Jallianwala Bagh Hatyakand
जलियांवाला बाग हत्याकांड( Jallianwala Bagh Hatyakand ) कब हुआ ?
अमृतसर हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हुआ। शुरू में प्रदर्शनकारियों ने किसी प्रकार की हिंसा नहीं की। भारतीयों ने अपनी दुकानें बंद कर दी और खाली सड़कों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दिए गए धोखे को लेकर भारतीयों की नाराजगी जाहिर की। 9 अप्रैल को, राष्ट्रवादी नेताओं सैफुद्दीन किचलु और डा. सत्यपाल को ब्रिटिश अधिकारियों ने गिरफ्तार कर लिया।
इस घटना से हजारों भारतीयों में रोष व्याप्त हो गया और वे 10 अप्रैल, 1919 को सत्याग्रहियों पर गोली चलाने तथा अपने नेताओं डा. सत्यपाल व डा. किचलू को पंजाब से बलात् बाहर भेजे जाने का विरोध कर रहे थे। जल्द ही विरोध-प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया, चूंकि पुलिस ने गोली चलाना शुरू कर दिया, जिसमें कुछ प्रदर्शनकारी मारे गए जिससे काफी तनाव फैल गया। दंगे में पांच अंग्रेज भी मारे गए और मार्सेला शेरवुड, एक अंग्रेज मिशनरी महिला, जो साईकिल पर जा रही थी, को पीटा गया।
यह भी पढ़ें :- रोलेट एक्ट क्या है ?
उपद्रव को शांत करने के लिए तुरंत सैनिक टुकड़ी को भेजा गया। क्षेत्र में मार्शल कानून लागू करने और स्थिति शांतिपूर्ण बनाए रखने की जिम्मेदारी वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर को सौंपी गई। डायर ने, हालांकि, 13 अप्रैल, 1979 को एक घोषणा जारी की कि लोग पास के बिना शहर से बाहर न जाएं और एक समूह में तीन लोगों से अधिक लोग जुलूस, प्रदर्शन या सभाएं न करें।
यह भी पढ़ें:- द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण
13 अप्रैल (बैसाखी के दिन) को, आस-पास के गांव के लोग बैसाखी मनाने के लिए शहर के लोकप्रिय स्थान जलियांवाला बाग(Jallianwala Bagh ) में इकट्ठे हुए, जो जनरल डायर की घोषणा से अनजान थे। स्थानीय नेताओं ने भी इसी स्थान पर एक विरोध सभा का आयोजन किया। त्योहार के आयोजन के बीच विरोध-प्रदर्शन बैठक भी शांतिपूर्ण तरीके से चल रही थी, जिसमें दो प्रस्ताव-रौलेट अधिनियम की समाप्ति और 10 अप्रैल की गोलीबारी की निंदा-पारित किए गए। जनरल डायर ने इस सभा के आयोजन को सरकारी आदेश की अवहेलना समझा तथा सभा स्थल को सशस्त्र सैनिकों के साथ घेर
लिया। डायर ने बिना किसी पूर्व चेतावनी के सभा पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। लोगों पर तब तक गोलियां बरसायी गयीं, जब तक सैनिकों की गोलियां समाप्त नहीं हो गयीं। सभा स्थल के सभी निकास मार्गों के सैनिकों द्वारा घिरे होने के कारण सभा में सम्मिलित निहत्थे लोग चारों ओर से गोलियों से छलनी होते रहे। इस घटना में लगभग 1000 लोग मारे गये, जिसमें युवा, महिलायें, बूढ़े, बच्चे सभी शामिल थे।
यह भी पढ़ें :- तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण
जलियांवाला बाग हत्याकांड(Jallianwala Bagh Massacre) से पूरा देश स्तब्ध रह गया। वहशी क्रूरता ने देश को मौन कर दिया। पूरे देश में बर्बर हत्याकांड की भर्त्सना की गयी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विरोध स्वरूप अपनी ‘नाइटहुड’ की उपाधि त्याग दी तथा शंकरराम नागर ने वायसराय की कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया। अनेक स्थानों पर सत्याग्रहियों ने अहिंसा का मार्ग त्यागकर हिंसा का मार्ग अपनाया, जिससे 18 अप्रैल 1919 को गांधीजी ने अपना सत्याग्रह को समाप्त घोषित कर दिया, क्योंकि उनके सत्याग्रह में हिंसा का कोई स्थान नहीं था। ए.पी.जे. टेलर, इतिहासकार, के अनुसार, “जलियांवाला बाग जनसंहार एक ऐसा निर्णायक मोड़ था जब भारतीय ब्रिटिश शासन से अलग हुए”।

1919 की घटना ने पंजाब की प्रतिरोध या विरोध-प्रदर्शन की राजनीति को आकार प्रदान किया। भगत सिंह की भारत नौजवान सभा ने इस जनसंहार को ऐसे कृत्य के रूप में देखा जो असहयोग आंदोलन की समाप्ति के पश्चात् उत्पन्न संताप से उबरने में मदद करेगा।उधम सिंह, जिन्होंने अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद रखा, ने लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर, जिसने पंजाब में 1919 के विरोध प्रदर्शन के वीभत्स रूप से कुचलने का संचालन किया, की हत्या कर दी, जिसके लिए उन्हें वर्ष 1940 में फांसी की सजा दी गई। (वर्ष 1974 में उनकी अस्थियों को भारत लाया गया।)
हंटर आयोग
जलियांवाला बाग हत्याकांड(Jallianwala Bagh Massacre) ने भारतीयों और साथ ही साथ कई अंग्रेजों को भी स्तब्ध कर दिया। भारत सचिव एडविन मांटेग्यू ने इस मामले की जांच के लिए एक समिति का गठन किया। इसलिए 14 अक्टूबर, 1919 को भारत सरकार ने डिस्ऑर्डर इंक्वायरी कमेटी, जिसे लोकप्रिय एवं व्यापक तौर पर हंटर कमीशन के नाम से जाना। जाता है, चूंकि इसके अध्यक्ष का नाम विलियम हंटर, स्कॉटलैंड के भूतपूर्व सॉलिसिटर।
-जनरल और स्कॉटलैंड में कॉलेज ऑफ जस्टिस के सीनेटर, था। इस आयोग का उद्देश्य-बॉम्बे, दिल्ली एवं पंजाब में हुए उपद्रवों के कारणों की जांच करना और उनसे निपटने के उपाय सुझाना था।
हंटर आयोग में सदस्य के तौर पर तीन भारतीय-सर चिमनलाल हरिलाल सीतलवाडा. बॉम्बे विश्वविद्यालय के उप-कलपति और बॉम्बे उच्च न्यायालय के अधिवक्ता; पंडित जगत नारायण, संयुक्त प्रांत की विधायी परिषद् के सदस्य और अधिवक्ता; और सरदार साहिबजादा सुल्तान अहमद खान, ग्वालियर राज्य के अधिवक्ता-शामिल थे।
29 अक्टूबर, 1919 को दिल्ली में बैठक के पश्चात्, आयोग ने दिल्ली, अहमदाबाद, बॉम्बे और लाहौर से बुलाए गए गवाहों के बयान दर्ज किए। नवम्बर 1919 में, आयोग लाहौर पहंचा और अमृतसर की घटना के मुख्य गवाह के बयानों की जांच की। डायर को आयोग के सम्मुख उपस्थित होने को कहा गया। उसे विश्वास था कि उसने जो कुछ भी किया केवल उसका काम था। डायर ने बयान दिया कि उसकी इच्छा पूरे पंजाब से आतंक को खत्म करने की थी, और ऐसा करने में विद्रोहियों के मनोबल में कमी आई।
डायर ने यह कहने में अपनी शान समझी कि, “ऐसा हो सकता था कि वह बिना गोली चलाए भीड़ को तितर-बितर कर सकता था, लेकिन वे फिर से आते और हमारा मजाक बनाते और ऐसा करके वह स्वयं को मूर्ख नहीं बनाना चाहता था।” उसने यह भी कहा कि उसने गोली बरसाने के बाद घायलों को उपचार के लिए ले जाने का प्रयास नहीं किया, जैसाकि वह नहीं मानता कि यह उसका काम था।
