कर सकता है।
अनु. 161 के अधीन राज्यपाल को भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राष्ट्रपति एवं राज्यपाल दोनों की क्षमादान की शक्ति में निम्न अन्तर हैं, यथा :
(i) राष्ट्रपति को सभी प्रकार के मृत्यु-दण्डादेश के मामले में भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राज्यपाल को मृत्युदण्डादेश के मामले में क्षमादान की शक्ति प्राप्त नहीं है।*
(ii) राष्ट्रपति को सेना न्यायालय यानि कोर्ट मार्शल के दण्डादेश के मामले में भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इपुरू बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य (2006)* के मामले में निर्णीत किया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति का पुनर्विलोकन किया जा सकता है। साथ ही यह भी कहा कि क्षमादान की शक्ति का प्रयोग राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत कारणों से प्रयोग नहीं किया जा सकता।
• परामर्श का अधिकार- अनुच्छेद 143 के तहत् राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय से परामर्श (Consult) का अधिकार दिया गया है;। जब राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का सार्वजनिक महत्व का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है जिस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना आवश्यक है, तब वह उस प्रश्न को उच्चतम न्यायालय को राय के लिए भेजता है, किन्तु वह उच्चतम न्यायालय की राय को मानने के लिए . बाध्य नहीं हैं। • निर्वाचन में भ्रष्ट आचरण के कारण कोई सदस्य सदन का सदस्य हाने के लिए अनर्ह हो गया है या नहीं, इस प्रश्न का विनिश्चय राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की राय से करता* (अनुच्छेद-103)। – राष्ट्रपति को अनुच्छेद 124 के तहत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद-217 के तहत उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की
राष्ट्रपति भारत में संघीय कार्यपालिका का प्रधान राष्ट्रपति है तथा संघ की सभी कार्यपालिकीय शक्तियाँ उसमें निहित हैं, जिसका प्रयोग वह संविधान के अनुसार स्वयं या, अधीनस्थ पदाधिकारियों के माध्यम से करता है; अनु. 53(1)
राष्ट्रपति की योग्यतायें(Qualifications of The President)
अनुच्छेद 58 के अन्तर्गत राष्ट्रपति पद के लिए निम्नलिखित योग्यतायें विहित की गई हैं
1. वह भारत का नागरिक हो।
2. वह 3 5 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो, तथा
3. लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो। किन्तु ऐसा कोई व्यक्ति जो भारत सरकार, राज्य सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकरण के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है, राष्ट्रपति पद के लिए योग्य न होगा। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यों के राज्यपाल और संघ अथवा राज्यों के मंत्रियों के पद को लाभ का पद नहीं माना जाता है।
राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का नाम कम से कम 50 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित और 50 मतदाताओं द्वारा अनुमोदित होना चाहिए। 1997 से पूर्व यह संख्या 10-10 थी।
राष्ट्रपति पद के लिए जमानत की राशि 15000 रु. है। जो कि पहले 2500 रु0 थी। ज्ञातव्य है कि 1997 में राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम 1952 में संशोधन कर प्रस्तावकों व अनुमोदकों की संख्या तथा जमानत की राशि को इसलिए बढ़ा दिया गया जिससे कि ऐसे उम्मीदवारों को हतोत्साहित किया जा सके जो गम्भीरता से चुनाव नहीं लड़ते हैं
. किसी उम्मीदवार द्वारा कुल वैध मतों का 1/6 भाग मत प्राप्त न करने पर उसकी जमानत की राशि जब्त हो जाती है
राष्ट्रपति संसद अथवा राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होगा। यदि निर्वाचन के पर्व वह उनका सदस्य है तो निर्वाचन की तिथि से उसका स्थान उस सदन से रिक्त समझा जायेगा। राष्ट्रपति अपने कार्यकाल की अवधि में कोई अन्य पद ग्रहण नहीं कर सकता। (अनुच्छेद-59
अनुच्छेद 57 में कहा गया है कि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर पुनर्निर्वाचन (Re-election) के लिए योग्य है किन्तु वह कितनी बार राष्ट्रपति चुना जा सकता है इस प्रश्न पर संविधान मौन है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद अब तक के एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन्हें दो बार (1952 तथा 1957 में) इस पद हेतु चुना गया था। उल्लेखनीय है कि अमेरिका में एक व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति चुना जा सकता है।
राष्ट्रपति का निर्वाचक मण्डल
अनुच्छेद 54 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन ऐसे ‘निर्वाचक मण्डल’ द्वारा किया जायेगा जिसमें
(i) संसद के दोनों सदनों (लोक सभा तथा राज्य सभा) के निर्वाचित सदस्य तथा
(ii) राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होंगे।*
ध्यातव्य है कि 70वें संविधान संशोधन (1992) द्वारा ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली तथा ‘पुदुचेरी’ संघ शासित राज्य के विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को भी राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में शामिल कर लिया गया है।* उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में संसद तथा राज्यों की विधान सभाओं के मनोनीत सदस्यों और राज्य विधान परिषद के सदस्यों (निर्वाचित एवं मनोनीत दोनों) तथा दिल्ली व पुदुचेरी की विधान सभाओं के मनोनीत सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है।
