Champaran Andolan In Hindi
गांधीजी की भारत वापसी // चम्पारण सत्याग्रह // खेड़ा सत्याग्रह // अहमदाबाद मिल हड़ताल // तीन संघर्षोंमें गांधीजी की की उपलब्धियां
गांधीजी की भारत वापसी
गांधीजी, जनवरी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष और उनकी सफलताओं ने उन्हें भारत में अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया था। न केवल शिक्षित भारतीय अपितु जनसामान्य भी गांधीजी के बारे में भलीभांति परिचित हो चुका था। गांधीजी ने निर्णय किया कि वे अगले एक वर्ष तक समूचे देश का भ्रमण करेंगे तथा जनसामान्य की यथास्थिति का स्वयं अवलोकन करेंगे। उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि फिलहाल वह किसी राजनीतिक मुद्दे पर कोई सार्वजनिक कदम नहीं उठायेंगे। भारत की तत्कालीन सभी राजनीतिक विचारधाराओं से गांधीजी असहमत थे।
नरमपंथी राजनीति से उनकी आस्था पहले ही खत्म हो चुकी थी तथा वे होमरूल आंदोलन की इस रणनीति के भी खिलाफ थे कि अंग्रेजों पर कोई भी मुसीबत उनके लिये एक अवसर है। यद्यपि होमरूल आंदोलन इस समय काफी लोकप्रिय था किन्तु, इसके सिद्धांत गांधीजी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। उनका मानना था कि ऐसे समय में जबकि ब्रिटेन प्रथम विश्व युद्ध में उलझा हुआ है, होमरूल आंदोलन को जारी रखना अनुचित है। उन्होंने तर्क दिया कि इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है–अहिंसक सत्याग्रह । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया कि जब तक कोई राजनीतिक संगठन सत्याग्रह के मार्ग को नहीं अपनायेगा तब तक वे ऐसे किसी . भी संगठन से सम्बद्ध नहीं हो सकते।
रौलेट सत्याग्रह प्रारम्भ करने से पहले गांधीजी, ने तीन संघर्षोंमें हिस्सा लिया।
रौलेट सत्याग्रह प्रारम्भ करने से पहले, 1917 और 1918 के आरम्भ में गांधीजी, ने तीन संघर्षों-चम्पारण आंदोलन (बिहार) तथा अहमदाबाद और खेड़ा (दाना गुजरात) सत्याग्रह में हिस्सा लिया। ये तीनों ही आंदोलन स्थानीय आर्थिक मांगों सम्बद्ध थे। इनमें अहमदाबाद का आंदोलन, औद्योगिक मजदूरों का आंदोलन था तथा चम्पारण और खेड़ा किसान आंदोलन थे।
किसान आंदोलन
1.चम्पारण सत्याग्रह (1917)-प्रथम सविनय अवज्ञा
चम्पारण सत्याग्रह (1917)-प्रथम सविनय अवज्ञा चम्पारण का मामला काफी पुराना था। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में गोरे बागान मालिकों ने किसानों से एक अनुबंध करा लिया, जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि के 3/20वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। यह व्यवस्था ‘तिनकाठिया. पद्धति’ के नाम से जानी जाती थी।
19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंगों (डाई) का विकास हो गया, जिसने नील को बाजार से बाहर खदेड़ दिया। इसके कारण चम्पारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने को विवश हो गये। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे। किन्तु परिस्थितियों को देखकर गोरे बागान मालिक किसानों की विवशता का फायदा उठाना चाहते थे।उन्होंने दूसरी फसलों की खेती करने के लिये किसानों को अनुबंध से मुक्त करने की एवज में लगान व अन्य करों की दरों में अत्यधिक वृद्धि कर दी। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने द्वारा तय की गयी दरों पर किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये बाध्य किया। चम्पारण से जुड़े एक प्रमुख आंदोलनकारी राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चम्पारण बुलाने का फैसला किया।
