Adhunik Bharat Ka Itihas

Adhunik Bharat Ka Itihas

आधुनिक भारतीय इतिहास के स्रोत

भारतीय इतिहास लेखन ने भारमें यूरोपियों के आगमन के साथ केवल उपागम, उपचार और तकनीक में अपितु ऐतिहासिक साहित्य की मात्रा में भी प्रबल परिवर्तन को अनुभव कियाशायद कोई भी अन्य कालावधि या देश 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी के दौरान ऐतिहासिक सामग्री की प्रचुरता पर भारजैसी गर्वोक्ति नहीं कर सकाआधुनिक भारत के इतिहास के निर्माण में राजकीय अभिलेखोंविभिन्न स्तरों पर सरकारी अभिकरणों के दस्तावेजको सर्वोच्च प्राथमिकता दिए जाने की  श्यकता है

राजकीय अभिलेख

ईस्ट इंडिया कंपनी के अभिलेखों ने 16001857 की कालावधि के दौरान व्यापार दशाओं का विस्तृत वर्णन प्रदान कियायह सत्य है कि ब्रिटेन की वाणिज्यिक कंपनी ने हजारों मील दूर एक बड़े क्षेत्र पर अपनी राजनीतिक सर्वोच्चता स्थापित की, जिसके लिए एक प्रकार के प्रशासन की आवश्यकता थी, जो पूरी तरह कागजों पर थाप्रत्येक नीति लिखित में होती थी और प्रत्येक व्यवसाय एवं लेनदेन प्रेषण, परामर्श एवं  कार्रवाई, गुप्त पत्रों एवं अन्य पत्राचार के माध्यम से होता था, जिसके परिणामस्वर कल्पनातीत मात्रा में ऐतिहासिक सामग्री में वृद्धि हुई।

राजकीय अभिलेख निदेशक मण्डल और बोर्ड ऑफ कंट्रोल से सम्बद्ध अभिलेखों के अतिरिक्त जिले से लेकर सर्वोच्च सत्ता तक प्रशासन के सभी स्तरों को शामिल करते थे। जब ब्रिटिश महारानी (क्राउन) ने प्रशासन (भारतीय) संभाला, तो इसने भी बड़ी मात्रा में विभिन्न तरीकों के राजकीय अभिलेख सुरक्षित रखे। इन अभिलेखों का परीक्षण करके, हम चरणवार प्रत्येक मुख्य घटना एवं विकास को समझ सकते हैं और नीति-निर्माताओं के मनोविज्ञान समेत निर्णयन की प्रक्रिया का अनुगमन कर सकते हैं।

इन अभिलेखों के अतिरिक्त, अन्य यूरोपियन ईस्ट इंडिया कंपनियों (पुर्तगाली, डच एवं फ्रांसिसी) के अभिलेख भी 17वीं और 18वीं शताब्दियों के इतिहास सृजन हेतु उपयोगी हैं। प्राथमिक तौर पर ये आर्थिक इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन राजनीतिक व्यवस्था के बारे में भी इनसे काफी कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

अन्य स्रोत

कई सारे समकालीन और अंशतः समकालीन जैसे वृतांत, जीवन साहित्य एवं यात्रा वृतांत भी हैं जिन्होंने हमें 18वीं एवं 19वीं शताब्दियों के पूर्वार्द्ध के इतिहास की रोचक एवं उपयोगी झलकी प्रदान की है। यद्यपि समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं ने 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अपनी उपस्थिति दर्ज की, तथापि उन्होंने 19वीं और 20वीं शताब्दियों में भारतीय समाज के लगभग सभी पहलुओं पर बेहद मूल्यवान सूचना प्रदान की।

आधुनिक भारत के इतिहास के अन्य स्रोतों में मौखिक प्रमाण, सजनात्मक साहित्य और पेंटिंग्स शामिल हैं। यद्यपि मौखिक स्रोतों की अपनी सीमा होती है, वे अन्य ऐतिहासिक सामग्री के पुष्टिकरण में तथा घटनाओं, व्यक्तियों एवं ऐतिहासिक घटनाक्रम को समझने में हमारी मदद करते हैं। सृजनात्मक साहित्य, विशेष रूप से स्वदेशी साहित्य के नए रूप जैसे उपन्यास, लघु कहानियां एवं कविताओं जिनका विकास पश्चिम क प्रभाव में हुआ, ने समकालीन सामाजिक वास्तविकताओं का विविध प्रतिबिम्ब प्रदान किया। चित्रकारी में नए पैटर्न, जो औपनिवेशिक काल के दौरान दिखाई दिया, ने उस समय के जीवन को समझने में मदद की। इस प्रकार इन स्रोतों में ऐतिहासिक अभिलेख एवं गैर-अभिलेखबद्ध स्रोत शामिल हैं।

पुरालेखीय सामग्री

पुरालेखीय सामग्री इतिहास के अन्य भागों की भांति आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन में भी पुरालेखीय सामग्री  का महत्वपूर्ण स्थान है। पुरालेखीय सामग्री ऐसे दस्तावेज हैं जिन्हें कोई संगठन, लोक प्राधिकारी, संस्था, व्यवसाय या परिवार, अपने कार्यों के दौरान तैयार करता है  |