राष्ट्रपति के निर्वाचन की रीति (Manner of Election of The President)
राष्ट्रपति का चुनाव ‘अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली’ द्वारा किया जाता है| नुच्छेद 55 में राष्ट्रपति के निर्वाचन की रीति दी गयी है। राष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित अन्य बातें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम-1952 में दी गयी हैं। अनुच्छेद 65 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन “आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा होगा* और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होगा तथा यथासम्भव विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधित्व के मापन में एकरूपता रखी जायेगी। अतः राष्ट्रपति के निर्वाचन में निम्न दो सिद्धान्तों को अपनाया जाता है
- समरूपता एवं समतुल्यता का सिद्धान्त : इसके अनुसार विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों के मतमूल्य के मापन में एकरूपता तथा विभिन्न राज्यों और संघ (Union) के प्रतिनिधित्व में समतुल्यता रखी जायेगी। दूसरे शब्दों में सभी राज्यों के निर्वाचित विधान सभा सदस्यों के मतमूल्य के निर्धारण के लिए एक ही प्रक्रिया अपनायी जायेगी तथा सभी राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य का योग, संसद के दोनों सदनों के सभी निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य के योग के समतुल्य अर्थात् समान होगा। इसे आनुपातिक प्रतिनिधत्व (Proportional Representation) का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार विधान सभा सदस्यों तथा संसद सदस्यों के मतमूल्य की (ऐसे मत की जिसे वह राष्ट्रपति के निर्वाचन में देने का हकदार है) गणना अधोलिखित प्रक्रिया के अनुसार की जाती है। यथा
विधान सभा सदस्यों के मतमल्य की गणनाः
किसी राज्य की विधान सभा के किसी एक सदस्य के मत का मूल्य जानने के लिए उस राज्य की कुल जनसख्या में, उस राज्य के विधान सभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है तथा प्राप्त भागफल को पुनः एक हजार से विभाजित किया जाता है। इस प्रकार प्राप्त भागफल उस राज्य विशेष के किसी एक निर्वाचित सदस्य का मत मूल्य होता है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए जनसंख्या (Population) से तात्पर्य 1971 की जनगणना द्वारा अभिनिश्चित जनंसख्या से है।* 84वें संविधान संशोधन अधि. (2001) द्वारा अनु. 55 में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि 2026 तक राष्ट्रपति के चुनाव में 1971 की जनसंख्या को ही आधार माना जायेगा। • संसद सदस्यों के मतमूल्य की गणना-संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों में से किसी एक सदस्य का मतमूल्य जानने के लिए, सभी राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मतमूल्य को जोड़कर उसमें संसद के सभी निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग दिया जाता है।
एकल संक्रमणीय मत प्रणाली सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार यदि प्रत्याशियों की संख्या एक से अधिक है तो प्रत्येक मतदाता उतने मत वरीयता.. क्रम से देगा जितने प्रत्याशी हैं अर्थात् प्रत्येक मतदाता, प्रत्येक प्रत्याशी को अपना मत वरीयता क्रम के अनुसार देता है। यथा-यदि कुल तीन प्रत्याशी राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे हैं तो मतदाता तीनों प्रत्याशियों को प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वरीयता क्रम के अनुसार अपना मत देगा। • मतगणना (Counting) राष्ट्रपति पद के चुनाव में मतगणना के लिए एक विशेष प्राक्रया का प्रावधान किया गया है। राष्ट्रपति पद के लिए उसी व्यक्ति को सफल घोषित किया जाता है जो कुल वैध मतों के आधे से कम से कम एक मत अधिक अर्थात् 50% से अधिक मत प्राप्त करता है। इसे न्यूनतम कोटा कहा जाता है।
राष्ट्रपति की पदाविध (Term of Office of The President)
अनुच्छेद-56 के अनुसार राष्ट्रपति पद ग्रहण की तिथि वर्ष की अवधि तक अपना पद धारण करता है। किन्तु वह पाँच वर्ष के पूर्व कभी भी उपराष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र दे सकता है। उसे संविधान का अतिक्रमण (Violation) करने पर अनुच्छेद-61 में उपबन्धित महाभियोग की प्रक्रिया द्वारा हटाया भी जा सकता है। अनु. 56(1) (ग) के अनुसार राष्ट्रपति अपने पाँच वर्ष की पदावधि की समाप्ति के पश्चात ‘मी तब तक अपना पद धारण किये रहता है जब तक कि उसका उत्तरधिकारी (नया राष्ट्रपति) अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। ध्यातव्य है कि इस स्थिति में उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य नहीं करता है।*संविधान में यह उपबन्ध पद रिक्ति की स्थिति में शासनांतरण से बचने के लिए किया गया है। राष्ट्रपति जव उपराष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र देता है तब उपराष्ट्रपति तत्काल इसकी सूचना लोकसभा अध्यक्ष को देता है।
राष्ट्रपति पद की रिक्तता की पूर्ति
अनुच्छेद 62 के तहत राष्ट्रपति के पद की रिक्तता को भरना लिए कराये जाने वाले चुनाव एवं उसकी पदावधि सम्बन्धी प्राव – दिया गया है।
इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति पदावधि समाप्त हाने के पूर्व ही नये राष्ट्रपति के लिए चुनाव सम्पन्न करा लिया जायेगा। यह प्रावधान अनिवार्य स्वरुप का है।
इन री प्रेसीडेंशियल पोल (1974) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि राष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति के पूर्व ही उसका चुनाव करा लेना अनिवार्य है और इसे किसी भी आधार पर टाला नहीं जा सकता है। ध्यातव्य है कि यह प्रावधान अनु0 56(1) (ग) के अधीन है; अर्थात् राष्ट्रपति अपनी पदावधि समाप्त हो जाने पर भी तब तक अपने पद पर बना रहेगा जब तक कि उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। यदि राष्ट्रपति का पद मृत्यु, त्यागपत्र, महाभियोग या किसी अन्य कारण से रिक्त होता है तो उसको भरने के लिए चुनाव 6 माह के भीतर कराया जायेगा। उल्लेखनीय है कि मध्यावधि चुनाव द्वारा निर्वाचित नया राष्ट्रपति पद ग्रहण की तिथि से 5 वर्ष तक अपना पद धारण करता है। ध्यातव्य है कि जब राष्ट्रपति का पद आकस्मिक रूप से (मृत्यु, त्यागपत्र, पद से हटाये जाने या किसी अन्य कारण से) रिक्त होता है तो उप-राष्ट्रपति कार्यवाहक, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि यदि उप राष्ट्रपति का पद भी रिक्त हो तो भारत का, मुख्य न्यायाधीश तथा मुख्य न्यायाधीश के पद की रिक्तता की स्थिति में उच्चतम न्यायालय का वरिष्ठतम न्यायाधीश कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। एम0 हिदायतुल्लाह भारत के एक मात्र ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं जिन्होंने 20 जुलाई 1969 से 24 अगस्त, 1969 तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया गया था।
राष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
अनुच्छेद 60 के अनुसार राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने के पूर्व उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा उनकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय के ज्येष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष अधोलिखित रूप में शपथ या प्रतिज्ञान करता है। यथा; मैं अमुक
(i) श्रद्धापूर्वक राष्ट्रपति के पदीय कर्तव्यों का पालन करूंगा
(ii) संविधान और विधि का परिरक्षण (Preserve), संरक्षण (Protect) और प्रतिरक्षण (Defend) करुंगा तथा (iii) भारत की जनता की सेवा एवं कल्याण में निरत रहूंगा।
- ध्यातव्य है कि जब कोई अन्य व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में , कार्य करता है अथवा उसके पदीय कर्तव्यों का निर्वहन करता है तो वह भी इसी प्रकार शपथ ग्रहण करता है।
- उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के शपथ का प्रारुप अनु. 60में ही दिया गया है, अनुसूची-3 में नहीं।
राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ एवं भत्ते
अनुच्छेद 59 (3) में कहा गया है कि राष्ट्रपति बिना किराया दिये शासकीय आवास का उपयोग करेगा तथा ऐसी परिलब्धियों, भत्तों एवं विशेषाधिकारों का हकदार होगा जो संसद विधि द्वारा नियत करे। ‘राष्ट्रपति का वेतन, भत्ता एवं पेंशन (संशोधन) अधिनियम 2008’ के अनुसार, वर्तमान में राष्ट्रपति का वेतन रु 150000 है। राष्ट्रपति का वेतन भारत की संचित-निधि से दिया जाता है, जो आयकर से मुक्त होता है। राष्ट्रपति की परिलब्धियाँ एवं भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किये जा सकते, अनु.59 (4)।
राष्ट्रपति पर महाभियोग
राष्ट्रपति पर महाभियोग की प्रक्रिया अनुच्छेद 61 में दी गयी. है।* अनुच्छेद 61 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा संविधान का अतिक्रमण (Violation) किये जाने पर उसके विरुद्ध महाभियोग (Impeachment) चलया जा सकता है।* राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग संसद द्वारा चलाई जाने वाली एक अर्द्ध-न्यायिक प्रक्रिया है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रस्ताव की सूचना राष्ट्रपति को 14 दिन पूर्व प्राप्त होनी चाहिए और प्रस्ताव की सूचना पर उस सदन के कम-से-कम एक चौथाई सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए। यदि इस आशय का प्रस्तोक उस सदन में, जिसमें वह रखा गया है समस्त सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है* तो वह आगे की जाँच के लिए दूसरे सदन में भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति को दूसरे सदन में स्वयं अथवा अपने किसी प्रतिनिधि के माध्यम से स्पष्टीकरण देने का अधिकार है। जाँच के पश्चात यदि द्वितीय सदन भी प्रथम सदन की भाँति महाभियोग के प्रस्ताव को समस्त सदस्यों के कम-से-कम दो तिहाई बहुमत से स्वीकार कर लेता है तो उसी दिन से राष्ट्रपति पद रिक्त समझा जाता है। अभी तक एक भी ऐसा अवसर नहीं आया जबकि राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाया गया हो। – ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग की प्रक्रिया में संसद के दोनों सदनों के नामांकित सदस्य, जो राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं, वे भी भाग लेते हैं किन्तु राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य तथा दिल्ली व पुदुचेरी संघ राज्य क्षेत्र की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य महाभियोग प्रक्रिया में भाग नहीं लेते हैं । यद्यपि वे राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं।
