About Mahatma Gandhi in Hindi
मोहनदास करमचंद गाँधी भारतीय जनता की आजादी के संघर्ष के इस नए दौर के महानतम् नेता थे। भारतीय राजनीति में उनका पदार्पण प्रथम विश्वयुद्ध के समय हुआ। आधुनिक भारत के इस महानतम् नेता ने भारतीय जनता की आजादी के संघर्ष का लगभग 30 वर्ष तक नेतृत्व किया। महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 में गुजरात के पोरबंदर में हुआ था।
Note
Mahatma Gandhi Ke Pita Ka naam
:- करमचंद गाँधी
इंग्लैण्ड में अपना अध्ययन पूरा करने के पश्चात् वे एक वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने वहाँ के भारतीयों पर होने वाले गोरे शासकों के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष किया। गांधीजी 1915 ई. में भारत लौटे और दमन के विरुद्ध संघर्ष करने में जुट गए। उन्होंने अपने एक आरंभिक संघर्ष की शुरुआत चंपारण (बिहार) में की। जहाँ ये गरीब किसानों को निलहों (जमीदारों) के अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए लड़े।

बिहार के एक किसान नेता राजकुमार शुक्ल के आग्रह पर गाँधीजी चम्पारण पहुँचे। वहाँ के किसान अंग्रेजों द्वारा जबरन नील उत्पादन कराने हेतु शुरू किए गये तिनकठिया प्रथा (कुल कृषि भूमि के 3/20 भाग पर नील की खेती हेतु बाध्यता) से त्रस्त थे। वहाँ उन्हें चंपारण छोड़े जाने का आदेश दिया गया, परन्तु गांधीजी ने उसको नहीं माना। उन्होंने निलहों के अत्याचारों की जाँच के लिए और उनका अंत करने के लिए सरकार को विवश कर दिया।
1918 ई. में उन्होंने अहमदाबाद के कपड़ा मिल मजदूरों और गुजरात के खेड़ा के किसानों का नेतृत्व किया। अहमदाबाद के मिल-मजदूर वेतन में वृद्धि की माँग कर रहे थे तथा खेड़ा के किसान फसल बर्बाद हो जाने के कारण, राजस्व वसूली रोक देने की माँग कर रहे थे। इन आन्दोलनों में कुशल नेतृत्व के पश्चात् गाँधीजी भारतीय जनता . के सर्वमान्य नेता हो गए।
गाँधीजी ने जनता में निर्भयता की भावना पैदा की तथा जेल. लाठी और गोली सहित सभी प्रकार के दमन को सहने की इच्छा-शक्ति उनमें जाग्रत की। उनके नेतृत्व में लोगों ने कानूनों की खुलेआम अवहेलना की और कचहरियों एवं दफ्तरों का बहिष्कार किया। लोगों ने करों की अदायगी नहीं की, शांतिपूर्ण प्रदर्शन किए, कारोबार नष्ट कर दिया तथा विदेशी माल बेचने वाली दुकानों के सामने धरना दिया।
गाँधीजी द्वारा शुरू किए गए समाज सुधार के रचनात्मक कार्यों और अन्य रचनात्मक गतिविधियों ने राष्ट्रीय आंदोलन को जन-आंदोलन का स्वरूप प्रदान करने में योगदान दिया। उन्होंने अस्पृश्यता की अमानवीय प्रथा के विरुद्ध लड़ाई शुरू कर दी। उन दिनों लाखों निम्न जातीय भारतीय अपमान का निकृष्ट जीवन जी रहे थे क्योंकि उच्च जातियों के लोग उन्हें अछूत समझते थे। यह गाँधी जी का एक महान योगदान है कि, उन्होंने इस बुराई का मिटाने के लिए संघर्ष किया। उनके लिए तथाकथित अछूत हरिजन थे।
उनके आश्रमों में गांधी जी और उनके अनुयायी गन्दगी साफ जैसे अनके ऐसे काम करते थे, जिन्हें उच्च जाति के हिन्दू अछूतो का काम समझते थे।
गाँधीजी ने गाँवों के लोगों की हालत सुधारने के भी प्रयत्न किए। उनका मत था कि, जब तक गाँवों में रहने वाली लगभग 80 प्रतिशत जनता के जीवन स्तर में सुधार नही आऐगा तब तक भारत प्रगति नहीं कर सकता।