और जिन्हें तत्पश्चातवर्ती ऐतिहासिक अनुसंधान या भविष्य के कार्यों के नियोजन में संदर्भ के लिए उनके अधिकारों एवं गतिविधियों के प्रमाण के तौर पर सुरक्षित रखा जाता है। 

Click Here For :- बौद्ध धर्म

व्यापक तौर पर आधुनिक काल के लिए राजकीय अभिलेखों की चार श्रेणियां हैं-(i) केंद्र सरकार के पुरालेख, (ii) राज्य सरकार के पुरालेख, (ii) मध्यवर्ती एवं अधीनस्थ प्राधिकरणों के अभिलेख, और (iv) न्यायिक अभिलेख। इनके अतिरिक्त निजी अभिलेख एवं विदेशों में उपलब्ध अभिलेखीय स्रोत भी हैं। ब्रिटिश समय के कुछ प्रकाशित अभिलेख भी हैं जो आधुनिक भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों के लिए मूल्यवान सूचना प्रदान करते हैं।

केंद्र सरकार के पुरालेख

नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार भारत सरकार के अधिकतर पुरालेखों को सहेजता है। यह संग्रह 18वीं शताब्दी के मध्य से वर्तमान समय तक के आधुनिक भारत के सृजन हेतु अभिलेखों की अटूट शृंखला प्रदान करता है। लोक विभाग के अभिलेख 1773 के रेग्यूलेटिंग अधिनियम से सवैधानिक परिवर्तनों, केंद्रीकृत राजव्यवस्था के उदय, और कंपनी के प्रशासनिक व्यवस्था के विकास के अध्ययन हेतु विस्तृत स्रोत सामग्री प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, 1857 के पश्चात् के प्रशासनिक एवं संवैधानिक विकास जैसे लोक सेवाओं का गठन, स्थानीय स्वशासन का प्रारंभ, भारतीयकरण की समस्या और प्रांतों का प्रादेशिक पुनर्गठन इत्यादि बेशकीमती सामग्री भी इस श्रृंखला में पायी जाती है।

जेम्स रेनल की 1767 में प्रथम सर्वेयर जनरल ऑफ बंगाल के रूप में नियुक्ति के साथ, भारत के अनजान क्षेत्रों एवं इसके सीमा क्षेत्रों का वैज्ञानिक रूप से मानचित्रण शुरू हुआ। भारतीय सर्वेक्षण के अभिलेखों एवं सर्वेयरों के जर्नल्स एवं वृतांतों ने न केवल भौगोलिक अध्ययन के लिए अपितु समकालीन सामाजिक-आर्थिक दशाओं और अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन के लिए भी मूल्यवान सूचना प्रदान की है। 

लोक, न्यायिक एवं विधायी विभागों की कार्यवाहियों ने औपनिवेशिक सरकार की सामाजिक एवं धार्मिक नीतियों के अध्ययन हेतु पर्याप्त प्रमाण प्रदान किए हैं। रिफॉर्म कार्यालय के अभिलेख भारत में 1920-1937 के दौरान संवैधानिक विकास के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए बेहद उपयोगी हैं। 

राज्य सरकारों के पुरालेख 

राज्य के अभिलेखागारों में अभिलेखों-(i) भूतपूर्व ब्रिटिश भारतीय प्रांतों, (ii) भूतपूर्व राजसी राज्य जिन्हें 1947 के पश्चात् भारतीय संघ में शामिल कर लिया गया, और (iii) ब्रिटिश शासन के अतिरिक्त विदेशी प्रशासन-से सम्बद्ध स्रोत सामग्री मिलती है। इसके अतिरिक्त. उन भारतीय शक्तियों के अभिलेख, जिन्हें ब्रिटिश शक्ति ने हथिया लिया और उनके क्षेत्र को ब्रिटिश क्षेत्र में मिला लिया, भी आधुनिक भारतीय इतिहास के लिए महत्वपूर्ण सोत सामग्री है।

न्यायिक अभिलेख

न्यायिक अभिलेख भारत में न्यायिक प्रशासन के विकास का प्राथमिक प्रमाण प्रदान करते हैं। ये विभिन्न वर्गों के लागों की सामाजिक-आर्थिक दशा संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। फोर्ट सेंट जॉर्ज में मेयर के कोर्ट का पुरालेख, 1689 ईस्वी के प्रारंभ पर, सबसे पहले उपलब्ध न्यायिक पुरालेख है। अब यह मद्रास अभिलेखकार्यालय में है।