राष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी विवाद
अनुच्छेद 71 में कहा गया है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी विवादों का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जायेगा, तथा उसका निर्णय अन्तिम होगा।* यदि उच्चतम न्यायालय किसी व्यक्ति का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में निर्वाचन को अवैध घोषित कर देता है तो ऐसे व्यक्ति द्वारा राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में, निर्णय के पूर्व किया गया कोई कार्य या घोषणा अवैध नहीं होगा। 11वें संविधान संशोधन अधिनियम 1961 द्वारा अनुच्छेद.. 71 में उपखण्ड (4) जोड़कर यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव की वैधता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि निर्वाचक मण्डल में कुछ स्थान रिक्त है। अतः यदि किसी राज्य की विधानसभा राष्ट्रपति के निर्वाचन के समय भंग हो तब भी उसका निर्वाचन अवैध न होगा। यह संशोधन डा० खरे बनाम एलेक्शन कमीशन आफ इण्डिया (1957) के मामले के पश्चात पारित किया गया था।
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राष्ट्रपति की शक्तियाँ
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। राष्ट्रपति की इन शक्तियों को अधोलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। यथा
1. कार्यपालिका शक्तियाँ,
2. विधायी शक्तियाँ
, 3. न्यायिक शक्तियाँ
, 4. वित्तीय शक्तियाँ,
5. सैन्य शक्तियाँ,
6. राजनयिक शक्तियाँ,
7. आपात कालीन शक्तियाँ
कार्यपालिका शक्तियाँ
अनुच्छेद-53 के अनुसार, संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति, में निहित होगी और वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों के माध्यम से करेगा। अधीनस्थ प्राधिकारियों . से तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रीमण्डल से है। अनु. 77 के अनुसार भारत सरकार के समस्त कार्यपालिकीय कृत्य राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं तथा सरकार के सभी निर्णय उसके निर्णय माने जाते हैं। राष्ट्रपति को संघ के मामलों में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। अनुच्छेद-78 के अनुसार प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य है कि वह राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों और प्रशासन सम्बन्धी उन सभी मामलों की सूचना दें, जिसके बारे में राष्ट्रपति द्वारा ऐसी सूचना मांगी जाय।
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. अनुच्छेद 74 के तहत् राष्ट्रपति अपनी कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में सलाह देने के लिए एक ‘मंत्रीपरिषद’ का गठन करता है; जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है।
- वह भारत के प्रधानमंत्री सहित संघ के अन्य प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति करता है। यथा
_(i) संघ के मंत्रियों की
, (ii) राज्यों के राज्यपाल,
(ii) , उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों,
(iv भारत के महान्यायवादी
(v) भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक
(vi) संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य,
(vii) मुख्य निर्वाचन अयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्त
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों, (ix) राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (x) राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (xi) अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, (xii) पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य, (xiii) संघ राज्य क्षेत्रों के राज्यपाल या प्रशासक तथा मुख्यमंत्री (दिल्ली व पांडिचेरी)* (xiv) वित्त आयोग तथा (xv) राजभाषा आयोग आदि की।
- राष्ट्रपति को संघ के कुछ प्रमुख अधिकारियों को पदच्युत करने का भी अधिकार है; यथा- संघ के मंत्री, राज्यों के राज्यपाल, भारत के महान्यायवादी (Attorney General of India) आदि। ये राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त अपना पद धारण करते हैं
- अनु. 160 के तहत राष्ट्रपति आकस्मिक या असाधारण परिस्थितियों में राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन हेतु उपबन्ध कर सकता है,
- शासन सम्बन्धी कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा मंत्रियों के कार्यों को बाँटने के लिए वह नियम बनाता है।
. संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की संख्या, सेवा शर्तों तथा पदावधि आदि के विषय में नियम बनाने का अधिकार राष्ट्रपति को है।*
- राष्ट्रपति केन्द्र-राज्य तथा विभिन्न राज्यों के मध्य सहयोग के लिए एक अंतर्राज्यीय परिषद गठित कर सकता है (अनु. 263)।
- वह स्वयं द्वारा नियुक्त प्रशासकों के माध्यम से केन्द्र शासित राज्यों का प्रशासन संभालता है।
- राष्ट्रपति किसी भी क्षेत्र को अनुसूचित या जनजाति क्षेत्र घोषित कर सकता है। इन क्षेत्रों का प्रशासन भी उसके द्वारा ही किया जाता है।
- ध्यातव्य है कि इन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति मंत्रि परिषद . की सलाह पर ही करता है।
विधायी शक्तियाँ