फलतः गांधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, बृज किशोर, मजहर उल-हक, महादेव देसाई, नरहरि पारिख तथा जे.बी. कृपलानी के सहयोग से मामले की जांच करने चम्पारण पहुंचे। गांधीजी के चम्पारण पहुंचते ही अधिकारियों ने उन्हें तुरन्त चम्पारण से चले जाने का आदेश दिया। किन्तु गांधीजी ने इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया तथा किसी भी प्रकार के दंड को भुगतने का फैसला किया। सरकार के इस अनुचित आदेश के विरुद्ध गांधीजी द्वारा अहिंसात्मक प्रतिरोध या सत्याग्रह का यह मार्ग चुनना विरोध का सर्वोत्तम तरीका था।
गांधीजी की दृढ़ता के सम्मुख सरकार विवश हो गयी, अतः उसने स्थानीय प्रशासन को अपना आदेश वापस लेने तथा गांधीजी को चम्पारण के गांवों में जाने की छूट देने का निर्देश दिया। इस बीच सरकार ने सारे मामले की जांच करने के लिये एक आयोग का गठन किया तथा गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया। गांधीजी, आयोग को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकाठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिये। उन्होंने आयोग को यह भी समझाया कि किसानों से पैसा अवैध रूप से वसूला गया है, उसके लिये किसानों को हरजाना दिया जाये।
बाद में एक और समझौते के पश्चात् गोरे बागान मालिक अवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा किसानों को लौटाने पर राजी हो गये। इसके एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ : दिया। इस प्रकार गांधीजी ने भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रथम युद्ध सफलतापूर्वक जीत लिया। चम्पारन सत्याग्रह से सम्बद्ध अन्य लोकप्रिय नेताओं में अनुग्रह नारायण सिन्हा, रामनवमी प्रसाद एवं शंभुशरण वर्मा शामिल थे।
2.खेड़ा सत्याग्रह (1918)-प्रथम असहयोग
वर्ष 1918 के भीषण दुर्भिक्ष के कारण गुजरात के खेड़ा जिले में पूरी फसल बरबाद हो गयी, फिर भी सरकार ने किसानों से मालगुजारी वसूल करने की प्रक्रिया जारी रखी। ‘राजस्व संहिता के अनुसार, यदि फसल का उत्पादन, कुल उत्पाद के एक-चौथाई से भी कम हो तो किसानों का राजस्व पूरी तरह माफ कर दिया जाना चाहिए, किन्तु सरकार ने किसानों का राजस्व माफ करने से मना कर दिया। गुजरात सभा, जिसम किसान शामिल थे, ने 1919 के राजस्व वर्ष के मूल्यांकन को लागू न करने की प्राथना के लिए प्रांत के सर्वोच्च शासकीय प्राधिकारियों के सम्मुख याचिका रखी। सरकार कठोर बनी रही और कहा कि यदि करों का भुगतान न किया गया तो किसाना का संपत्ति जब्त कर ली जाएगी। फलस्वरूप गांधीजी ने किसानों को राजस्व अदा न कर तथा सरकार के दमनकारी कानून के खिलाफ संघर्ष करने की प्रेरणा दी।
खेड़ा के युवा अधिवक्ता वल्लभभाई पटेल, इंदुलाल याज्ञिक तथा कई अन्य युवाआ गांधीजी के साथ खेड़ा के गांवों का दौरा प्रारम्भ किया। इन्होंने किसानों को लगानन अदा करने की शपथ दिलायी। गांधीजी ने घोषणा की कि यदि सरकार गरीब किसानों का लगान माफ कर दे तो लगान देने में सक्षम किसान स्वेच्छा से अपना लगान अदा कर देंगे। दूसरी ओर, सरकार ने लगान वसूलने के लिये दमन का सहारा लिया। कई स्थानों पर किसानों की संपत्ति कुर्क कर ली गयी तथा उनके मवेशियों को जन्त कर लिया गया। अंततः, सरकार ने किसानों के साथ एक समझौता किया। उसने एक वर्ष। के लिए कर माफ कर दिया और आगामी वर्षों में करों की दर में कमी की तथा किसानों की जब्त संपत्ति को लौटा दिया।
