वायुमंडल किसे कहते हैं
वायुमंडल पृथ्वी के चारों ओर हवा के विस्तृत भंडार को कहते हैं हैं। यह सौर विकिरण की लघु तरंगों को पृथ्वी के धरातल तक आने देता है, परन्तु पार्थिव विकिरण की लंबी तरंगों के लिए अवरोधक बनता है। इस प्रकार यह ऊष्मा को रोककर विशाल ग्लास हाउस’ की भांति कार्य करता है, जिससे पृथ्वी पर औसतन 15°C तापमान बना रहता है। यही तापमान पृथ्वी पर जीवमंडल के विकास का आधार है।
वायुमंडल के संघटन
वायुमंडल संघटन अनेक गैसों का मिश्रण है जिसमें ठोस और तरल पदार्थों के कण असमान मात्राओं में तैरते रहते हैं। नाइट्रोजन सर्वाधिक मात्रा में है। उसके बाद क्रमशः ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बन-डाई ऑक्साइड, नियॉन, हीलियम, ओजोन व हाइड्रोजन आदि गैसों का स्थान आता है। इसके अलावा जलवाष्प, धूल के कण तथा अन्य अशुद्धियाँ भी असमान मात्रा में वायुमंडल में मौजूद रहती है। संसार की मौसमी दशाओं के लिए जलवाष्प, धूल के कण तथा ओजोन अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विभिन्न गैसों की 99% भाग मात्र 32, किमी. की ऊँचाई तक सीमित है जबकि धूलकणों व जलवाष्प का 90% भाग अधिकतम 10 किमी. की ऊँचाई तक ही मिलता है।
नाइट्रोजन (78%) :-
यह वायुमंडलीय गैसों का सर्वप्रमुख भाग है। लेग्यूमिनस पौधे वायुमंडलीय नाइट्रोजनी पोषक तत्वों की पूर्ति करते हैं।
ऑक्सीजन (21%) :
यह मनुष्यों व जन्तुओं के लिए प्राणदायिनी गैस है। पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण क्रिया के द्वारा इसे वायुमंडल में छोड़ते हैं।
आर्गन (0.93%) :
यह एक अक्रिय गैस है। इसके अलावा वायुमंडल में हीलियम, निऑन, क्रिप्टन, जेनन जैसी अक्रिय गैसें भी अल्प मात्रा में मौजूद रहती हैं।
कार्बन डाइऑक्साइड (0.03%) :
यह एक भारी गैस है। सौर विकिरण के लिए यह पारगम्य है, किन्तु पार्थिव विकिरण के लिए अपारगम्य है। इस प्रकार यह वायुमंडल में ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करती है। इसकी बढ़ती मात्रा से तापमान में वृद्धि होती है। क्योटो प्रोटोकौल (1997 ई.) के द्वारा इसकी मात्रा में कमी किए जाने के बारे में वैश्विक सहमति बनी है।
ओजोन :
यद्यपि वायुमंडल में इसकी मात्रा बहुत कम होती है परंतु यह वायुमंडल का एक महत्वपूर्ण घटक है। यह एक छन्नी की भांति कार्य करता है और सूर्य की पराबैंगनी किरणों के विकिरण को अवशोषित कर लेता है। यदि ये किरणें सतह तक पहुँच जाती तो तापमान में तीव्रवृद्धि व चर्म कैंसर का खतरा उत्पन्न हो जाता। यह गैस समताप मंडल के निचले भाग में पायी जाती है। 15 से 35 किमी. की ऊँचाई पर यह सघनता से पाया जाता है।
जेट वायुयानों से निसृत नाइट्रोजन ऑक्साइड, एयरकंडीशनर, रेफ्रिजेरेटर आदि में प्रयुक्त व निसृत क्लोरो फ्लोरो कार्बन इसकी परत को नुकसान पहुंचाता है। एक अनुमान के अनुसार यदि 500 सुपरसोनिक जेट का एक दल प्रतिदिन उड़ान भरता है, तो ओजोन परत में 12% तक हास हो सकता है। ओजोन परत को क्षरित होने से बचाने के लिए मांट्रियल प्रोटोकॉल (1987 ई.) पर सहमति बनी है एवं इसके लिए निरंतर अंतर्राष्ट्रीय प्रयास हो रहे हैं।