उन्होंने गाँवों में छोटे उद्योग स्थापित करने के प्रयास किए। तथा खादी का प्रचार किया ताकि वे आत्मनिर्भर एवं स्वायत्त इकाई बन सकें। प्रत्येक कांग्रेसी के लिए खादी पहनना अनिवार्य हो गया। चरखा ग्रामोद्योग के महत्व का प्रतीक बन गया जिसके पश्चात् चरखा कांग्रेस के झंडे का अंग बना। गांधी जी ने विश्वबंधुत्व का प्रचार किया। क्योंकि ये हिंदू-मुसलमा एकता के समर्थक थे।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश नीति
भारतीय नेताओं का विश्वास था कि, विश्वयुद्ध की समाप्ति पर भारत को स्वराज्य मिल जाएगा। मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के अन्तर्गत 1919 ई. में भारत सरकार ने एक कानून बनाकर शासन पद्धति में कुछ परिवतन किए। इन परिवर्तनों के अनुसार, केंद्रीय विधान मंडल के दो सदन विधानपरिषद् और राज्यसभा बनाए गए। इन दोनों सदनों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत था। परन्तु इन दान केंद्रीय सदनों के अधिकारों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य, जो मंत्रियों की तरह थे, विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। प्रांतीय विधान मंडलों का विस्तार किया गया जिसमें निर्वाचित सदस्यों का बहुमत था। प्रांतों में चलाई गई दोहरी सरकार की व्यवस्था के अन्तर्गत इन्हें व्यापक अधिकार दिए गए। शिक्षा और जनस्वास्थ्य जैसे कुछ विभाग ऐसे मंत्रियों को सौंपे गए, जो विधान परिषदों के प्रति उत्तरदायी थे। वित्त और पुलिस जैसे ज्यादा महत्व के विभाग गवर्नर के नियंत्रण में रहे। मंत्री तथा गवर्नर-जनरल प्रांत के किसी भी निर्णय को अस्वीकार कर सकते थे।
सभी महत्वपूर्ण अधिकार गवर्नर-जनरल और उसकी कार्यकारिणी परिषद के पास थे। वे ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी थे, न कि भारतीय जनता के प्रति। विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद लोगों ने स्वराज प्राप्ति की जो उम्मीद की थी वह उपर्युक्त परिर्वतनों से निराशा में बदल गई। सम्पूर्ण देश में व्यापक असंतोष फैल गया जिसके दमन के लिए सरकार ने नए तरीके अपनाए।
रौलेट एक्ट (1919 ई.)
भारत में क्रांतिकारियों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1917 ई. में सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। रौलेट एक्ट सेडिशन कमेटी की सिफारिश पर आधारित था।
इस समिति के गठन का उद्देश्य था कि, भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन सम्बंधी षड्यंत्र किस स्तर तक फैले हुए हैं तथा इन पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए किस प्रकार के कानून की आवश्यकता है। रौलेट एक्ट लागू करने का मुख्य कारण यह था कि, भारत रक्षा कानून की अवधि समाप्त होने वाली थी। समिति ने 1918 ई. में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। समिति द्वारा दिए गए सुझावों के आधार पर केंद्रीय विधानमंडल में फरवरी, 1919 में दो विधेयक लाए गए, जिनमें एक विधेयक को तो वापस ले लिया गया, परंतु दूसरे क्रांतिकारी एवं अराजकता अपराध अधिनियम (जिसे रौलेट एक्ट कहा जाता है) को 18 मार्च, 1919 को पारित कर दिया गया।
इसकी अवधि तीन वर्ष रखी गई। इसे काला कानून के नाम से भी जाना जाता है। रौलेट एक्ट को बिना वकील, बिना अपील तथा बिना दलील का कानून भी कहा गया। इसे काला अधिनियम एवं आतंकवादी अपराध अधिनियम के नाम से भी जाना जाता था। मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने इस्तीफे में कहा था- जो सरकार शांतिकाल में ऐसे कानून को स्वीकार करती है, वह अपने को एक सभ्य सरकार कहलाने का अधिकार खो बैठती है।