Click Here For  राष्ट्रपति 

फोर्ट विलियम में मेयर कोर्ट के प्लासी-पूर्व (1757) अभिलेख नष्ट हो गए प्रतीत होते हैं; लेकिन 1753-1773 के वर्षों के अभिलेख 1774-1861 के वर्षों के अभिलेख बंगाल के सर्वोच्च न्यायालय सहित कलकत्ता उच्च न्यायालय के अभिलेख कक्ष में रखे गए हैं। इसी प्रकार, 1728 में बॉम्वे में स्थापित मेयर कोर्ट के अभिलेख महाराष्ट्र सचिवालय रिकॉर्ड ऑफिस में उपलब्ध हैं, जहां पर बॉम्बे अभिलेख न्यायालय एवं सुप्रीम कोर्ट के अभिलेख भी रखे गए हैं। ऐतिहासिक अनुसंधान के दृष्टिगत, तीन प्रेसिडेंसियों के सदर कोर्ट-सदर दीवानी और फौजदारी अदालतें-के न्यायिक अभिलेख बेहद उपयोगी हैं। इनसे संबंधित अभिलेखों को कलकत्ता, मद्रास एवं बॉम्बे उच्च न्यायालयों में सुरक्षित रखा गया है।

प्रकाशित अभिलेख 

प्रकाशित अभिलेखीय सामग्री आधुनिक भारत के इतिहास के सृजन हेतु बेहद महत्वपूर्ण सुचना स्रोत हैं। संसदीय पत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण पुरालेखीय प्रकाशन होते हैं जिसमें क्राउन के अंतर्गत ईस्ट इंडिया कंपनी और भारत सरकार के अभिलेखों से विपुल उद्धरण शामिल हैं। 1801-1907 के बीच जारी संसदीय पत्रों की सूची उपलब्ध है।

राष्ट्रीय अभिलेखागार और विभिन्न राज्य अभिलेखागारों द्वारा जारी अभिलेख प्रकाशन आधुनिक भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों के लिए अत्यधिक उपयोगी हैं। भारतीय एवं प्रांतीय विधानमण्डलों की कार्यवाहियां, केंद्रीय एवं प्रांतीय सरकारों द्वारा प्रकाशित गजट और समय-समय पर जारी विधियों एवं विनियमों का संग्रह भी ऐतिहासिक शोध हेतु उपयोगी सामग्री है। 

निजी पुरालेख 

निजी अभिलेखों में व्यक्तियों एवं परिवारों से सम्बद्ध पत्र एवं दस्तावेज होते हैं जिन्होंने आधुनिक भारत, व्यवसाय एवं औद्योगिक निगमों तथा राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को समर्पित संस्थाओं, समाजों एवं संगठनों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। देश की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक उन्नयन से सम्बद्ध समृद्ध सामग्री विश्वविद्यालयों एवं शैक्षिक संस्थानों के पुरालेखों में उपलब्ध है। बैंकों, व्यापार घरानों और चैम्बर ऑफ कॉमर्स के अभिलेख आर्थिक परिवर्तनों के अध्ययन में बेहद उपयोगी हैं। राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रसिद्ध एवं प्रमुख नेताओं के पत्र तथा नई दिल्ली स्थित नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एवं लाइब्रेरी में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे संगठनों के अभिलेख भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास के संवर्द्धन में अत्यधिक उपयोगी हैं।

विदेशी संग्रहालयों की पुरालेख सामग्री

 विदेशी संग्रहालयों में आधुनिक भारतीय इतिहास से संबंधित बड़ी मात्रा में ऐतिहासिक सामग्री है। उदाहरणार्थ, यूरोपियन संग्रहालय में भारतीय महत्व की पुरालेखीय एवं पांडुलिपि सामग्री व्यापक एवं विविध है। इंडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स (कॉमनवेल्थ रिलेशंस ऑफिस, लंदन) में कई सारे महत्वपूर्ण पुरालेखीय समूह हैं जो हमारे देश में उपलब्ध नहीं हैं।

ब्रिटेन में कई पुरालेखीय एवं पांडुलिपि संग्रहालय, विशेष रूप से लंदन में ब्रिटिश संग्रहालय, में ब्रिटिश वायसराय, राज्य सचिवों एवं अन्य उच्च स्तरीय सिविल एवं सैन्य अधिकारियों के पत्रों का संग्रह है जिन्होंने भारत में कार्य किया और जिनकी उपयोगिता को बमुश्किल ही आकलित किया गया। चर्च मिशनरी सोसायटी ऑफ लंदन जैसी मिशनरी सोसायटी के पुरालेख विशेष महत्व के हैं जिनके पुरालेख देश (भारत) में शैक्षिक एवं सामाजिक विकास के बारे में समृद्ध सूचना लिए हुए हैं।

Click Here For :- प्रथम विश्वयुद्ध का इतिहास

भारत में फ्रांसीसियों के इतिहास के अध्ययन के लिए, ‘अर्काइव्स नेशनल’, पेरिस और फ्रेंच मिनिस्ट्री ऑफ फॉरेन अफेयर्स, कॉलोनीज एंड वार’ के पुरालेख समृद्ध स्रोत हैं और अत्यधिक उपयोगी हैं।

