हड़प्पा सभ्यता-Hardppa sabhyata
भौगोलिक विस्तार
इस संस्कृति का उदय ताम्रपाषाणिक पृष्ठभूमि में भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ। हड़प्पा सभ्यता कांस्ययुगीन एवं संस्कृति ताम्रपाषाणिक (प्राक् हड़प्पन) है। इसका नाम हड़प्पा संस्कृति पड़ा, क्योंकि इसकी जानकारी सबसे पहले 1921 ई. में पाकिस्तान में अवस्थित हड़प्पा नामक आधुनिक स्थल से प्राप्त हुई थी।
भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक जॉन मार्शल के निर्देशन म रायबहादुर दयाराम साहनी ने 1921 ई. में हड़प्पा की एवं राखालदास बनर्जी ने 1922 ई. में मोहनजोदड़ो की खुदाई करवायी। परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का केन्द्र पंजाब और सिंध में, मुख्यतः सिंधु घाटी में पड़ता है। यहीं से इसका विस्तार दक्षिण और पूर्व की ओर हुआ।
हड़प्पा संस्कृति के अंतर्गत पंजाब, सिंध और बलूचिस्तान के भाग ही नहीं बल्कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमांत भाग भी सम्मिलित थे। इसका फैलाव उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान तट से लेकर पूर्व में मेरठ तक था।
काल निर्धारण
सैन्धव सभ्यता की तिथि को निर्धारित करना भारतीय पुरातत्व का विवादग्रस्त विषय है। यह सभ्यता आरम्भ से ही विकसित रूप में दिखाई पड़ती है तथा इसका पतन भी आकस्मिक प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है।
इस क्षेत्र में सर्वप्रथम प्रयास जॉन मार्शल का रहा है। उन्होंने 1931 ई. में इस सभ्यता की तिथि लगभग 3250 ई.पू. से 2750 ई. निर्धारित किया।

रेडियो कार्बन-14 (C14) जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2350 ई.पू. से 1750 ई.पू. माना गया है जो सर्वाधिक मान्य है।
हड़प्पा के चार भौगोलिक स्थल
माण्डा
यह स्थल अखनूर जिले में चिनाब नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है। यह विकसित हड़प्पा सभ्यता का सर्वाधिक उत्तरी स्थल है। इसका अरब सार उत्खनन 1982 ई. में जगपति जोशी व मधुबाला ने करवाया था। माण्डा में तीन सांस्कृतिक स्तर-प्राक् सैन्धव, विकसित सैन्धव एवं उत्तर सैन्धव हैं।
आलमगीरपुर
यह स्थल मेरठ जिले में हिंडन नदी (यमुना की सहायक) के तट पर स्थित है। इस स्थल की खोज 1958 ई. में भारत सेवक समाज संस्था द्वारा की गई थी। इसका उत्खनन कार्य यज्ञदत्त शर्मा द्वारा किया गया था। यह सिंधु सभ्यता का सर्वाधिक पूर्वी स्थल है।
दैमाबाद
यह स्थल महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के बायें किनारे पर स्थित है। दैमाबाद सैंधव सभ्यता का सबसे दक्षिणी . स्थल है।हड़प्पा सभ्यता
सुत्कांगेडोर
यह दाश्क नदी के किनारे स्थित हड़प्पा सभ्यता का सबसे पश्चिमी स्थल है। इसकी खोज 1927 ई. में सर मार्क ऑरेल स्टाइन ने की थी। हड़प्पा संस्कृति का सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार है तथा इसका क्षेत्रफल 1,299,600 वर्ग किमी. है। केवल सात सैन्धव स्थलों को नगर की संज्ञा दी गई है, जो निम्न हैं- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ो, लोथल, कालीबंगा, बनावली और धौलावीरा। पंजाब में हड़प्पा और सिंध में मोहनजोदड़ो (अर्थात् मृतकों का टीला) दोनों पाकिस्तान में पड़ते हैं। दोनों एक दूसरे से 483 किमी. दूर स्थित थे तथा सिंधु नदी द्वारा जुड़े हुए थे।