इस कानून के द्वारा सरकार को किसी भी व्यक्ति को बिना मुकद्दमा चलाए जेल में डाल देने का अधिकार मिल गया। गांधीजी पहले ही सत्याग्रह सभा की स्थापना कर चुके थे। अब उन्होंने देशव्यापी विरोध करने को कहा। सम्पूर्ण देश में 6 अप्रैल, 1919 का दिन राष्ट्रीय अपमान दिवस के रूप में मनाया गया। देशभर में प्रदर्शन और हड़तालें हुईं। सारे देश में व्यापार की गति धीमी पड़ गई। भारत की जनता ने एकजुट होकर ऐसा व्यापक विरोध पहले कभी नहीं किया था। सरकार ने बर्बरतापूर्वक दमन शुरू किया। कई जगहों पर लाठी एवं गोली का सहारा लिया गया।
जलियाँवाला बाग हत्याकांड
10 अप्रैल, 1919 को दो राष्ट्रवादी नेता डॉ. सत्यपाल और डा. सैफुद्दीन किचलू गिरफ्तार कर लिए गए। 13 अप्रैल 1919 में, इनकी गिरफ्तारी के विरोध में जलियाँवाला बाग में एक जनसभा एकत्र हुईं। (जलियाँवाला बाग अमृतसर में स्थित छोटा सा पार्क है जो तीन ओर ऊँची दीवारों से घिरा है और केवल एक छोटी गली से पार्क में जाने का रास्ता है)
यह सभा शांतिपूर्ण ढंग से आयोजित की गई थी जिसमें अत्यधिक संख्या में वृद्धों, स्त्रियों और बच्चों ने भी भाग लिया था। अचानक ब्रिटिश अधिकारी जनरल डायर ने पार्क में एकत्रित हुए निहत्थे लोगों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, इसमें मरने वाले लोगों की संख्या मात्र 379 बताई गई है। दीनबंधु एफ. एण्ड्रज ने इस हत्याकाण्ड को जानबूझकर की गई हत्या कहा। डायर ने शान के साथ कहा था कि, लोगों को सबक सिखाने के लिए यह कार्यवाही की गयी थी। उ
से इस घृणित कार्य का कोई पश्चाताप नहीं था। वह इंग्लैड चला गया। जहाँ कुछ अंग्रेजों ने उसका सम्मान करने के लिए पैसे एकत्र किए। एक ब्रिटिश अखबार ने इसे आधुनिक इतिहास का एक नृशंस हत्याकांड कहा। हंटर कमीशन की रिपोर्ट को गाँधी जी ने पन्ने दर पन्ने निर्लज्ज सरकारी लीपा पोती की संज्ञा दी।
कांग्रेस ने जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की जांच हेतु मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। समिति के अन्य सदस्यों में मोती लाल नेहरु, महात्मा गाँधी, सी.आर. दास, वदरुद्दीन तैय्यबजी और एम.आर. जयकर आदि शामिल थे। लगभग 21 साल बाद, 13 मार्च, 1940 को उधम सिंह ने गोली मारकर माइकल ओ. डायर की हत्या कर दी। जलियाँवाला बाग हत्याकांड के समय माइकल ओ. डायर पंजाब का लेफ्टिनेंट-गवर्नर था।
जलियाँवाला बाग हत्याकांड से भारतीय जनता का रोष बढ़ गया। जिसमें सरकार के दमन में भी वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर किया गया, अखबार बंद कर दिए गए तथा उनके संपादकों को जेल में डाल दिया गया या निर्वासित कर दिया।
दमन का ऐसा भयंकर दौर चला जैसा 1857 ई. के विद्रोह को कुचल देने के पश्चात् चलाया गया था। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के विरोधस्वरूप रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई नाइटहुड की उपाधि वापस कर दी। अगस्त, 1919 में अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन सम्पन्न हुआ। जिसकी अध्यक्षता मोती लाल नेहरू ने की थी। इस अधिवेशन में किसानों ने बड़ी संख्या में भाग लिया था। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के समय पंजाब में चमन दीपक नेतृत्व में एक डंडा फौज अस्तिव में आयी जो लाठियों और चिडियामार बंदूकों से लैस होकर सड़कों पर गश्त लगाते और पोस्टर चिपकाते थे।
खिलाफत आंदोलन
तुर्की के सुल्तान को खलीफा (मुस्लिमों का सर्वोच्च धार्मिक नेता) का पदा प्राप्त था। ब्रिटेन द्वारा खलीफा के प्रति किए जा रहे अयाय के विरोध में भारत में खिलाफ आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ।