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जलवाष्प :
वायुमंडल में प्रति इकाई आयतन में इसकी मात्रा 0 से 4% तक होती है। उष्णार्द्र क्षेत्रों में यह 4% तक एवं मरूस्थलीय व ध्रुवीय प्रदेशों में अधिकतम 1% तक पायी जाती है। ऊँचाई के साथ जलवाष्प की मात्रा में कमी आती है। जलवाष्प की कुल मात्रा का आधा भाग 2,000 मी. की ऊँचाई तक मिलता है। विषुवत रेखा से ध्रुवों की ओर जलवाष्प की मात्रा में कमी आती है। कार्बन डाइऑक्साइड की तरह ही जलवाष्प भी ग्रीनहाउस – प्रभाव उत्पन्न करता है व विकिरण ऊष्मा को सुरक्षित रखता है। यह ठोस, द्रव्य व गैस तीनों अवस्था में पाया जाता है। जलमंडल का कुल 0.035% वायुमंडल में सुरक्षित है।
धूलकण :
इनमें मुख्यतः समुद्री नमक, सूक्ष्म मिट्टी, धुएँ की कालिख, राख, पराग, धूल तथा उल्कापात के कण शामिल होते हैं। ये मुख्यतः वायुमंडल के निचले स्तर अर्थात् क्षोभमंडल में पाए जाते हैं। ध्रुवीय और विषुवतीय प्रदेशों की अपेक्षा उपोष्ण तथा शीतोष्ण क्षेत्रों में धूल के कणों की मात्रा अधिक मिलती है। ये धूलकण आर्द्रताग्राही (Hygroscopic) या संघनन (Condensation Nuclei) केन्द्र होते हैं,
जहाँ वायुमंडलीय जलवाष्प संघनित होकर वर्षण के विभिन्न रूपों की उत्पत्ति का कारण बनते हैं। धूल के कण सूर्यातप को रोकने और उसे परावर्तित करने का कार्य भी करते हैं। ये सूर्योदय और सूर्यास्त के समय प्रकाश के प्रकीर्णन (Scattering) द्वारा आकाश में लाल व नारंगी रंग की धाराओं का भी निर्माण करते है। धूलयुक्त कुहरा भी धूलकणों की उपस्थिति में बना घना धुंध ही है।
वायुमंडल की 80 किमी. की मोटाई में गैसों का मिश्रण लगभग एक सा रहता है। अतः इसे सममंडल (Homosphere) भी कहा जाता है। उसके बाद नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हीलियम व हाइड्रोजन की अलग-अलग आण्विक परतें मिलती हैं। इसीलिए इसे विषम मंडल (Hetrosphere) भी कहा जाता है।

वायुमंडल की परतें
यद्यपि वायुमंडल का विस्तार लगभग 10,000 किमी. की ऊँचाई तक मिलता है, परंतु वायुमंडल का 99% भार सिर्फ 32 किमी. तक सीमित । है। वायुमंडल को 5 विभिन्न संस्तरों में बाँटकर देखा जा सकता है।
क्षोभमंडल (Troposphere) :
ध्रुवों पर यह 8 किमी. तथा विषुवत रेखा पर 18 किमी. की ऊँचाई तक पाया है। इस मंडल में प्रति 165 मीटर की ऊँचाई पर 1°C तापमान घटता है) तथा प्रत्येक किमी. की ऊँचाई पर तापमान में औसतन 6.5°C की कमी आती है। इसे ही सामान्य ताप पतन दर (Normal Lapse Rate) कहा जाता है। वायुमंडल में होने वाली समस्त मौसमी गतिविधियाँ क्षोभ मंडल में ही पाई जाती हैं।) क्षोभसीमा के निकट चलने वाली अत्यधिक तीव्र गति के पवनों को जेट पवन (Jet Streams) का जाता है।
समतापमंडल (Stratosphere) :
इस मंडल में प्रारम्भ में तापमान स्थिर होता है, परन्तु 20 किमी. की ऊँचाई के बाद तापमान में अचानक वृद्धि होने लगता है। ऐसा ओजोन गैसों की उपस्थिति के कारण होता है, जो कि पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर तापमान बढ़ा देता है। यह मंडल मौसमी हलचलों से मुक्त होता है, इसलिए वायुयान चालक यहाँ विमान उड़ाना पसंद करते हैं।