यह भी पढ़ें :- प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण क्या थे
यद्यपि, डायर के बयान ने आयोग के सदस्यों के बीच नस्लवादी तनाव उत्पन्न किया, तथापि मार्च 1920 को आयोग की अंतिम रिपोर्ट आयी, जिसने निष्पक्ष रूप से डायर के कृत्य की निंदा की। रिपोर्ट ने कहा कि बाग में भीड़ को हटाने की कार्यवाही न करना एक भूल थी; लंबी अवधि तक गोली चलाना एक भारी भूल थी, डायर के पर्याप्त नैतिक प्रभाव को प्रस्तुत करने के प्रयास की निंदा की गई; डायर ने अपने प्राधिकार से बाहर जाकर कार्य किया; जलियांवाला बाग में बिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का षड्यंत्र नहीं चल रहा था।
आयोग के भारतीय सदस्यों ने रिपोर्ट में बताया कि जनसभाएं करने को प्रतिबंधित करने संबंधी घोषणा को पर्याप्त रूप से प्रकाशित नहीं किया गया; भीड़ में निर्दोष लोग थे, और बाग में पहले कोई हिंसा नहीं हुई थी; डायर को या तो अपने सैनिकों को घायलों की मदद करने का आदेश देना चाहिए था या सिविल प्राधिकारियों को ऐसा करने को कहना चाहिए था; डायर का कृत्य ‘अमानवीय और ब्रिटिश परम्परा के विरुद्ध’ था, और इसने भारत में ब्रिटिश शासन की छवि को बेहद धूमिल किया था।
हंटर आयोग ने किसी प्रकार के दंड या अनुशासनात्मक कार्यवाही की अनुशंसा नहीं की, चूंकि डायर के कृत्य को कई बड़े अधिकारियों का समर्थन प्राप्त था (बाद में यह मामला सेना परिषद् को दे दिया गया)। इससे पहले कि हंटर आयोग अपनी कार्यवाही शुरू कर पाता, सरकार ने अपने अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए क्षतिपूर्ति अधिनियम पारित कर दिया। जैसाकि ‘इंडेमनिटी एक्ट’ को वाइट वाशिंग बिल कहा गया और मोतीलाल नेहरू एवं अन्य ने इसकी कड़ी निंदा की।
इंग्लैंड में, तत्कालीन युद्ध सचिव, विन्सटन चर्चिल, को इस रिपोर्ट की समीक्षा करने का कार्य सौंप दिया गया। हाऊस ऑफ कॉमन्स में, चर्चिल ने अमृतसर में घटी इस घटना की निंदा की। उन्होंने इसे शैतानी कार्य कहा, केबिनेट ने चर्चिल के साथ सहमति जताई कि डायर एक खतरनाक व्यक्ति था और उसे पद पर रहने नहीं दिया जाना चाहिए। डायर को अपदस्थ करने के केबिनेट के निर्णय को सेना परिषद् को भेज दिया गया।
अंततः डायर को अपनी ड्यूटी गलत तरीके से निभाने का दोषी पाया गया और 1920 में उसे पद से हटा दिया गया। उसे इंग्लैंड बुला लिया गया। उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाही नहीं की गई। उसे आधी तनख्वाह मिलती रही और सेना की पेंशन भी दी जाती रही।
डायर की पूरी तरह निंदा नहीं की गई। हाऊस ऑफ लॉर्ड्स ने डायर का पक्ष लिया और उसके समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया। और मॉर्निंग पोस्ट समाचार-पत्र ने बताया कि डायर के लिए 26,000 पाउंड की राशि जुटाई गई और इस फंड में सबसे बड़ा योगदान रूडयार्ड किपलिंग ने किया।
Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand Jallianwala Bagh Hatyakand