खेड़ा आंदोलन ने किसानों के बीच एक नवीन जागरूकता का संचार किया। किसान जागरूक हुए कि जब तक उनका देश संपूर्ण आजादी प्राप्त नहीं करता, वे अन्याय और शोषण से मुक्त नहीं होंगे।
औद्योगिक मजदूरों का आंदोलन
1.अहमदाबाद मिल हड़ताल (1918)-प्रथम भूख हड़ताल
चम्पारण के पश्चात् गांधीजी ने मार्च 1918 में, अहमदाबाद मिल हड़ताल के मुद्दे पर हस्तक्षेप किया। यहां मिल मालिकों और मजदूरों में ‘प्लेग बोनस’ को लेकर विवाद छिड़ा था। गांधीजी ने मजदूरों को हड़ताल पर जाने तथा 50 प्रतिशत के स्थान पर 35 प्रतिशत बोनस की मांग करने को कहा। जुबकि मिल मालिक, मजदूरों को केवल 20 प्रतिशत बोनस देने के लिये राजी थे। गांधीजी ने मजदूरों को सलाह दी कि वे शांतिपूर्ण एवं अहिंसक ढंग से अपनी हड़ताल जारी रखें। गांधीजी ने मजदूरों के समर्थन में भूख हड़ताल प्रारम्भ करने का फैसला किया। अंबालाल साराभाई की बहन अनुसुइया बेन ने इस संघर्ष में गांधीजी को सक्रिय योगदान प्रदान किया। इस अवसर पर उन्होंने एक दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया। गांधीजी के अनशन पर बैठने के फैसले से मजदूरों के उत्साह में वृद्धि हुई तथा उनका संघर्ष तेज हो गया। मजबूर होकर मिल मालिक समझौता करने को तैयार हो गये तथा सारे मामले को एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया। जिस मुद्दे को लेकर हड़ताल प्रारम्भ हुई थी, ट्रिब्यूनल के फैसले से वह समाप्त हो गया। ट्रिब्यूनल ने मजदूरों के पक्ष में निर्णय देते हुए मिल मालिकों को 35 प्रतिशत बोनस मजदूरों को भुगतान करने का फैसला सुनाया। गांधीजी की यह दूसरी प्रमुख विजय थी।
चम्पारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा में गांधीजी की की उपलब्धियां
- चम्पारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा आन्दोलन ने गांधीजी को संघर्ष के गांधीवादी तरीके ‘सत्याग्रह’ को आजमाने का अवसर दिया।
- गांधीजी को देश की जनता के करीब आने तथा उनकी समस्यायें समझने का अवसर मिला है.| गांधीजी जनता की ताकत तथा कमजोरियों से परिचित हुए तथा उन्हें अपनी रणीनति का मूल्यांकन करने का अवसर मिला।
- इन आन्दोलनों में गांधीजी को समाज के विभिन्न वर्गों, विशेषतया युवा पीढ़ी का भरपूर समर्थन मिला तथा भारतीयों के मध्य उनकी विशिष्ट पहचान कायम हो गयी।
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3 सप्ताह में पोलैंड परास्त हो गया। ब्रिटेन और फ्रांस ने पश्चिम में भी कोई सैनिक कार्रवाई आरंभ नहीं की थी। द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हो चुका था, लेकिन अभी वह पूर्व में यूरोप के एक छोटे-से हिस्से तक सीमित था। युद्ध की घोषणा के बाद लगभग एक महीने तक छोटी-मोटी नौसैनिक झड़पों को छोड़कर ब्रिटेन और फ्रांस की जर्मनी के साथ कोई वास्तविक युद्ध नहीं हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के इस दौर को इतिहास में वाक्-युद्ध कहा गया है।
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