मध्यमंडल (Mesophere) :
इस मंडल की ऊँचाई 50 से 80 . किमी. तक होती है। इसमें तापमान में एकाएक गिरावट आ जाता है। मध्य सीमा पर तापमान गिरकर -100°C तक पहुँच जाता है, जो वायुमंडल का न्यूनतम तापमान है।
आयन मंडल (lonosphere) :
इसकी ऊँचाई 80-640 कि.ना के मध्य है। इसमें विद्यत आवेशित कणों की अधिकता होता । ऊँचाई के साथ तापमान बढ़ने लगता है। वायुमंडल की इसी परत से विभिन्न आवृति की रेडियो तरंगें परावर्तित होती हैं। आयन मंडल कई परतों में बँटा हुआ है। ये निम्न हैं:
D-Laver :
इससे दीर्घ तरंग दैर्ध्य अर्थात् निम्न आवृति की रेडियो तरंगें परावर्तित होती हैं।
E-Layer :
इसे केनेली-हीविसाइड (Kennely-heaviside) परत भी कहा जाता है। इससे मध्यम व लघु तरंग दैर्ध्य अर्थात् मध्यम व उच्च आवृति की रेडियो तरंगें परावर्तित होती है। यहाँ ध्रुवीय प्रकाश (Aurora light) की उपस्थिति होती है। ये उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश (Aurora Borealis) एवं दक्षिणी ध्रुवीय प्रकाश (Aurora Australis) के रूप में मिलती है
F-Layer :
इसे एपलेटन (Appleton) परत भी कहा जाता है। इससे मध्यम व लघु तरंग-दैर्ध्य अर्थात् मध्यम व उच्च आवृति की रेडियो तरंगें परिवर्तित होती है।
G-Layer :
इससे लघु, मध्यम व दीर्घ सभी तरंग दैर्ध्य अर्थात् निम्न, मध्यम सभी आवृति की रेडियो तरंगें परावर्तित होती है। बाह्यमंडल (Exosphere) : इसकी ऊँचाई 640-1,000 कि.मी. के मध्य है। इसमें भी विद्युत आवेशित कणों की प्रधानता होती है एवं यहाँ क्रमश: N., O,, He, H, की अलग-अलग परतें होती हैं। इस मंडल में 1,000 किमी. के बाद वायुमंडल बहुत ही विरल हो जाता है और अंततः 10,000 किमी. की ऊँचाई के बाद यह क्रमशः अंतरिक्ष में विलीन हो जाता है।
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सूर्यातप तथा तापमान
सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है एवं उसकी पृथ्वी से औसत दरी 15 करोड़ किमी. है। सूर्य की किरणें इस दूरी को 3 लाख किमी. प्रति सेकंड (1,86,000 मील प्रति सेकंड) की दर से पूरा करती है। सूर्य के क्रोड में हाइड्रोजन के परमाणु निरंतर नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) के द्वारा हीलियम के परमाणु में बदलते रहते हैं, जिससे अपार ऊर्जा मुक्त होती है। सूर्य की बाहरी सतह (फोटोस्फेयर) पर 6000°C तापमान होता है।
सूर्य लगातार अंतरिक्ष मैं अपनी ऊष्मा का विकिरण करता रहता है, जिसे सौर विकिरण कहते हैं। ये विकिरण लघु तरंगों के रूप में पृथ्वी तक पहुँचती है। पृथ्वी सौर विकिरण का मात्र दो अरबवाँ हिस्सा (0.0005%) ही रोक पाती है। पृथ्वी पर पहुँचने वाली सौर विकिरण को सूर्यातप (Solar Insolation) कहते हैं।