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नगर योजना और संरचनाएँ
हड़प्पा संस्कृति की प्रमुख विशेषता इसकी नगर योजना प्रणाली थी। हडप्पा और मोहनजोदड़ो दोनों नगरों के अपने-अपने दुर्ग थे। जहाँ शासक वर्ग के लोग रहते थे। नगरों में बने भवनों के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल (ग्रिड) की तरह व्यवस्थित थे। सड़कें एक-दूसरे को समकोण बनाते हुए काटती थीं तथा नगर अनेक खंडों में विभक्त थे। • घरों का निर्माण एक सीध में सड़कों के किनारे व्यवस्थित रूप में किया जाता था। दरवाजे और खिड़कियाँ सड़क की ओर न खुलकर पीछे की ओर खुलते थे। भवन दो मंजिले भी थे। घरों में कई कमरे, रसोईघर, स्नानागार तथा बीच में आँगन की व्यवस्था थी।
मोहनजोदड़ो का सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल विशाल स्नानागार है। यह 11.88 मी. लम्बा, 7.01 मी. चौड़ा और 2.43 मी. गहरा है। इसमें उतरने के लिये उत्तर तथा दक्षिण की ओर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है| एवं इसके मध्य में स्नानकुंड स्थित था। इस विशाल स्नानागार का उपयोग सार्वजनिक रूप से धर्मानुष्ठान सम्बंधी स्नान के लिए होता था।
जॉन मार्शल ने विशाल स्नानागार को विश्व का आश्चर्यजनक निर्माण बताया था। यह जलपूजा का एकमात्र साक्ष्य है। . मोहनजोदड़ो में एक अन्नागार मिला है, जो 45.71 मीटर लम्बा और 15.23 मीटर चौड़ा है। मोहनजोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग सभी नगरों के प्रत्येक छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होते थे। हड़प्पा के दुर्ग में छह अन्नागार मिले हैं, जो ईंटों के बने चबूतरों पर दो पंक्तियों में खड़े हैं। प्रत्येक अन्नागार 15.23 मीटर लम्बा और 6.09 मीटर चौड़ा है। कालीबंगा के अनेक घरों में कुएँ पाये गये हैं। घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता था, जहाँ इनके नीचे मोरियाँ बनी हुई थीं। ये मोरियाँ ईंटों और पत्थरों की तख्तियों से ढकी रहती थीं। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे (मेनहोल) भी बने थे।हड़प्पा सभ्यता
कृषि
वर्तमान में सिंधु प्रदेश में पहले की अपेक्षा बहुत कम वर्षा होती है। इसलिए यह प्रदेश अब उतना उपजाऊ नही रहा। यहाँ के समृद्ध देहातों और नगरों को देखने से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में यह प्रदेश अत्यधिक उपजाऊ था। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी की गई पकी ईंटों की दीवारों से स्पष्ट होता है कि बाढ़ प्रत्येक वर्ष आती थी।हड़प्पा सभ्यता
सिंधु सभ्यता के लोग बाढ़ उतर जाने पर नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल महीने में गेहूँ और जौ की फसल काट लेते थे। कालीबंगा में प्राक् हड़प्पा काल के जो कँड़ (हलरेखा) देखे गए हैं, उनसे अनुमान लगाया जाता है कि हड़प्पा काल में राजस्थान में हल का प्रयोग होता था।हड़प्पा सभ्यता
सिंधु सभ्यता के लोग गेहूँ, जौ, राई, मटर आदि अनाज पैदा करते थे। उन्हें नौ प्रकार की फसलों का ज्ञान था। वे दो किस्म का गेहूँ और जौ उगाते थे। इसके अतिरिक्त वे तिल और सरसों भी उगाते थे। सबसे पहले कपास पैदा करने का श्रेय सिंधु सभ्यता के लोगों को जाता है। चूंकि कपास का उत्पादन सबसे पहले सिंधु क्षेत्र में हुआ, इसलिए यूनान के लोग इसे सिन्डन (Sindon) कहने लगे।