भारत का राष्ट्रपति संघीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख होने के साथ-साथ संसद का भी अभिन्न अंग है, क्योंकि संसद का गठन राष्ट्रपति, लोकसभा तथा राज्य सभा तीनों से मिलकर होता है* (अनुच्छेद-79)। अतः राष्ट्रपति को व्यापक विधायी शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। जो अधोलिखित हैं। यथा• राष्ट्रपति को संसद का अधिवेशन बुलाने तथा सत्रावसान की घोषणा करने का अधिकार है* किन्तु संसद के एक सत्र की अन्तिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के मध्य 6 माह से अधिक का अन्तराल नहीं होगा। इस प्रकार राष्ट्रपति एक वर्ष में संसद की कम से कम दो बैठकें बुलाने के लिए बाध्य है। वह लोकसभा को..उसके नियत अवधि के पूर्व भंग कर सकता है (अनुच्छेद-85)। लोकसभा के विघटन के लिए उसे प्रधानमंत्री से परामर्श करना होता है।
- राष्ट्रपति लोक सभा के प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात प्रथम सत्र के आरम्भ में तथा प्रत्येक वर्ष प्रथम सत्र के आरम्भ में संसद के दोनों… सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधित करता है। जिसमें वह सरकार की सामान्य नीति तथा भावी कार्यक्रमों का विवरण देता है परन्तु यह राष्ट्रपति का वैयक्तिक अभिभाषण नहीं होता है बल्कि मंत्रिमण्डल द्वारा लिखा गया होता है। (अनुच्छेद-87)।
- राष्ट्रपति उक्त आरम्भिक अभिभाषण के अतिरिक्त कभी भी संसद के किसी एक सदन या संयुक्त सदन में अभिभाषण कर सकता है तथा उसके लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता है उसे संसद के किसी सदन को, लम्बित किसी विधेयक के सम्बन्ध में या अन्यथा, संदेश (Massage) भेजने का अधिकार भी है। (अनु.86)।
- ० यदि किसी साधारण विधेयक पर संसद के दोनों सदनों में – मतभेद हो तो राष्ट्रपति ऐसे विधेयेक को पास कराने के लिए संयुक्त अधिवेशन बुला सकता है* (अनु.108)।
- राष्ट्रपति लोक सभा में आंग्ल-भारतीय समुदय के दो प्रतिनिधयों को मनोनीति (Nominate) कर सकता है यदि उसकी राय में लोकसभा . में इस समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त न हो (अनुच्छेद331)। इसी प्रकार राज्य सभा में साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव रखने वाले व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने के लिए राष्ट्रपति द्वारा 12 सदस्य मनोनीति (Nominate) किये जाते हैं (अनु. 80 )।
- संसद द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के पश्चात ही कानून बनता है। धन विधेयक तथा संविधान संशोधन विधेयक को छोड़कर अन्य विधेयकों को राष्ट्रपति संसद को पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है; अनुच्छेद-111 के अनुसार संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक जब राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिए रखा जाता है तब वह उस पर अपनी अनुमति दे सकता है या अनुमति नहीं दे सकता है या उसे पुनर्विचार के लिए वापस कर सकता है। किन्तु यदि संसद द्वारा विधेयक संशोधन सहित या रहित पुनः पारित कर दिया जाता है तब राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति देने के लिए बाध्य होता है।
- जब राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित किसी विधेयक को राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित कर लेता है तब राष्ट्रपति विधेयक पर अपनी अनुमति देता है अथवा अनुमति रोक लेता है अथवा राज्यपाल को यह निर्देश देता है कि विधेयक (यदि वह धन विधेयक नहीं हो तो) राज्य विधान मण्डल को पुनर्विचार हेतु वापस भेज दे। ध्यातव्य है कि यदि राज्य विधान मण्डल विधेयक को संशोधन सहित या रहित पारित कर पुनः राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेजता है तो राष्ट्रपति यहाँ अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं है।)
- कुछ विधेयकों को संसद में प्रस्तुत किये जाने के पूर्व राष्ट्रपति की पूर्व सहमति आवश्यक होती है; किन्तु यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना भी संसद में पेश कर दिया जाता है तो उसे न्यायालय द्वारा अवैध नहीं घोषित किया जा सकता है। ऐसे विधेयक जिन्हें राष्ट्रपति की पूर्वानुमति आवश्यक है, अधोलिखित हैं। यथा
(i) धन विधेयक (अनुच्छेद 110)
(ii) किसी नये राज्य का निर्माण या वर्तमान राज्य के क्षेत्र, सीमा या नाम में परिवर्तन करने वाले विधेयक (अनु. 3)
(iii) ऐसा विधेयक जो भारत की संचित निधि से व्यय करने से सम्बन्धित है; किन्तु धन विधेयक नहीं है (अनु. 117)
(iv) भूमि अधिग्रहण से सम्बन्धित विधेयक
(v) व्यापार की स्वतंत्रता को सीमित करने वाला राज्य का कोई विधेयक, (अनु. 304)
(vi) कराधान से सम्बन्धित ऐसा विधेयक जिससे राज्य का हित प्रभावित होता हो (अनु. 274
अध्यादेश जारी करने की शक्ति अनुच्छेद-123 के अन्तर्गत::