पृथ्वी का धरातल इस विकिरित ऊर्जा को दो कैलोरी प्रति वर्ग सेमी. प्रति मिनट या दो लैंजली (2 Cal/Cm2/min.) की दर से प्राप्त करता है। इसे सौर–स्थिरांक (Solar Constant) भी कहते हैं। वायुमंडल के बाह्य संस्तर तक पहुँचनेवाली कुल सौर विकिरण का मात्र 51% ही पृथ्वी के धरातल तक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पहुँच पाता है। यही विकिरण हमारी पृथ्वी पर औसत-15°C तापमान बनाए रखती है एवं हमारे जीवमंडल के विकास का आधार तैयार करती है। पृथ्वी पर सूर्यातप की मात्रा और प्रति इकाई क्षेत्रफल पर उसकी प्राप्ति मुख्यतः तीन कारकों द्वारा निर्धारित होती है
- धरातल पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों का झुकाव
- 2. दिन की लंबाई अथवा धूप की अवधि
- वायुमंडल की पारगम्यता
साधारण नियम के अनुसार जब पृथ्वी सूर्य से न्यूनतम दूरी पर होती है, उस समय अधिकतम ताप तथा अधिकतम दूरी होने पर न्यूनतम ताप मिलना चाहिए। परन्तु उ. गोलार्द्ध में वास्तविकता इसके ठीक विपरीत होती है। वास्तव में दिन की अवधि तथा सूर्य की किरणों के तिरछेपन के प्रभाव के आगे यह उपादान नगण्य हो जाता है। सौर कलंकों की संख्या के अधिक होने पर भी सूर्यातप की मात्रा भी अधिक हो जाती है।
प्रकाश की किरणें जब वायुमंडल से होकर गुजरती है तो उसका प्रकीर्णन, परावर्तन तथा अवशोषण होता रहता है। आकाश का नीला रंग एवं सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूर्य की लालिमा प्रकीर्णन के कारण ही होती है। अवशोषण की क्रिया मुख्य रूप से जलवाष्प तथा ओजोन गैसों द्वारा होती हैं। ओजोन गैस की परत सूर्य के पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है।
तापमान में विषमता के कारण
पृथ्वी पर तापमान के वितरण में काफी विषमता है। उदाहरण के लिए लीबिया का ‘अल-अजीजिया’ विश्व का सबसे गर्म प्रदेश है जहाँ पर अधिकतम तापमान 58°C मिलता है तो सबसे अधिक ठंड अंटार्कटिका के “वोस्टाक.’ (vostak) में पड़ती है, जहाँ तापमान -87.5°C तक गिर जाता है। अधिकतम औसत वार्षिक तापमान “इथियोपिया के ‘डलोफ’ (35°C) में है जबकि न्यूनतम वार्षिक तापमान अंटार्कटिका के ‘पोल ऑफ कोल्ड’ (-58°C) में मिलता है। तापमान में विषमता के निम्न कारणं हैं
अक्षांशीय वितरण :
उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में सूर्यातप की वार्षिक मात्रा सबसे अधिक होती है एवं ध्रुवों की ओर क्रमशः इसकी मात्रा में कमी आती है। 45° अक्षांशों पर यह मात्रा विषुवत रेखा की तुलना में 75% रह जाती है; आर्कटिक और अंटार्कटिक रेखाओं पर यह 50% और ध्रुवों पर 40% होती है।
ऊँचाई :
ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान में गिरावट आती है। क्षोभमंडल में प्रति 165 मी. की ऊँचाई पर 1°C तापमान घटता है। प्रति किमी. की ऊँचाई पर औसतन 6.5°C की गिरावट आती है। उदाहरण के लिए, किलिमंजारो पर्वत विषुवत रेखा पर है परन्तु अधिक ऊँचाई पर स्थित होने के कारण यह हिमाच्छादित प्रदेश है। इसी प्रकार गुआंगझाऊ (चीन) व कोलकाता दोनों एक ही अक्षांश पर है, परन्तु दोनों के तापमान में ऊँचाई की भिन्नता के कारण काफी अंतर है।
स्थल व जल का प्रभाव :