 रिकसरचीफ, हेग में उपलब्ध डच ईस्ट इंडिया कंपनी के बड़ी मात्रा में अभिलेख भारत में डचों के वृहद् इतिहास को लिखने के लिए पर्याप्त हैं। इन अभिलेखों को 17वीं एवं 18वीं शताब्दियों के भारत के आर्थिक इतिहास के प्राथमिक स्रोत के तौर पर भी प्रयोग किया जा सकता है।

भारत में 1777 के पश्चात् डच उपनिवेशों से संबंधित दानिश क्राउन और डच ईस्ट इंडिया कंपनी के रिगसरकेविट, कोपेनहेगन में उपलब्ध अभिलेख त्रैकोम्बर और सेरामपुर के बंदोबस्त के बारे में जानकारी का प्राथमिक स्रोत हैं। इसी प्रकार ‘नेशनल अर्काइव्स ऑफ पोर्तुगाल’, लिस्बन, में भारत में पुर्तगालियों से संबंधित मौलिक पत्रों का संग्रह है।

भारतीयों द्वारा विदेशों में चलाई गई राष्ट्रवादी गतिविधियों के इतिहास के सृजन क लिए, विभिन्न देशों के विदेश मामलों संबंधी कार्यालयों के पुरालेख बेशकीमती हैं। उदाहरणार्थ, यूरोप में भारतीय क्रांतिकारियों के बारे में उपयोगी सूचना या जानकारी जर्मनी फॉरेन ऑफिस के अभिलेख में है और संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय क्रांतिकारियों पर जानकारी अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट और जस्टिस डिपार्टमेंट के पुरालेखों में उपलब्ध है।

हालांकि, आधुनिक भारतीय इतिहास के 1947 से पूर्व के बेहद महत्वपूर्ण और समृद्ध पुरालेख स्रोत अब पाकिस्तान में अवस्थित हैं। इन अभिलेखों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण संग्रह लाहौर के वेस्ट पाकिस्तान रिकॉर्ड ऑफिस में हैं जिसमें, 1894 से पंजाब सरकार के अभिलेखों के अतिरिक्त, 1804-1857 के दिल्ली रेजीडेंसी और विभिन्न राजनीतिक अभिकरणों के अभिलेख शामिल हैं जिन्होंने समामेलन-पूर्व पंजाब में कार्य किया था।

 Click Here for दिल्ली सल्तनत

पेशावर में स्थित अभिलेख कार्यालय में 1849-1900 में पेशावर के कमिश्नर के अभिलेख और 1901 से उत्तर-पश्चिम सीमा के प्रांतों के अभिलेख उपलब्ध हैं। ये अभिलेख भारतीय उपमहाद्वीप के प्रादेशिक इतिहास के अध्ययन के लिए मूल्यवान हैं और भारत के अफगानिस्तान, ईरान और सीमावर्ती क्षेत्रों की जनजातियों के साथ संबंधों के बारे में भी उपयोगी सूचना प्रदान करते हैं।

जीवनी साहित्य, संस्मरण एवं यात्रा वृत्तांत

 जीवनी साहित्य, संस्मरण या यात्रा वृतांत जैसे समकालीन या अर्द्ध-समकालीन दस्तावेज एवं प्रमाण भी उपलब्ध हैं जो हमें 18वीं और 19वीं शताब्दियों के भारत के इतिहास की उपयोगी झलकी प्रदान करते हैं। 

व्यक्तिगत अभिलेखों का महत्व

 कई यात्री, व्यापारी, मिशनरी एवं सिविल सर्वेट, जो इन शताब्दियों के दौरान भारत आए, ने देश के विभिन्न हिस्सों पर अपने अनुभवों एवं प्रभावों की छाप छोड़ी। इन वृत्तांतों ने आधुनिक भारतीय इतिहास के अध्ययन हेतु बेहद उपयोगी स्रोत का कार्य किया है। इन लेखकों के समूह में सर्वप्रथम मिशनरीज (ईसाई धर्म प्रचारक) आते हैं जिन्होंने स्थानीय निवासियों में सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भारत में अधिकाधिक मिशनरीज भेजने के लिए तथा अपने सम्बद्ध समाजों को प्रोत्साहित करने हेतु लेखन किया।

कुछ सिविल सर्वेट्स ने भी इस सुसमाचार के (ईसाई धर्म का प्रचार) दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व भी किया। उदाहरणार्थ, सर जॉन शोर और चार्ल्स ग्रांट, दोनों ने बंगाल में लम्बी सेवाएं प्रदान की, ने ईसाई धर्म प्रचारकों (मिशनरीज) एव उनकी गतिविधियों का पुरजोर समर्थन किया।

यात्रा वृतांत

 ब्रिटिश  ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ कर्मचारियों के यात्रा वृतांत भी बेहद मूल्यवान हैं। फोस्टर के यात्रा वृत्तांत, जिन्होंने 1783 में बंगाल, लखनऊ, श्रीनगर, नादौन, कश्मीर की यात्रा की और काबुल, कैस्पियन सागर एवं सेंट पीटर्सबर्ग होते हुए इंग्लैंड वापस गए, ने उत्तरी भारत की राजनीतिक दशाओं के बारे में जानकारी प्रदान की। बेंजामिन हेन के 1814 में प्रकाशित ‘सेवरल टूअर्स धू वेरियस पार्ट्स ऑफ द पेनिनसला’ जर्नल ने उस समय के दौरान प्रायद्वीप के आर्थिक उत्पादों पर बेहतरीन जानकारी प्रदान की।