राष्ट्रपति को अध्यादेश (Ordinance) जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है। राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश उस स्थिति में जारी किया जाता है जबकि संसद के दोनों सदन सत्र में न हो तथा राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाय कि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है कि अविलम्ब कार्यवाही आवश्यक है।* यहाँ राष्ट्रपति के विश्वास से तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के विश्वास से है। अतः राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति वैवेकीय (Discretionary) नहीं है। राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश का वही प्रभाव व बल होता है जो संसद के अधिनियम का होता है। ऐसा अध्यादेश संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष अनुमोदन के लिए रखा जायेगा और यदि संसद के पुनः समवेत (Reasemble) होने के 6 सप्ताह के भीतर दोनों सदनों द्वारा इसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है, तो यह प्रवर्तन में नहीं रहेगा* राष्ट्रपति उसे किसी भी समय वापस ले सकता है। संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित अध्यादेश राष्ट्रपति की अनुमति के बाद अधिनियम (Act) बन जाता है।*
– ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति उन्ही विषयों से सम्बन्धित है जिन पर संसद को विधि बनाने का अधिकार प्राप्त है। अनु. 13 (क) के अधीन ‘विधि’ शब्द के अन्तर्गत ‘अध्यादेश भी आता है। अतः ऐसा कोई अध्यादेश जो मूल अधिकार (भाग-3) का अतिक्रमण करता है शून्य होगा। उल्लेखनीय है
यदि संसद का एक सदन सत्र में हो तब भी अध्यादेश जारी किया जा सकता है, क्योंकि एक सदन विधि बनाने के लिए समक्ष नहीं है। • “राष्ट्रपति वित्त-आयोग, नियंत्रक-महालेखा परीक्षक, भाषा आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग एवं चुनाव आयोग की कार्यवाही रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखवाता है।*
न्यायिक शक्तियां
संविधान के अनुच्छेद 50 के तहत् न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखा गया है। अतः राष्ट्रपति को न्याय प्रबंधन के क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का कोई विशेष अधिकार नहीं है किन्तु फिर भी उसे कुछ न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त हैं।
क्षमादान की शक्ति-
अनुच्छेद-72 के तहत् राष्ट्रपति को क्षमादान (Pardons) की शक्ति प्रदान की गयी है। अतः राष्ट्रपति किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध व्यक्ति के दण्ड को क्षमा कर सकता है अथवा प्रविलम्ब, परिहार, विराम या लघुकरण कर सकता है। वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करता है। राष्ट्रपति को यह शक्ति निम्नलिखित मामलों में प्राप्त है। यथा(i) जबकि दण्ड सेना न्यायालय द्वारा दिया गया हो।
(ii) जबकि दण्ड संघीय विषय से सम्बन्धित विधि के विरुद्ध अपराध के लिए दिया गया हो तथा
(iii) जबकि दण्डादेश मृत्युदण्ड हो।
क्षमा (Pardons) से तात्पर्य दण्ड की पूर्णतः मुक्ति से है। क्षमादान न केवल दोषसिद्ध व्यक्ति के दण्ड को समाप्त करता है बल्कि उसे उस स्थिति में ला देता है जैसे कि उसने कोई अपराध
किया ही न हो अर्थात् वह पूर्णतः निर्दोष हो जाता है। ज्ञातव्य है कि क्षमादान एक अनुग्रह है। अतः इसकी मांग अधिकार के रूप में नहीं की जा सकती है। प्रविलम्ब (Reprieves) के तहत मृत्युदण्ड को अस्थायी रूप से निलम्बित किया जाता है। इसका उद्देश्य दोषी व्यक्ति को क्षमादान या दण्डादेश के स्वरुप में परिवर्तन हेतु याचना के लिए समय देना है। परिहार (Remission) के तहत् दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन किये बिना, दण्ड की मात्रा को कम किया जाता है। जैसे दो वर्ष के कठोर कारावास को एक वर्ष के कठोर कारावास में परिहार करना। लघुकरण (Commute) में दण्ड की प्रकृति में परितर्वन करते हुए उसे कम किया जाता है। जैसे; दो वर्ष के कठोर कारावास को 1 वर्ष के साधारण कारावास में बदलना। विराम (Respite) के तहत् किसी विशेष कारण से दण्ड की मात्रा को कम कर दिया जाता है। जैसे; गर्भवती महिला के मृत्यु दण्ड को साधारण कारावास में परिवर्तित करना।
ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति अपनी क्षमादान की शक्ति का प्रयोग परीक्षण के पूर्व, परीक्षण के दौरान और उसके पश्चात् अर्थात् सभी दशाओं में कर सकता है।
अनु. 161 के अधीन राज्यपाल को भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राष्ट्रपति एवं राज्यपाल दोनों की क्षमादान की शक्ति में निम्न अन्तर हैं, यथा :
(i) राष्ट्रपति को सभी प्रकार के मृत्यु-दण्डादेश के मामले में भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राज्यपाल को मृत्युदण्डादेश के मामले में क्षमादान की शक्ति प्राप्त नहीं है।*
(ii) राष्ट्रपति को सेना न्यायालय यानि कोर्ट मार्शल के दण्डादेश के मामले में भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है परन्तु राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इपुरू बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य (2006)* के मामले में निर्णीत किया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति का पुनर्विलोकन किया जा सकता है। साथ ही यह भी कहा कि क्षमादान की शक्ति का प्रयोग राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत कारणों से प्रयोग नहीं किया जा सकता।