1919 ई. में मुहम्मद अली तथा शौकत अली (जो अली बंधुओं के नाम से प्रसिद्ध थे), ने अबुल कलाम के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन चलाया। इस आंदोलन को चलाने के लिए एक खिलाफत कमेटी गठित की गई जिसमे गाँधीजी भी शामिल थे।
सितम्बर, 1919 में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी का गठन किया गया। 17 अक्टूबर, 1919 को अखिल भारतीय स्तर पर खिलाफत दिवस मनाया गया। 24 नबम्बर, 1919 को दिल्ली में हुई खिलाफत कमेटी के सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की। इस आंदोलन का विरोध सी.आर. दास ने किया। उनका विरोध विधानपरिषदों के बहिष्कार को लेकर था। अबुल कलाम आजाद ने अपनी पत्रिका अल हिलाल के माध्यम से इस आंदोलन का प्रचार किया। 1924 ई. में जब तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ तो उसने खलीफा के पद को समाप्त कर दिया। इस प्रकार खिलाफत आंदोलन का मूल कारण ही समाप्त हो जाने के कारण यह आंदोलन भी समाप्त हो गया।
असहयोग आन्दोलन
1920 ई. में कांग्रेस ने कलकत्ता के अपने विशिष्ट अधिवेशन में तथा नागपुर में 1920 ई. के अंत में आयोजित अपने वार्षिक अधिवेशन में गांधीजी के नेतृत्व में, सरकार के विरुद्ध संघर्ष की एक नई योजना स्वीकार की। नागपुर अधिवेशन में लगभग 15 ,000 प्रतिनिधि शामिल हुए। इस अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में संशोधन किया गया।
सभी न्यायोचित और शांतिमय साधनों से भारतीय जनता द्वारा स्वराज प्राप्त करना कांग्रेस के संविधान का उद्देश्य बन गया। इन साधनों द्वारा किए जाने वाले संघर्ष को असहयोग आंदोलन का नाम दिया गया। लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में हुए कलकत्ता अधिवेशन में महात्मा गांधी के नेतृव में असहयोग आन्दोलन का प्रस्ताव | पारित हुआ। । इस आन्दोलन के दौरान विद्यार्थियों द्वारा शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया गया।
17 नवम्बर, 1921 को प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आगमन पर सम्पूर्ण भारत में सार्वजनिक हड़ताल का आयोजन किया गया। इस आंदोलन का लक्ष्य था- पंजाब और तुर्की के साथ हो रहे अन्याय को खत्म करना और स्वराज प्राप्त करना। इसका प्रारम्भ ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई सर जैसी पदवियों को त्यागने के साथ हुआ। गांधीजी ने 1920 ई. में अपनी कैसर-ए-हिंद की उपाधि लौटा दी। जिसके पश्चात् विधान परिषदों का बहिष्कार प्रारम्भ हुआ। जब परिषदों के लिए चुनाव हुए तो अधिकांश लोगों ने वोट डालने से मना कर । दिया। विद्यार्थियों और अध्यापकों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए।
राष्ट्रवादियों ने दिल्ली में जामिया मिलिया और वाराणसी में काशी विद्यापीठ जैसी नई शिक्षण संस्थाएँ स्थापित की। लोगों ने अपनी सरकारी नौकरियाँ छोड़ दीं। वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया। सारे देश में सार्वजनिक हड़तालें हुई। 1921 ई. का वर्ष समाप्त होने के पहले ही 30,000 लोग जेलों में बंद कर दिए गए। केरल के कुछ भागों में भी विद्रोह भड़क उठा। अधिकांश विद्रोही मोपला किसान थे। इसलिए इसे मोपला विद्रोह कहा गया।
विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया गया। 2000 से अधिक मोपला किसान मारे गए और करीब 45,000 किसानों को बंदी बनाया गया। 1921 ई. में अहमदाबाद में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। जिसके अध्यक्ष हकीम अजमल खाँ थे। अधिवेशन ने आंदोलन को जारी रखने का निर्णय लिया और तब असहयोग आंदोलन का अंतिम दौर आरंभ हुआ।
चौरी-चौरा कांड
गाँधी जी द्वारा वायसराय को दी गई चेतावनी की समय सीमा पूरी होने से पहले ही उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में स्थित चौरी-चौरा नामक स्थान पर 5 फरवरी, 1922 को एक हिंसक घटना घटित हुई। चौरी-चौरा कांड के नाम से चर्चित इस घटना के पश्चात् भीड़ ने विरोध स्वरूप पुलिस के 22 सिपाहियों को थाने के अंदर जिंदा जला दिया। • चौरी-चौरा घटना से गांधी जी इतने आहत हुए कि उन्होंने शीघ्र आंदोलन को समाप्त करने का निर्णय लिया।
- महात्मा गाँधी ने 12 फरवरी, 1922 को बारदोली में कांग्रेस कार्य समिति की एक बैठक बुलाई, जिसमें चौरी-चौरा कांड के कारण सामूहिक सत्याग्रह व असहयोग आंदोलन स्थगित करने का प्रस्ताव पारित कराया। प्रस्ताव में रचनात्मक कार्यक्रमों पर बल दिया गया जिसमें कांग्रेस के लिए 1 करोड़ सदस्य भर्ती कराना, चरखे का प्रचार, राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना, मादक द्रव्य निषेध तथा पंचायतें संगठित करना सम्मिलित आदि थे। . महात्मा गांधी को 10 मार्च, 1922 को गिरफ्तार कर 18 मार्च, 1922 को अहमदाबाद में सेशन जज ब्रूमफील्ड की अदालत में मुकदमा चलाया गया और 6 वर्ष कैद की सजा सुनाई गई। परन्तु 5 फरवरी, 1924 को बीमारी के कारण महात्मा गांधी के 6 वर्ष पूरे होने के पहले हर रिहा कर दिया गया।
मुस्लिम लीग की स्थापना
03 अक्टूबर, 1906 को आगा खाँ के नेतृत्व में मुसलमानों का एक शिष्ट मण्डल वायसराय लार्ड मिंटो से शिमला में मिला था। 30 दिसंबर, 1906 को जब ढाका में मुहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस की बैठक हो रही थी तभी उस अधिवेशन को ढाका के नवाब सलीमुल्लाह की अध्यक्षता में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग (The All India Muslim League) के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इस सभा में नवाब सलीमुल्ला, मोहिसिन-उल-मुल्क, आगा खाँ तथा नवाब बाकर-उल-मुल्क उपस्थित थे।
सभा की अध्यक्षता बाकर-उल-मुल्क द्वारा की गई। 1908 ई. में आगा खाँ को मुस्लिम लीग का स्थायी अध्यक्ष बनाया गया। इसी वर्ष अलीगढ़ अधिवेशन में 40 सदस्यीय एक केन्द्रीय समिति की स्थापना की गई एवं उसकी प्रांतीय शाखाएँ भी स्थापित की गई।
मुस्लिम लीग के अमृतसर अधिवेशन (1908 ई.) में मुस्लिमों के लिए एक पृथक निर्वाचन मंडल की माँग की गई. जिसे 1909 ई. में मॉर्ले-मिण्टो सुधारों द्वारा स्वीकृति प्रदान की गयी। 1909 ई. के सुधार बिल में पृथक निर्वाचन को स्वीकार कर लिया गया। यहाँ द्विराष्ट्र सिद्धांत (Two Nation Theory) का बीज बो दिया गया।
1912-13 ई. में मुस्लिम लीग की राजनीति में एक नई बात देखी गई। इस लीग में यंग पार्टी के कुछ सदस्य यथा मुहम्मद अली, शौकत अली, हकीम अजमल खाँ और मौलाना अबुल कलाम आजाद का उदय हुआ। इन्होंने मुस्लिम लीग की नीतियों को कांग्रेस की नीतियों के निकट ला दिया। इन्हीं के प्रभाव में वर्ष 1913 के लखनऊ अधिवेशन में लीग ने स्वराज के लक्ष्य को अपना लिया। अब लखनऊ पैक्ट की भूमिका तैयार हो गई। 1916 ई. में बाल गंगाधर तिलक के प्रभाव से लखनऊ म उदारवादी और उग्रवादी कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग की संयुक्त बैठक हुई। लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता अम्बिका चरण मजूमदार ने की।