चावल के उत्पादन के साक्ष्य लोथल व रंगपुर से मिले हैं। गन्ना का कोई साक्ष्य नहीं मिला है। लोथल एवं सौराष्ट्र से बाजरे की खेती एवं रोजदी (गुजरात) से रागी के विषय में साक्ष्य मिले हैं। सिंधुवासी हल के प्रयोग से परिचित थे। कालीबंगा के प्राक् सिंधु काल के हल से जुते हुए खेत तथा उनमें सरसों की खेती के साक्ष्य मिले हैं।
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बहावलपुर जिले में स्थित चोलिस्तान व भारत के हरियाणा राज्य के फतेहाबाद जिले में स्थित बनावली से मिट्टी का बना हुआ खिलौना हल मिला था।
पशुपालन
हड़प्पाई लोग बैल, गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर पालते थ। इन्हें कूबड़ वाला साँड़ विशेष प्रिय था। इसके अतिक्ति ये गधे और ऊँट भी रखते थे। कुत्ते प्रारम्भ से ही पालतू जानवरों में थे। बिल्ली भी पाली जाती थी। कुत्ता और बिल्ली दोनों के पैरों के निशान मिले हैं। सिंधुवासी हाथी व घोड़े से परिचित तो थे, लेकिन वे उन्हें पालतू बनाने में सफल नहीं हो सके थे, क्योंकि हाथी व घोड़े पाये जाने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं
परन्तु पालने के साक्ष्य प्रमाणित नहीं हो सके हैं। घोड़े के अस्तित्व का संकेत मोहनजोदड़ो की ऊपरी सतह से तथा लोथल में मिली एक संदिग्ध मृणमूर्ति (टेराकोटा) से मिला है। हड़प्पा काल में गैंडा का प्रमाण (भारतीय गैंडा का एकमात्र प्रमाण) आमरी से मिला है। बंदर, भालू, खरहा आदि जंगली जानवरों का भी ज्ञान था। इसकी पुष्टि मुहरों, ताम्र तश्तरियों आदि पर अंकित इनके चित्रों से होती है। शेर का कोई साक्ष्य नहीं मिला है। गुजरात के पश्चिम में अवस्थित सुरकोटदा में घोड़े के अवशेषों के मिलने की पुष्टि हुई है। हड़प्पाई लोगों को हाथी का ज्ञान था और ये गैंडे से भी परिचित थे।हड़प्पाहड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यता सभ्यता
शिल्प और तकनीकी ज्ञान
हड़प्पाई लोग काँस्य के निर्माण और प्रयोग से भली-भाँति परिचित थे। सामान्यतः काँसा, ताँबे में टिन को मिलाकर धातु शिल्पियों द्वारा बनाया जाता था। ताँबा, राजस्थान की खेतड़ी के ताम्र-खानों से मंगाया जाता था। टिन अफगानिस्तान से मँगाया जाता था। •
हड़प्पाई स्थलों में जो काँसे के औजार व हथियार मिले हैं, उनमें टिन की मात्रा अत्यन्त कम है। हड़प्पा समाज के शिल्पियों में कसेरों (काँस्य-शिल्पियों) के समुदाय का महत्वपूर्ण स्थान था। मोहनजोदड़ो से बुने हुए सूती कपड़े का एक टुकड़ा मिला है तथा कई वस्तुओं पर कपड़े की छाप देखने में आई है। कताई के लिए तकलियों का इस्तेमाल होता था।
ईंटों की विशाल इमारतें दर्शाती है कि स्थापत्य (राजगीरी) महत्वपूर्ण शिल्प था। हड़प्पाई लोग नाव बनाने का काम भी करते थे। मिट्टी की मुहरें बनाना और मिट्टी की पुतलियाँ बनाना भी महत्वपूर्ण शिल्प थे। स्वर्णकार चाँदी, सोना और रत्नों के आभूषण बनाते थे। सोना, चाँदी संभवतः अफगानिस्तान से और रत्न दक्षिण भारत से आते थे। कुम्हार के चाक का अधिक प्रचलन था तथा हड़प्पाई लोगों के मृभांडों की अपनी प्रमुख विशेषताएँ थीं। ये मृदभाडों को चिकना और चमकीला बनाते थे।हड़प्पा हड़प्पा सभ्यतासभ्यताहड़प्पा सभ्यता