स्थल की एक इकाई मात्रा की तुलना में जल की एक इकाई का तापमान बढ़ाने के लिए ढाई गुणा ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। जल देर से गर्म होता है एवं देर से ठंडा होता है जबकि स्थल पर यह प्रक्रिया तेज होती है। इसलिए महासागरों की अपेक्षा स्थलखंडों पर तापांतर अधिक होता है।
समुद्री धाराएँ :
इन धाराओं का निकटवर्ती स्थलीय भागों के तापमान पर प्रभाव पड़ता है। गर्म धाराएँ समुद्र तटीय भागों के तापमान को बढ़ा देती हैं जबकि ठंडी धाराओं के प्रभाव के फलस्वरूप तापमान में गिरावट आती है। उदाहरण के लिए गर्म समुद्री धारा गल्फस्ट्रीम का विस्तार उत्तरी अटलांटिक प्रवाह समस्त पश्चिमी यूरोपीय भाग को शीतकाल में भी अपेक्षित तापमान प्रदान करता है जिससे उनके बंदरगाह सालों भर खुले रहते हैं तथा मौसम सुहावना हो जाता है। इसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट पर बहने वाली ठंडी बेंगुएला धारा तटीय भाग के तापमान में कमी लाती है।
प्रचलित वायु :
ठंडी पवनें तापमान में तीव्र गिरावट लाती हैं जबकि गर्म पवनें तापमान में वृद्धि करती हैं। उदाहरणतः मिस्ट्रल पवन फ्रांस के तापमान को हिमांक तक गिरा देती है जबकि शिनूक पवन यू.एस.ए, के तापमान को बढ़ाती है, जिससे बर्फ पिघल जाती है।
वायुमण्डल का शीतलन और उष्मन
सूर्य से ताप पृथ्वी तक आता है और पार्थिव ऊर्जा (Terrestrial Energy) में बदल जाता है, फिर यही पार्थिव ऊर्जा वायुमण्डल के ताप का निर्धारण करती है। जब यह पार्थिव ऊर्जा ज्यादा होती है, तो वायुमण्डल गर्म हो जाता है और इसके कम होने पर वायुमंडल ठंडा हो जाता है। वायुमण्डल के तापमान परिवर्तन अथवा उसके शीतल और गर्म होने की प्रक्रिया में निम्नलिखित चार तत्वों का योग होता है
1. सूर्यातप (Insolation)
2. संचालन (Conduction)
3. विकिरण (Radiation) 3. संवहन (Convection)
सूर्यातप या सूर्य से प्राप्त प्रत्यक्ष ताप :
सूर्य से वायुमंडल को प्रत्यक्ष ताप बहुत कम मिल पाता हैं इसलिए वायुमण्डल के ताप परिवर्तन में इसका महत्व बहुत कम होता है।
संचालन :
जिस प्रकार लोहे की छड़ को एक छोर से गर्म किया जाता है तो धीरे-धीरे दूसरा छोर भी गर्म हो जाता है, लेकिन यह दूसरा छोर अपेक्षाकृत कम गर्म हो पाता है। ठीक यही प्रक्रिया वायुमण्डल में होती है। दिन में जैसे-जैसे पृथ्वी का धरातल सूर्यातप से गर्म होता जाता है, वैसे-वैसे धरातल के सम्पर्क में अपने वाला वायुमण्डल भी गर्म होता रहता है। जब धरातल का ताप घटने लगता है तो धरातलीय वायुमण्डल का ताप भी घटने लगता है। इसी क्रिया को संचालन कहते हैं, इसमें एक अणु स्पर्श द्वारा दूसरे अणु को गर्म कर देता है।
विकिरण :
गर्म पानी या दूध को थोड़ी देर के लिए खुला रख दिया जाए, तो उसमें से तरंगें निकलती हैं और कुछ देर बाद वह ठंडा हो जाता है, यही क्रिया विकिरण कहलाती है। गर्म पृथ्वी से ताप विकिरण द्वारा वायुमण्डल में चला जाता है। वायुमंडल में यदि बादल, धूलकण आदि होते हैं तो यह ताप निचली सतह में ही रह जाता है, अन्यथा यह धरातल से बहुत ऊँचा चला जाता है। गर्म मरुस्थलों में आकाश स्वच्छ रहता है, इसलिए विकिरण से प्राप्त ताप बहुत ऊपर चला जाता है और रातें ठंडी प्रतीत होती हैं जबकि अन्य क्षेत्रों में बादल आदि रहते हैं जिससे ताप निचली सतह में ही रहता है और गर्मी का अनुभव होता है।