1831 में प्रकाशित जेम्स बर्न्स की भुज की चिकित्सकीय स्थलाकृति पर टिप्पणी और ‘विजिट टू द कोर्ट ऑफ सिंध’ के लेखन ने कच्छ के इतिहास पर जानकारी प्रदान की। एलेक्जेंडर बर्न्स का वृत्तांत, ‘ट्रेवल्स इन्टू बोखारा’ जो 1834 में तीन वॉल्यूम में प्रकाशित हुआ, भारत से काबुल की उसकी यात्रा का वर्णन है। इस यात्रा का राजनीतिक उद्देश्य यह पता लगाना था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए सिंधु क्षेत्र किस प्रकार लाभदायक रहेगा।

Click Herer For मुग़ल साम्राज्य 

सी.जे.सी. डेविडसन का 1843 में प्रकाशित डायरी ऑफ द ट्रेवल्स एंड एडवेंचर्स इन अपर इंडिया भी बेहद उपयोगी कार्य है। जॉन बटलर द्वारा असम प्रांत (1855) में लिखा यात्रा वृतांत ट्रेवल्स एंड एडवेंचर्स राज्य की पहाड़ी जनजातियों की प्रथाओं, आदतों एवं समाज का वर्णन है। डब्ल्यू.एच. स्लीमैन की ‘जर्नी धू द किंगडम ऑफ अवध’ अवध की राजनीतिक और आर्थिक दशाओं को प्रतिबिम्बित करती है।

अंग्रेजों के अतिरिक्त अन्य यूरोपीय देशों के यात्रियों ने भी रोचक वृत्तांत प्रस्तुत किए हैं। इस श्रेणी में विक्टर जेकमोन्ट, कैप्टन लियोपोल्ड वॉन ऑरलिच, बरोन चार्ल्स हयूगल, जॉन मार्टिन हॉनिगबर्जर, विलियम मूरक्रॉफ्ट एवं जॉर्ज ट्रेबेक इत्यादि प्रमुख रूप से शामिल हैं।

समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएं

 19वीं और 20वीं शताब्दियों के समाचार-पत्र और पत्रिकाओं, अंग्रेजी के साथ-साथ विभिन्न देशी भाषाओं में प्रकाशित, ने आधुनिक भारतीय इतिहास के सृजन हेतु जानकारी के बेहद महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक स्रोत का निर्माण किया। कुछ समाचार-पत्र 1780 के दशक से भी पूर्व प्रकाशित हुए। भारत में समाचार-पत्र प्रकाशित करने का प्रथम प्रयास अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के असंतुष्ट कर्मचारियों द्वारा किया गया जो निजी व्यापार में कुरीतियों को उद्घाटित करना चाहते थे। भारत में जेम्स आगस्टस हिके ने 1780 में बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवर्टाइजर नामक पहला समाचार  पत्र प्रकाशित किया। तत्पश्चात् द कलकत्ता गजट (1784), द बंगाल जर्नल (1785), 

द ऑरिएंटल मैग्जीन ऑफ कलकत्ता या कलकत्ता अम्यूजमेंट (1785), द कलकत्ता क्रॉनिकल (1786), द मद्रास करिअर (1788) और द वाम्बे हेराल्ड (1789) जसे कई प्रकाशन प्रकट हुए।

महत्वपूर्ण समाचार-पत्र 

प्रेस एक्ट 1835 की नरम नीति, जो 1856 तक जारी रही, ने देश में समाचार-पत्रों के विकास को प्रोत्साहित किया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से कई प्रभावशाली समाचार-पत्र प्रसिद्ध एवं निडर पत्रकारों के नेतृत्व में सामने आए। कुछ महत्वपूर्ण समाचार-पत्र थे-जी. सुब्रमण्यम अय्यर के संपादकत्व में द हिंदू और स्वेदेशमित्रन, वालगंगाधर तिलक के नेतृत्व में केसरी और महाराट्टा, सुंदर नाथ बनर्जी के तहत् वेंगाली,

Click Here For :- Human Nervous System
Click Here For :-Human Skeletal System
Click Here For :- Human Endocrine System
Click Here For ::- Tissue

शिशिर कुमार घोष और मोतीलाल घोप के नेतृत्व में अमृत बाजार पत्रिका, गोपाल कृष्ण गोखले के तहत् सुधारक, एन.एन. सेन का इंडियन मिरर, दादाभाई नौरोजी का वॉयस ऑफ इंडिया, जी.पी. वर्मा का एडवोकेट, पंजाब में ट्रिब्यून एवं अखवार, बॉम्बे में इंदु प्रकाश, ध्यान प्रकाश, कल एवं गुजराती, बंगाल में सोम प्रकाश बंग निवासी एवं सधारनी। यह रोचक तथ्य है कि 1885 में गठित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लगभग एक-तिहाई संस्थापक पत्रकार थे।