व्यापार
हड़प्पाई लोग सिंधु-सभ्यता क्षेत्र के भीतर पत्थर, धातु और हड्डी आदि का व्यापार करते थे। वे धातु के सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे। संभवतः वे सभी प्रकार के आदान-प्रदान विनिमय द्वारा करते हों। वे पहिया से परिचित थे तथा हड़प्पा में ठोस पहियों वाली गाड़ियाँ प्रचलित थीं। मोहनजोदड़ो से मिट्टी व काँसे की दो पहियों वाली खिलौना गाड़ी एवं चन्हुदड़ो से मिट्टी की चार पहियों वाली खिलौना गाड़ी मिली है। लोथल से अलवेस्टर पत्थर का एक बड़ा पहिया व बनावली से सड़कों पर बैलगाड़ी के पहिये के निशान मिले हैं।
उन्होंने उत्तरी अफगानिस्तान में अपनी वाणिज्यिक बस्ती स्थापित की थी, जिसकी सहायता से उनका व्यापार मध्य एशिया के साथ चलता था। बहुत-सी हड़प्पाई मुहरें मेसोपोटामिया की खुदाई में निकली हैं, जिससे प्रतीत होता है कि हड़प्पाई लोगों ने मेसोपोटामियाई नागरिकों के कई प्रसाधनों का अनुकरण किया है। हडप्पाई लोगों ने लाजवर्द मणि (लापिस लाजूली) का सुदूर व्यापार किया था।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर नाव के चित्रांकन व लोथल से पाप्त मिट्टी निर्मित खिलौना नाव से यह अनुमान होता है कि सिंधवासी आंतरिक व बाह्य व्यापार के लिए मस्तूल वाली नावों का उपयोग करते थे।हड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यता
सिंध सभ्यता के काल में पोत निर्माण एवं नावों द्वारा समद्री व्यापार होने की पुष्टि लोथल से प्राप्त गोदीबाड़ा के साक्ष्य से होती है।2350 ईसा पूर्व के आस-पास और उसके आगे के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मेलुहा के साथ व्यापारिक सम्बंध की चर्चा है। मेलुहा सिंधु क्षेत्र का प्राचीन नाम है। मेसोपोटामिया के पुरालेखों में दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्र का उल्लेख मिलता है- दिलमुन और माकन।
ये दोनों मेसोपोटामिया और मेलुहा के मध्य में स्थित थे। दिलमुन की पहचान फारस की खाड़ी के बहरीन से की जाती है। सारगोन के सुमेरियन लेख में बहरीन (दिलमुन) को उगते हुए सूरज का देश कहा गया है। मेसोपोटामिया से जल एवं थल दोनों मार्ग से व्यापार के प्रमाण मिले हैं। मिस्र से कम संपर्क रहा, किन्तु वहाँ से हड़प्पा प्रकार की गुड़िया प्राप्त हुई हैहड़प्पा सभ्यता
राजनीतिक संगठन
राजनीतिक संगठन हडप्पा कालीन राजनीतिक व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप के बारे में हमें कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। लेकिन हड़प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति (सत्ता) से संचालित होती थी। चूँकि हड़प्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे इसलिए माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था।हड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यता
सामाजिक जीवन