• परामर्श का अधिकार- अनुच्छेद 143 के तहत् राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय से परामर्श (Consult) का अधिकार दिया गया है;। जब राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का सार्वजनिक महत्व का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है जिस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना आवश्यक है, तब वह उस प्रश्न को उच्चतम न्यायालय को राय के लिए भेजता है, किन्तु वह उच्चतम न्यायालय की राय को मानने के लिए . बाध्य नहीं हैं। • निर्वाचन में भ्रष्ट आचरण के कारण कोई सदस्य सदन का सदस्य हाने के लिए अनर्ह हो गया है या नहीं, इस प्रश्न का विनिश्चय राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की राय से करता* (अनुच्छेद-103)। – राष्ट्रपति को अनुच्छेद 124 के तहत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद-217 के तहत उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार है। वह उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का स्थानान्तरण भी करता है तथा उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 145 के तहत् निर्मित किये जाने वाले न्यायालय की पद्धति एवं प्रक्रिया से सम्बन्धित नियमों को अनुमोदित (approved) करता है।
वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers)
राष्ट्रपति को वित्तीय क्षेत्र में भी कुछ महत्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त हैं। यथा : राष्ट्रपति प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ में संसद के दोनों सदनों के सम्मुख भारत सरकार की उस वर्ष के लिए आय और व्यय का विवरण (बजट) रखवाता है (अनु. 112 ) |उसकी आज्ञा के बिना धन विधेयक अथवा वित्त विधेयक (Financial BilIऔर अनुदान मांगें लोकसभा में प्रस्तावित नहीं की जा सकतीं। ‘
- भारत की ‘आकस्मिक निधि’ (Contingency पर भी उसका नियन्त्रण होता है। वह आकस्मिक व्यय के लिए इस निधि से धनराशि दे सकता है, इसके लिए बाद में संसद की स्वीकात आवश्यक है।
- उसे एक वित्त आयोग (Trinance Commission) नियुक्त करने का भी अधिकार है (अनु. 280), जो आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में राष्पति को परामर्श देता है।
सैन्य शक्तियाँ (Military Powers)
भारत का राष्ट्रपति तीनों सेनाओं (थल सेना, वायु सेना तथा नौ सेना) का प्रधान सेनापति होता है, अनु. 53(2)। उसे युद्ध घोषित करने तथा शान्ति स्थापित करने की शक्ति प्राप्त है। वह तीनों सेना अध्यक्षों की नियुक्ति भी करता है किन्तु राष्ट्रपति की इस शक्ति के प्रयोग को संसद द्वारा विधि बनाकर विनियमित या नियंत्रित किया चा सकता है
राजनयिक शक्तियाँ
भारतीय संघ का संवैधानिक प्रमुख होने के नाते राष्ट्रपति वैदेशिक क्षेत्र में भारत का प्रतिनिधित्व करता है। वह विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों के लिए राजदूतों व कूटनीतिक प्रतिनिधियों की नियुक्ति करता है और विदेशों के राजदूत व कूटनीतिक प्रतिनिधियों के प्रमाण पत्रों को स्वीकार करता है। विदेशों से संधियाँ और सपझौते भी राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं, यद्यपि इन समझौतों के सम्बन्ध में पहल (initiative) मंत्रियों के हाथ में रहती है और , इसकी संसद से पुष्टि आवश्यक होती है।
आपात कालीन शक्तियाँ (Emergency Powers)
संविधान में तीन प्रकार के संकटकाल का अनुमान किया गया है, जिनके लिए राष्ट्रपति को विस्तृत संकटकालीन अधिकार प्रदान किये गये हैं। राष्ट्रपति निम्न तीन प्रकार के संकट या आपात की उद्घोषणा कर सकता है। यथा
- राष्ट्रीय आपात (National Emergency)- अनुच्छेद352 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाता है कि युद्ध, वाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह (संविधान के 44वें संशोधन द्वारा प्रतिस्थापित) के कारण भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा संकट में है तो वह ‘राष्ट्रीय आपात’ की उद्घोषणा कर सकता है। आपात की उदघोषण के लिए मंत्रिमण्डल की लिखित सहमति आवश्यक है। आपात की उद्घोषणा का एक माह के भीतर संसद द्वारा अनुमोदन किया जाना चाहिए। अनुमोदन के पश्चात् आपात 6 माह तक लागू रहेगा। 6 माह बाद भी लागू रखने के लिए इसका पुनः अनुमोदन आवश्यक होगा।
ध्यातव्य है कि अनु.3 52 के तहत् अब तक कुल तीन बार आपात काल की घोषणा की गयी है यथा
(i) 1962 में भारत पर चीन द्वारा आक्रमण के कारण
(ii) 1971 में भारत पर पाकिस्तान के आक्रमण के कारण तथा
(iii) 1975 में आन्तरिक अशान्ति के आधार पर कांग्रेस सरकार द्वारा।
2. राष्ट्रपति शासन (President Rule)-संविधान के अनु. राम 356 के अनुसार यदि किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन स्व मिलने पर या राष्ट्रपति को समाधान हो जाये कि उस राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति आपात काल की उद्घोषणा करके उस राज्य का शासन अपने हाथ में ले सकता है। ऐसी उद्घोषणा की स्वीकृति संसद से दो माह के भीतर लेना आवश्यक है। संसद के अनुमोदन के पश्चात् भी कोई उद्घोषणा एक बार में 6 माह से अधिक समय तक और कुल मिलाकर तीन वर्ष से अधिक समय तक जारी नहीं रह सकती।
3. वित्तीय आपात (Financial Emergency)-अनु. 360 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाये कि ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है, जिससे भारत अथवा उसके किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह ‘वित्तीय आपात’ की उद्घोषणा कर सकता है। ऐसी उद्घोषणा 2 माह के पश्चात प्रवर्तन में नहीं रहेगी, जब तक कि इसके पूर्व उसे संसद द्वारा अनुमोदित नहीं कर दिया जाता है।
उन्मुक्तियाँ एवं विशेषाधिकार (Immunities and Privileges)
संविधान के अनु. 361 के तहत् भारत के राष्ट्रपति व राज्यपालों – को कई उन्मुक्तियाँ तथा विशेषाधिकार प्रदान किये गये हैं। यथा राष्ट्रपति या राज्यपाल को अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में किये गये कार्यों के लिए किसी न्यायालय में उत्तरदायी नहीं ठहराया जिा सकता है। राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान कोई भी दाण्डिक कार्यवाही (Criminal Proceedings) न तो संस्थित की जायेगी और न ही चालू रखी जायेगी।- 1. राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध उनकी पदावधि के दौरान उनकी (गिरफ्तारी या कारावास के लिए किसी न्यायालय द्वारा कोई आदेशिका जारी नहीं की जायेगी। • राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा पद ग्रहण के पूर्व या पश्चात अपने वैयक्तिक हैसियत ( Personal Capacity) में किये गये किसी कार्य के लिए, उसकी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में कोई सिविल कार्यवाही (Civil Proceedings) तब तक संस्थित नहीं की जायेगी जब तक कि उसे इसकी सूचना दो माह पूर्व न दे दी गयी हो।
राष्ट्रपति की वैवेकीय शक्तियाँ (Discretionary Power of the President)
अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। अनु. 74 में कहा गया है कि राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा। 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा अन. 74 में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करेगा। इस प्रकार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य कर दिया गया। किन्त 44वें संविधान संशोधन द्वारा अनु. 74 में पुनः संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह को एक बार पुनर्विचार के लिए वापस लौटा सकता है किन्त पनर्विचार पश्चात दी गयी सलाह को मानने के लिए वह बाध्य है। अनु.75 (3) में कहा गया है कि मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्रपति अपने सभी कार्य मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार ही करता है और इसी कारण वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है। राष्ट्रपति के कार्यों के लिए मंत्रिपरिषद लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। अतः कुछ संविधान विशेषज्ञ भारतीय राष्ट्रपति को ‘नाममात्र’ का प्रमुख, कठपुतली राष्ट्रपति या ‘रबर की मोहर’ की संज्ञा प्रदान करते हैं। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार भारतीय संविधान में राष्ट्रपति की वही स्थिति है जो ब्रिटिश संविधान में सम्राट की है। वह राष्ट्र का प्रधान है, कार्यपालिका का नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, शासन का नहीं। वह साधारणतया मंत्रियों की सलाह मानने को बाध्य होगा। वह मंत्रियों की सलाह के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता है और न मंत्रियों की सलाह के बिना ही कुछ कर सकता है। इस प्रकार भारत का संविधान राष्ट्रपति को स्पष्टतः कोई वैवेकीय शक्ति प्रदान नहीं करता है; किन्तु संवैधानिक परम्परा के अनुसार राष्ट्रपति अधोलिखित वैवेकीय शक्तियों (Discretionary Power) “का प्रयोग करता है।
(i) यदि लोक सभा चुनाव में खण्डित जनादेश (Broken Mandate) प्राप्त होता है तो राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति में अपने विवेक का प्रयोग करता है और सामान्यतया ऐसे दल या गठबन्धन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है जो उसकी राय में सदन में विश्वास मत प्राप्त कर सकता है।
(ii) सामान्यतया मंत्रिपरिषद की सलाह पर राष्ट्रपति लोक सभा का विघटन (Dissolution) कर देता है; किन्तु यदि कोई सरकार लोकसभा में अपना बहुमत खो देती है अथवा उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है और मंत्रिपरिषद लोकसभा के विघटन की सिफारिश करती है तो राष्ट्रपति ऐसी सिफारिश को मानने के लिए बोध्य नहीं है। यहाँ वह स्वविवेकानुसार कार्य करता है।
(iii) यदि प्रधानमंत्री का आकस्मिक निधन हो जाता है तथा सत्ताधारी पार्टी किसी व्यक्ति को अपना नया नेता नहीं चुन पाती है तो राष्ट्रपति अपने विवेक से सत्ताधारी पार्टी के किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त … कर सकता है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के पश्चात ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई थी।
(iv) ऐसी स्थिति में जबकि मंत्रिपरिषद ने लोकसभा में अपना विश्वास खो दिया हो किन्तु त्यागपत्र देने को तैयार न हो तो राष्ट्रपति स्वविवेक से सरकार को बर्खास्त कर सकता है।
(v) अनु. 74 के तहत् मंत्रिपरिषद की सलाह को तथा अनु. 111 के तहत् संसद द्वारा पारित विधेयक को आपत्तियों सहित पुनर्विचार के लिए वापस करने में भी राष्ट्रपति अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करता है। जब वह विधेयक पर अनुमति देता है या रोक लेता है।
अथवा जेबी बीटो (Pocket Vito) का प्रयोग करता है तब भी अपने विवेक का प्रयोग करता है, क्योंकि वह स्वविवेक से ही विधेयक पर अनुमति देने या न देने या पुनर्विचार हेतु वापस भेजने या कुछ भी न करने (जेबी बीटो) का निर्णय करता है।
(vi) राष्ट्रपति अनु0 86(2) के तहत संसद को संदेश भेज सकता है। संसद को संदेश भेजने की यह शक्ति राष्ट्रपति की वैवेकीय शक्ति है।
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