विदेशी प्रकाशन

 कुछ समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन विदेशों में भी हुआ। उदाहरणार्थ, श्यामजी कृष्णवर्मा ने लंदन में इंडियन सोशियोलॉजिस्ट का प्रकाशन किया। इसी प्रकार, मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस से वंदे मातरम् और वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय ने वर्लिन से तलवार प्रकाशित किया। इस संदर्भ में, 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक के दौरान सैन फ्रांसिस्को से गदर पत्र गदर पार्टी के मुखपत्र के तौर पर प्रकाशित किया गया, और वैंकुवर से तारकनाथ दास का हिंदुस्तान प्रकाशित हुआ। इन सभी ने विदेशों में क्रांतिकारी एवं राष्ट्रवादी गतिविधियों पर पर्याप्त प्रमाण एवं जानकारी प्रदान की। 

समाचार-पत्रों का महत्व

 समाचार-पत्र जनमत का निर्माण करते हैं और उनके द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट का लोगों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। समाचार-पत्र विभिन्न घटनाओं पर लोगों की भावनाओं एवं दृष्टिकोण को आकार प्रदान करते हैं। समाचार-पत्र आधुनिक भारतीय दनिवास के महत्वपूर्ण स्रोत रहे हैं। इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 1870 के पाक से इन अखबारों (अंग्रेजी एवं देशी भाषाओं दोनों) ने भारतीय औपनिवेशिक से वर्तमान समय तक जीवन के लगभग सभी पहलुओं को चित्रित किया है।

1990 के दशक से अखबारों ने गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता हेतु राष्ट्रवादी संघर्ष के दौरान प्रमख घटनाओं को सूक्ष्म तरीके से विश्लेषित एवं शामिल किया। हालांकि, समाचार-पत्रों को निष्पक्ष तौर पर नहीं देखा गया। इन्हें ऐसे लोगों द्वारा काशित किया गया जिनके अपने राजनीतिक विचार एवं वैश्विक मत थे।

मौखिक प्रमाण 

मौखिक इतिहास अलिखित स्रोतों की मदद से इतिहास के सृजन को संदर्भित करता है। उदाहरणार्थ, वैयक्तिक संस्मरण एक प्रकार का मौखिक स्रोत है। मौखिक स्रोतों से इतिहासकार अपने विपय की सीमाओं का विस्तार कर सकते हैं। हालांकि, कई इतिहासकार मौखिक इतिहास के प्रति संशक्ति हैं। वे इसे नकारते हैं, चूंकि मौखिक तथ्यों में प्रमाणिकता एवं कालक्रम का अभाव होता है और वे अस्पष्ट हो सकते हैं। इतना होते हुए भी, ये स्रोत महत्वपूर्ण हैं जैसाकि वे इतिहासकारों की अन्य स्रोतों से जटायी जानकारी की पुष्टि करने में मदद करते हैं। 

 सृजनात्मक साहित्य 

आधुनिक भारतीय इतिहास के स्रोत के तौर पर सृजनात्मक साहित्य के संदर्भ में, हम स्वयं को पश्चिम के प्रभावाधीन भारत में 19वीं और 20वीं शताब्दियों में विकसित (अंग्रेजी एवं देशी भाषाओं दोनों में) नवीन साहित्यिक रूपों तक सीमित करेंगे। देशी भाषाओं में प्राचीन साहित्य पूरी तरह से पद रूप में है और यह साहित्य 18वीं और 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के दौरान मौजूद था।

नवीन साहित्यिक केंद्रों का विकास

19वीं शताब्दी में अंग्रेजी साहित्य के प्रभावाधीन, भारतीय काव्य ने अपने नयेपन को पुनः हासिल किया और यह छंद, गीतात्मक एवं चतुष्पद जैसे नवीन रूपों के साथ प्रयोग था। सबसे ऊपर, नवीन सृजनात्मक भावना का बाहुल्य था जिसने काव्य के रूप को बदल डाला। मंच के अभ्युदय ने आधुनिक युग के सृजनात्मक साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की। मंच की स्थापना ने शास्त्रीय संस्कृत नाट्य और पश्चिमी मंचन दोनों के प्रभाव में नाटकरूपी साहित्य की अत्यधिक उन्नति को आवेग प्रदान किया। इन सभी साहित्यिक विकास एवं लेखन ने औपनिवेशिक समय के लोगों के जीवन पर प्रचर जानकारी प्रदान की।

Click Here For ::- Human Circulatory System
Click Here For :- Periodic Table
Click Here For :- What is Elements

वास्तव में भारतीय रोमांटिक काव्य स्वतंत्रता के भारतीय संघर्ष का मुखरित प्रतिनिधि था। इनमें से कुछ प्रमुख थे-उर्दू के मोहम्मद इकबाल (1876-1938), हिंदी में निराला (1897-1961), बंगाली में काजी नजरूल इस्लाम (1899-1976), मराठी में कशवसुत (1866-1905), मलयालम में जी. शंकर कुरूप (1902) । सुब्रमण्यम भारती (1882-1921), प्रसिद्ध तमिल राष्ट्रवादी कवि, भी इसी काल से संबंधित थे।