संवहन :
जब संचालन और विकिरण क्रिया द्वारा किसी स्थान की वायु गर्म हो जाती है, तो वह हल्की होकर ऊपर उठती है और खाली जगह को भरने के लिए आस-पास से भारी एव ठंडी हवा नीचे आ जाती है। ठंडी और गर्म हवा के इस प्रकार ऊपर नीचे होने की क्रिया को ही संवहन कहते हैं। इस प्रक्रिया के द्वारा वायुमण्डलीय तापमान में परिवर्तन होता रहता है।
दैनिक तापान्तर
दिन के उच्चतम एवं रात्रि के न्यूनतम तापमान के अन्तर को दैनिक तापान्तर कहते हैं। उदाहरण के लिए, दिन का उच्चतम तापमान 36°C है, और रात का न्यूनतम 30°C तो तापान्तर (36°-30° = 6°C) हुआ। सूर्योदय के साथ तापमान बढ़ने लगता है और सूर्यास्त के साथ घटने लगता है। दोपहर में 12 बजे सूर्य की किरणें सीधी चमकती है, इसलिए इसी समय सर्वाधिक गर्मी पड़ना चाहिए, लेकिन उच्चतम तापमान 2 से 4 बजे तक रहता है।
इसका कारण यह है कि धरातल पर जाने वाले सौर ताप को पार्थिव ऊर्जा (Terrestrial Energy) में बदलने में समय लगता है। दूसरे शब्दों में 12 बजे अधिकतम सूर्यातप (Insolation) प्राप्त होता है लेकिन उसके विकिरण में 2-4 घंटे लग जाते हैं, जिसके बाद ही उच्चतम ताप अंकित होता है। भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में सूर्य की किरणें सालों भर सीधी पड़ती है, इसलिए दैनिक तापांतर अधिक होता है।
जैसे-जैसे ध्रुवों की ओर जाते हैं, सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने लगती हैं। इससे दैनिक तापांतर भी घटता जाता है। दैनिक तापान्तर की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं- पर 1. समुद्र के किनारे के भागों पर दैनिक तापान्तर कम होता है।
2. समुद्र से जैसे-जैसे दूर जाते हैं, तापान्तर बढ़ता जाता है।
3. मैदानी भागों की अपेक्षा पहाड़ी भागों में तापान्तर अधिक होता है।
4. गर्म एवं शुष्क मरुस्थलों एवं बर्फ से ढके क्षेत्रों में तापान्तर अधिक होता है।
5. यदि आकाश में बादल हों तो भी तापान्तर कम होता है।
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वार्षिक तापांतर
एक वर्ष के अधिकतम और न्यूनतम ताप के अन्तर को वार्षिक तापान्तर कहते हैं। उदाहरण के लिए कर्क रेखा पर जनवरी में न्यूनतम तापमान और मई-जून में अधिकतम तापमान होता है। जनवरी और मई के अधिकतम ताप के अंतर को वार्षिक तापान्तर कहेंगे।
पृथ्वी अपने अक्ष पर 231/2° सूर्य की ओर झुकी है। झुके होने के कारण सूर्य 6 माह उत्तरी भाग में (उत्तरायण) और 6. माह दक्षिणी भाग (दक्षिणायण) में सीधा चमकता है, इसलिए ऋतु परिवर्तन होता है। कर्क रेखा पर जून में सीधी किरणें पड़ती हैं और दिसम्बर में मकर रेखा पर सीधी किरणें पड़ती है। इससे जून में कर्क रेखा पर ग्रीष्म ऋतु (Summer) और दिसम्बर-जनवरी में शीत ऋतु (Winter) होती है। इसके विपरीत मकर रेखा पर दिसम्बर-जनवरी में ग्रीष्म ऋतु और जून में शीत ऋतु होती है। इन गर्म महीनों के उच्चतम ताप और ठंडे महीनों के निम्नतम ताप का अन्तर वार्षिक तापान्तर कहलाता है। वार्षिक तापान्तर की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