समाज की इकाई परम्परागत तौर पर परिवार थी। मातृदेवी की पूजा तथा मुहरों पर अंकित चित्र से यह परिलक्षित होता है कि हड़प्पा समाज सम्भवतः मातृसत्तात्मक था। नगर नियोजन दुर्ग, मकानों के आकार व रूपरेखा तथा शवों के दफनाने के ढंग को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि सैन्धव समाज अनेक वर्गों जैसे पुरोहित, व्यापारी, अधिकारी, शिल्पा एवं श्रमिकों में विभाजित रहा होगा। सैन्धव सभ्यता के लोग युद्ध प्रिय कम शान्ति प्रिय अधिक थे।हड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यता
सिन्धु सभ्यता के निवासी शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों थे। भोज्य पदार्थों में गेहूँ, जौ, मटर, तिल, सरसों, खजूर, तरबूज के साथ गाय, सूअर, बकरी और मछली आदि का मांस प्रमुख रूप से प्रयोग में लाया जाता था। वस्त्र सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के पहने जाते थे। आभूषणों का प्रयोग पुरुष एवं महिलाएँ दोनों करते थे। मनोरंजन के लिए पासे का खेल, नृत्य, शिकार, पशुओं की लड़ाई आदि प्रमुख साधन थे। धार्मिक उत्सव एवं समारोह समय-समय पर धूम-धाम से मनाये जाते थे। हड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यता
धार्मिक प्रथाएँ
हड़प्या में पकी मिट्टी की स्त्री-मूर्तियाँ बड़ी संख्या में मिली हैं। एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। यह संभवतः पृथ्वी देवी की प्रतिमा है तथा इसका निकट संबंध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा हो गया। इसलिए मालूम होता है कि हड़प्पाई लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिसे तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस् पूजा करते थे।हड़प्पा सभ्यता
सिंधु घाटी के पुरुष देवता
पुरुष देवता को एक मुहर पर चित्रित किया गया है। उसके सिर पर तीन सींग हैं। इसमें एक योगी को ध्यान मुद्रा में एक पैर पर दूसरा पैर रखकर बैठे हुए (पद्मासन मुद्रा) दिखाया गया है। उसके चारों ओर एक हाथी, एक बाघ और एक गैंडा है, आसन के नीचे एक भैंसा है तथा पैरों के पास दो हिरण हैं।
मुहर पर चित्रित देवता को पशुपति महादेव कहा गया है। सिन्धु सभ्यता में लिंग-पूजा का प्रचलन मिलता है, जो कालांतर में शिव की पूजा से गहन रूप से जुड़ गई थी। हड़प्पा में पत्थर पर बने लिंग और योनि के अनेक प्रतीक मिले हैं।हड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यता
वृक्षों और पशुओं की पूजा
सिधु क्षेत्र के लोग वक्ष-पजा करते थे। एक महर (सील) पर पीपल की डालों के बीच विराजमान देवता चित्रित हैं। हड़प्पाकाल में पशु-पूजा का प्रचलन था। कई मुहरों पर पशुओं की आकृतियाँ अंकित हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है एक सींग वाला जानवर (यूनीकॉर्न), जो गैंडा हो सकता है, उसके बाद कूबड़ वाला साँड़ है। गौपूजन का प्रमाण नहीं मिलता है।
सिंधु प्रदेश के निवासी वृक्ष, पशु और मानव के स्वरूप में देवताओं की पूजा करते थे, परन्तु वे अपने इन देवताओं के लिए मंदिर नहीं बनाते थे। हड़प्पाई लोग तावीज धारण करते थे। संभवतः हड़प्पाई लोग विश्वास करते थे कि भूत-प्रेत उनका अनिष्ट कर सकते हैं और इसीलिए उनसे बचने के लिए तावीज पहनते थे।
सैंधव नगरों की खुदाई से किसी भी मंदिर के अवशेष नहीं मिले हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर स्वास्तिक का अंकन सूर्य पूजा का प्रतीक माना जाता है। हिंदू धर्म में आज भी स्वास्तिक को पवित्र मांगलिक चिन्ह माना जाता है। इसे चतुर्भुज ब्रह्मा का रूप स्वीकार किया जाता है।हड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यता
हड़प्पाई लिपि
सिंधु लिपि के बारे में सर्वप्रथम विचार व्यक्त करने वाले व्यक्ति अलेक्जेंडर कनिंघम थे। कनिंघम ने 1873 ई. में विचार व्यक्त किया कि इस लिपि का सम्बंध ब्राह्मी लिपि से है। सिंधु लिपि को पढ़ने का सर्वप्रथम प्रयास 1925 ई. में एल.ए. वैडेल ने किया था। हड़प्पाई लिपि का सबसे पुराना साक्ष्य 1853 ई. में मिला था तथा 1923 ई. तक पूरी लिपि प्रकाश में आ गई, किन्तु वह अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है।
लिपि न पढ़े जाने के कारण साहित्य में हड़प्पाई लोगों का क्या योगदान रहा, कुछ कहा नहीं जा सकता। पत्थर की मुहरों और अन्य वस्तुओं पर हड़प्पाई लेखन के लगभग 4,000 नमूने हैं। इस लिपि में कुल मिलाकर 250 से 400 तक भावचित्रात्मक (पिक्टोग्राफ) अक्षर हैं तथा चित्र के रूप में लिखा प्रत्येक अक्षर किसी ध्वनि, भाव या वस्तु का सूचक है। इस लिपि में मछली, चिड़ियाँ, मानवाकृति आदि के चिन्ह मिलते हैं।
सिंधु लिपि के जो साक्ष्य मिले हैं, उनमें अधिकांशतः दायें से बायें लिखे मिले हैं (जैसी कि फारसी लिपि है), कुछ बायें से दायें लिखे मिले हैं (जैसी कि ब्राह्मी लिपि है) एवं कुछ में गोमूत्रिका लिपि का प्रयोग (कालीबंगा से प्राप्त ठीकरे से) मिला है। सामान्यतः माना जाता है कि सिंधु लिपि दायीं से बायीं ओर को लिखी जाती थी। सभी भारतीय लिपियाँ बायें से दायें लिखी जाती थीं। हड़प्पा लिपि वर्णात्मक नहीं बल्कि मुख्यतः चित्रलेखात्मक है।हड़हड़प्पा सभ्यताप्पा सभ्यता
माप-तौल
बाट के रूप में मनके एवं जवाहरात की बहुत-सी वस्तुएँ पाई गई हैं, जिनसे प्रकट होता है कि तौल में 16 या उसके आवर्तकों का व्यवहार होता था, जैसे 16, 64, 160, 320 और 640 आदि। हड़प्पाई लोगों को माप का ज्ञान था। ऐसे डंडे पाए गए हैं, जिन पर माप के निशान लगे हुए हैं। इनमें एक डंडा काँसे का भी है। मोहनजोदड़ो से सीप और लोथल से हाथी दाँत का बना एक स्केल मिला है। सुरकोटदा से तराजू का साक्ष्य मिला है।
मृद्भांड
हड़प्पाई लोग कुम्हार के चाक का उपयोग करने में अधिक कुशल थे। हड़प्पाई मृभांडों पर सामान्यतः वृत्त या वृक्ष की आकृतियाँ मिलती हैं। मृद्भाण्ड अधिकांशतः लाल व गुलाबी रंग के थे। इन पर अलंकरण काले रंग से हुआ था। मृद्भाण्डों पर सिंधु लिपि मिलती है।
लोथल से प्राप्त मृद्भाण्ड में एक वृक्ष पर मुँह में मछली पकडे हुए एक पक्षी को दर्शाया गया है तथा नीचे एक लोमड़ी का चित्र है। यह पंचतंत्र की प्रसिद्ध कथा चालाक लोमड़ी को दर्शाता है।
कालीबंगा से मिली मुहरें
हड़प्पा संस्कृति की सर्वोत्तम कलाकृतियाँ उसकी मुहरें हैं। अब तक लगभग 2,000 मुहरें प्राप्त हुई हैं। मुहरों पर लघु लेखों के साथ-साथ एकशृंगी पशु, भैंस, बाघ, सांड, बकरी और हाथी की आकृतियाँ उकेरी गई हैं। • मुहरों के बनाने में सर्वाधिक उपयोग सेलखड़ी (Stealite) का किया गया है। . लोथल और देसलपुर से ताँबे की बनी मुहरें प्राप्त हुई हैं। सैन्धव मुहरें प्रायः बेलनाकार , वर्गाकार, आयताकार एवं वृत्ताकार हैं। • मोहनजोदड़ो एवं लोथल से नाव की आकृति अकित मुहर मिली है।हड़प्पा सभ्यता
प्रतिमाएँ .
काँसे की नर्तकी उनकी मूर्तिकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है। सम्पूर्ण मूर्ति गले में पड़े हार के अलावा पूर्णतः नग्न है। यह लुप्त मोम पद्धति पर आधारित है। मोहनजोदडो से दो ताँबे की मानव मूर्ति तथा भैसा व भेड़ की काँस्य मूर्ति मिली है। हड़प्या एवं चन्हुदड़ो से बैलगाड़ी तथा इक्कागाड़ी प्राप्त हुआ है।
मृणमूर्तियाँ
सिंधु प्रदेश में अत्यधिक संख्या में आग में पकी मिट्टी (जो टेराकोटा कहलाती है) की बनी मूर्तियाँ मिली हैं। इनमें पक्षी, कुत्ते, भेड़, गाय-बैल और बंदर की प्रतिकृतियाँ मिलती हैं। पुरुषों और स्त्रियों की प्रतिकृतियाँ भी मिली हैं, जिनमें पुरुषों से स्त्रियों की संख्या अधिक है।
अंतिम संस्कार
सिंधु सभ्यता में मृतकों के अंतिम संस्कार की तीन प्रथाएँ मिलती हैं।
1. दाह-संस्कार : इसमें शव को पूर्ण रूप से जलाने के बाद भस्मावशेष को मिट्टी के पात्र में रखकर दफना दिया जाता था (हिंदू विधि से मिलती प्रथा)। यह सर्वप्रमुख प्रथा थी।
2. पूर्ण समाधिकरण : इसमें संपूर्ण शव को भूमि में दफना दिया जाता था।
3. आंशिक समाधिकरण : इसमें पशु-पक्षियों के खाने के बाद बचे शेष भाग को भूमि में दफना दिया जाता था। (पारसी विधि से मिलती प्रथा)
सामान्यतः मृतकों को उत्तर-दक्षिण क्रम (सिर उत्तर की ओर व पैर दक्षिण की ओर) में दफनाया जाता था। इसके अपवाद हड़प्पा व कालीबंगा में दक्षिण-उत्तर क्रम में, लोथल में पूर्वपश्चिम क्रम में, रोपड़ में पश्चिम-पूर्व क्रम में मृतक का दफनाए जाने के प्रमाण मिले हैं।
एक कब्र में एक ही व्यक्ति को दफनाया जाता था परन्त कालीबंगा से एक और लोथल से तीन युगल/युग्म समाधिकरण/शवाधान मिले हैं, जिनमें एक कब्र में दो-दो मृतक दफनाए गए हैं। रोपड़ की कब्र से मालिक के साथ कुत्ते के दफनाए जाने के प्रमाण मिले हैं। लोथल की एक कब्र से मृतक के साथ बकरे को दफनाए जाने के प्रमाण मिले हैं।हड़प्पा सभ्यता
उद्भव, उत्थान और अवसान
परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का अस्तित्व संभवतः 2550 ई.पू. से 1900 ई.पू. के बीच रहा। यह संस्कृति एक ही प्रकार के औजारों, हथियारों और घरों का प्रयोग करती रही। मोहनजोदड़ो की मृद्भांड कला में समय-समय पर परिर्वतन भा दिखाई देते हैं। ईसा-पूर्व उन्नीसवीं सदी में आकर इस संस्कृति के दो महत्वपूर्ण नगर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो लुप्त हो गए।हड़प्पा सभ्यता
अन्य स्थानों में हड़प्पा संस्कृति गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपने सीमांत क्षेत्रों में लंबे समय तक जीवित रही। संभवतः सिंधु क्षेत्र में वर्षा की मात्रा 3000 ई.पू. के आस-पास कुछ बढ़ी और पुनः दूसरी सहस्राब्दी (2000) ई.पू. के आरम्भ में कम हो गई।