स्रोत के रूप में उपन्यास 

इंडो-यूरोपियन संपर्क का महत्वपूर्ण परिणाम उपन्यास था जो 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उदित हुआ। उस समय के प्रथम महत्वपूर्ण लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी (1838-94), प्रसिद्ध बंगाली उपन्यासकार, थे। उनके उपन्यास अधिकतर ऐतिहासिक हैं और इनमें से आनंद मठ (1882) बेहद लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध हुआ, विशेष रूप से इसके प्रभावशाली राष्ट्रीय गीत वंदेमातरम के लिए। इच्छाराम सूर्यराम देसाई (1853-1912) मध्यकालीन गुजराती साहित्यिक इतिहास के बेहतरीन विद्वान थे। उनका प्रथम उपन्यास हिंद आने ब्रिटानिका राजनीतिक अधिस्वर वाले शुरुआती उपन्यासों में से एक था।

गिरिजा देवी और रामतीरथ थम्माल, जिन्होंने क्रमशः मोहनरा रजनी (1931) और दसिकलिन मोसा बलई (1936) उपन्यास लिखे, ने भी उपन्यास को सामाजिक अनुभव का एक प्रभावी माध्यम बनाया। यह प्रेमचंद (1880-1936) थे, एक उपन्यासकार एवं उर्दू-हिंदी के लघु कहानीकार, जिन्होंने कल्पित साहित्यिक संसार में भारत को एक अलग स्थान दिलाया। उन्होंने उपन्यास का प्रयोग सामाजिक परिवर्तन के रूप में किया और उनके उपन्यासों ने भारतीय ग्रामीण समाज के आयामों की समझ और गहरी सामाजिक चिंताओं को प्रतिविम्बित किया।

Click Here For :- A to Z Computer Full Forms List

उनके लेखन में रंगभूमि (1924), गोदान (1936), सेवासदन (1919), प्रेमाश्रम (1924) जैसे प्रमुख उपन्यास एवं कफन, पूस की रात, शतरंज के खिलाडी इत्यादि लघु कहानियां शामिल हैं। ग्रामीण जीवन को उद्घाटित करने की उपन्यास की परम्परा को फणीश्वर नाथ रेणु (1921-1973), के हिंदी उपन्यास ‘मैला आंचल’ ने आगे बढ़ाया। इस दिशा में विभूति भूषण वंधोपाध्याय (1899-1951) ने पाथेर पांचाली (1929), ओडिया में मोहंती का प्रजा, गुजराती में पन्नालाल पटेल का मेकलजीत, मराठी में भालचन्द्र नमाडे का कोसला प्रमुख हैं। मुल्कराज आनंद एवं राजा राव जैसे एंग्लो-इंडियन लेखकों के उपन्यास क्रमशः अनटचेवल (1935) और कंथापा (1938) ने सामाजिक एवं राजनीतिक कोलाहल एवं संक्रमण को दर्शाया है। आर.के. नारायण की स्वामी एंड फ्रैंड्स (1935) भारत के अद्भुत लघु रूप को प्रस्तुत करती है।

  लघु कहानी

लघु  कहानी लेखन के क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ टैगोर एक प्रसिद्ध लेखक के रूप में उदित हुए। उनकी कहानियां जिसमें पोस्ट मास्टर (1891), काबुलीवाला (1892) इत्यादि शामिल हैं, ग्रामीण भारत के प्रामाणिक अनुभव के रूप में सामने आयीं। प्रेमचंद की वास्तविक कहानियों ने समाज एवं लोगों के व्यवहार का दर्पण प्रस्तुत किया। ऐसे कई अन्य लघु कहानी लेखक हुए जिन्होंने औपचारिक भारत की समकालीन सामाजिक वास्तविकता को प्रतिवंध किया |

 चित्रकला 

औपनिवेशिक काल के दौरान सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन के बारे में जानकारी उस समय की चित्रकारी से प्राप्त की जा सकती है। इन्हें आधुनिक भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। ॐ स्रोत के रूप में चित्रकला ऐसा ही एक चित्रकला विद्यालय था ‘कंपनी चित्रकला’ । ‘कंपनी पेंटिंग्स’ शब्द का प्रयोग गैर-इतिहासकारों द्वारा यूरोपियों के लिए निर्मित एक विशेष प्रकार की भारतीय चित्रकारी के लिए प्रयोग किया गया जो बड़े पैमाने पर यूरोपियों की इच्छा एवं पसंद से प्रभावित थी। 