- भूमध्य रेखीय क्षेत्रों में साल भर तापमान एक सा रहता है, इससे वार्षिक तापान्तर बहुत कम होता है।
- 2. समुद्र तटीय क्षेत्रों में साल भर एक समान ताप रहने के कारण तापांतर कम रहता है।
- 3. उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल भाग की अधिकता के कारण वार्षिक तापांतर अधिक है जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में जलीय भाग की अधिकता के कारण वार्षिक तापान्तर कहते है।
तापमान का अक्षांशीय वितरण
पृथ्वी पर तापमान के अक्षांशीय. वितरण को समताप रेखाओं, (Isotherms) द्वारा दर्शाया जाता है। यह वह कल्पित रेखा है, जो समान तापमान वाले स्थानों को मिलाती है। समताप रेखाओं की परस्पर दूरी ताप प्रवणता (Tempetature Grndiant) को बताती है, जिसका अर्थ है तापातर दर की तीव्रता समीप स्थित समताप रेखाएँ तापांतर की ऊँची दर को बताता है और यदि समताप रेखाएँ दूर-दूर हो तो यह तापांतर की धीमी दर को दर्शाता है। उत्तरी गोलार्द्ध में स्थलखंडों के विस्तार के कारण समताप रेखाएँ अनियमित और पास-पास होती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में समताप रेखाएँ अपेक्षाकृत अधिक नियमित और दूर-दूर होती हैं।
ऊष्मा बजट
सूर्यातप और पार्थिव विकिरण में संतुलन के कारण पृथ्वी पर औसत तापमान एक समान रहता हैं। इस संतुलन को ही पृथ्वी का ऊष्मा बजट कहते है। ऊष्मा की कुल 100 इकाइयों में 35 इकाइयाँ पृथ्वी के धरातल पर पहुँचने के पहले ही अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं। इनमें से 6 इकाइयाँ वायुमंडल की ऊपरी परत से परावर्तन व प्रकीर्णन द्वारा, 27 इकाइयाँ बादलों के ऊपरी छोर से तथा 2 इकाइयाँ मुख्यतः पृथ्वी के हिमाच्छादित क्षेत्रों द्वारा परावर्तित होकर लौट जाती हैं। सौर विकिरण के इस परावर्तित भाग को ‘पृथ्वी का एल्बिडो’ कहते हैं। शेष 65 इकाइयाँ अवशोषित होती है।
उनमें 14 इकाई वायुमंडल में तथा 51 इकाई पृथ्वी के धरातल द्वारा अवशोषित की जाती है। पृथ्वी द्वारा अवशोषित 51 इकाइयाँ पुनः पार्थिव या भौमिक विकिरण (Teresterial radiation) द्वारा लौटा दी जाती है। इनमें से 17 इकाइयाँ सीधे अंतरिक्ष में लौट जाती है जबकि 34 इकाइयाँ वायुमंडल में प्रत्यक्ष पार्थिव विकिरण, तापीय संवहन व ऊष्मा विक्षोभ, वाष्पीकरण व संघनन की गुप्त ऊष्मा के द्वारा अवशोषित कर ली जाती है।
अंततः वायुमंडल भी सौर विकिरण से प्राप्त 14 इकाइयों व पार्थिव विकिरण से प्राप्त 34 इकाइयों अर्थात् कुल 48 इकाइयों से अंतरिक्ष में वापस कर देता है। अतः पृथ्वी के धरातल व वायुमंडल से लौटने वाली विकिरण की इकाइयाँ क्रमश: 17 और 48 यानि कुल 65 हैं। इस प्रकार सूर्य से प्राप्त होने वाली 65 इकाइयाँ का संतुलन हो जाता है। इसे ही पृथ्वी का ऊष्मा बजट या ऊष्मा संतुलन कहते हैं।
वायुमंडल किसे कहते हैं
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