इससे खेती और पशुपालन पर दुष्प्रभाव पड़ा। • कुछ लोगों का मत है कि पड़ोस के रेगिस्तान के फैलने से मिट्टी में लवणता बढ़ गई और उर्वरता घटती गई, इसी से सिंधु सभ्यता का पतन हो गया। दूसरा मत यह है कि जमीन धंस गई या ऊपर उठ गई, जिससे इसमें बाढ़ का पानी जमा हो गया। • भूकम्प के कारण सिंधु नदी की धारा परिवर्तित गई, जिसके फलस्वरूप मोहनजोदड़ो का पृष्ठ प्रदेश पूर्णतया नष्ट हो गया। • यह भी मत है कि हड़प्पा-संस्कृति को आर्यों ने नष्ट कर दिया, परन्तु इसके साक्ष्य बहुत कम हैं।
हड़प्पा संस्कृति की नागरिकोत्तर अवस्था
हडप्पा संस्कृति संभवतः 1900 ईसा पूर्व तक अस्तित्व में रही। नागरिकोत्तर हड़प्पा संस्कृति के कुछ लक्षण पाकिस्तान में, मध्य एवं पश्चिमी भारत (पंजाब, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली) उत्तर प्रदेश तथा जम्मू कश्मीर में दिखाई देते हैं। इनका काल संभवतः 1900 ईसा पूर्व से 1200 ईसा पूर्व तक हो सकता है। हड़प्पा संस्कृति की नागरिकोत्तर अवस्था को उपसिंधु संस्कृति कहते हैं।
यह उत्तर-हड़प्पा संस्कृतियाँ मूलतः ताम्रपाषाणिक हैं, जिनमें पत्थर और ताँबे के औजारों का उपयोग होता था। • गाँवों में धातु सम्बंधी तकनीकी जानकारी के फैलने से खेती करने और बस्तियाँ बनाने में सहायता मिली। • गिलुंद (जो अहार संस्कृति का स्थानीय केन्द्र जैसा लगता है।) में ईंटों की संरचनाएँ मिली हैं, जिन्हें संभवतः 2000 ईसा पूर्व और 1500 ईसा पूर्व के मध्य रखा जा सकता है।
जोर्वे बस्तियों में सबसे बड़ी दैमाबाद की बस्ती है, जो लगभग 22 हेक्टेयर में बसी थी और जहाँ 4,000 की आबादी रही होगी। इसके स्वरूप को आद्य नगरीय कहा जा सकता है, परन्तु अधिकांश जोर्वे बस्तियाँ ग्रामीण हैं। नागरिकोत्तर हड़प्पाई बस्तियाँ स्वात घाटी में मिली हैं। यहाँ लोग पशुचारण के साथ-साथ अच्छी खेती करते थे। स्वात घाटी के निवासी चाक पर लाल व काले रंग वाले मृद्भांड तैयार करते थे।
भारत में स्थित पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और जम्मू में कई उत्तर-हड़प्पा स्थलों की खुदाई हुई है। इनमें जम्मू में मांडा, पंजाब में चंडीगढ़ और संघोल, हरियाणा में दौलतपुर एवं उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर और हुलास उल्लेखनीय हैं। आलमगीरपुर में उत्तर हड़प्पाई लोग संभवतः कपास का प्रयोग धागे के लिए करते थे।हड़प्पा संस्कृति की उत्तरकालीन अवस्थाओं में कुछ बाहरी औजार और मृद्भांड पाए गए हैं,
जिनसे संकेत मिलता है कि सिंधु घाटी में बाहर के लोग धीरे-धीरे प्रवेश करने लगे थे। मोहनजोदड़ो की अंतिम अवस्था में असुरक्षा और अशान्ति के कुछ लक्षण दिखाई देते हैं। आभूषणों की निधियाँ स्थान-स्थान पर गड़ी मिली हैं और एक स्थान पर आदमी की खोपड़ियों का ढेर मिला है। हड़प्पा की अंतिम अवस्था के एक कब्रिस्तान में नए लोगों के अवशेष मिले हैं, जहाँ नवीनतम स्तरों पर नए प्रकार के मृद्भांड हैं। पंजाब और हरियाणा के कई स्थलों पर लगभग 1200 ईसा पूर्व के उत्तरकालीन हड़प्पा मृद्भांडों के साथ-साथ धूसर मदभांड (ग्रे वेयर) और चित्रित धूसर मृद्भांड (पी.जी. डब्ल्य) पाए गए हैं, जो आमतौर पर वैदिक लोगों से जुड़े हैं।हड़प्पा सभ्यताहड़प्पा सभ्यता