 कंपनी चित्रकला का विकास 

यह ऐसा समय था जब चित्रकारों के संरक्षण के अभाव के चलते मुगल और राजपूत लघु चित्र कला का पतन हो गया। भारतीय कलाकारों को रेलवे प्रोजेक्ट, और प्राकृतिक इतिहास सर्वेक्षण के ब्लूप्रिंट का खाका तैयार करने के लिए अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भर्ती किया गया या इन्होंने ब्रिटिश नागरिकों के लिए स्वतंत्र रूप से काम किया जो वापसी पर (इंग्लैंड) एक निशानी ले जाना चाहते थे। 

1760 के आस-पास, मुर्शिदाबाद से कई चित्रकार पटना आ गए। 18वीं शताब्दी के अंत तक, पटना 11 कला केंद्रों का मुख्यालय बनाया गया जिसमें से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल को विभाजित कर लिया। कंपनी स्कूल की चित्रकारी शैली पटना स्कूल के तौर पर भी जानी जाती है। 

Click Here For :- जैन धर्म

अन्य प्रभावशाली चित्रकारी केंद्र वाराणसी, एक प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थल, एवं मद्रास, जहां 1798 से 1804 लॉर्ड क्लाइव रहे, थे।

ब्रिटिश बाजार में अनाज, फल एवं सब्जियां बेचने जैसे दैनंदिन जीवन के चित्रों को सहेजना चाहते थे। चित्रकारी दिखाती हैं कि 1850 के बाजार आज के भारत में खाद्य बाजारों के समान थे। धर्म, जाति एवं व्यवसाय भी बेहद लोकप्रिय विषय थे, विशेष रूप से दक्षिण भारत में। कंपनी स्कूल के चित्रकारों ने गहरे भारतीय अपारदर्शी रंगों की जगह पानी वाले हल्के रंगों का प्रयोग करना शुरू किया। भारतीय लघु चित्र कला में परम्परागत रूप से प्रयुक्त चमकीले रंगों की जगह हल्के नीले, हरे, एवं भूरे रंगों का प्रयोग होने लगा।

कंपनी चित्रकारी को भारत के लोगों के अभ्युदय के ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

1857 के विद्रोह पर चित्रकारी

 पेंटिंग्स, पेंसिल ड्राइंग, पोस्टर्स, कार्टून्स एवं बाजार प्रिंट के रूप में भारतीयों एवं ब्रिटिश या अंग्रेजों द्वारा 1857 के विद्रोह की चित्रित तस्वीरें एक महत्वपूर्ण अभिलेख है। विद्रोह की पेंटिंग्स इस प्रमुख घटना पर अंग्रेजों एवं भारतीयों के विश्वमत को समझने एवं व्याख्या करने में इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण हैं।

कालीघाट चित्रकला 

 कालीघाट चित्रकला, जो उन्नीसवीं शताब्दी में कलकत्ता में विकसित हुई, ने न केवल पौराणिक चरित्रों एवं आकृतियों को उकेरा अपितु अपने दैनंदिन जीवन में संलग्न आम लोगों को भी दर्शाया। साधारण जन के जीवन की तस्वीरों ने तत्कालीन कलकत्ता में सामाजिक जीवन के परिवर्तनों को चित्रित किया। इन चित्रकलाओं ने तत्कालीन सामाजिक बुराइयों पर भी टिप्पणी की। 

कला स्कूल 

1857 के थोड़े समय पश्चात्, बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में कला स्कूल खोले गए। इनमें शिक्षण पद्धति एवं पाठ्यक्रम ब्रिटिश रॉयल एकेडमी पर आधारित था। भारतीय विद्यार्थियों ने ऑयल रंगों को कैनवास पर वाटर कलर को पेपर पर प्रयोग करने जैसी नवीन कला सामग्री को समझा। भारत में अंग्रेजी-शिक्षित शहरी मध्य वर्ग की विचारधारा एवं दृष्टिकोण में गहरा बदलाव आया। अंग्रेजी साम्राज्य के नकारात्मक परिणामों के प्रति जागरूकता में वृद्धि हुई।

Click Here For :- भारत की मिट्टियाँ

कला पर राष्ट्रवाद का प्रभाव

 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में सृजित नए प्रकार की भारतीय कला की प्रारम्भिक प्रेरणा राष्ट्रवादी एवं देशभक्ति थी। इस नवीन कला आंदोलन ने अपना शुरुआती अभिप्रेरण उदीयमान राष्ट्रवाद से ग्रहण किया। नंदलाल बोस एवं राजा रवि वर्मा जैसे कलाकार इस नवीन कला रूप के प्रतिनिधि थे। अबनीन्द्रनाथ टैगोर, ई.बी. हॉबेल एवं आनंद केन्टिश कुमारास्वामी के नेतृत्व में बंगाल स्कूल के अभ्युदय ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यद्यपि इस नवीन कला रूप की चित्रकारी ने शुरुआती रूप में भारतीय । प्रणाली विज्ञान एवं सांस्कृतिक विरासत की विषय-वस्तु पर ध्यान केन्द्रित किया। ये भारत में आधुनिक कला आंदोलन के अध्ययन एवं कला इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत हैं। 

Note :- Click Here  All Govt Jobs Update 

Adhunik Bharat Ka Itihas
Adhunik Bharat Ka Itihas
Spread the love

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *