आपात उपबंध

National Emergency In India | What Is Financial Emergency | President Rule In India

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भारतीय संविधान में राष्ट्र की प्रभुता, एकता और अखण्डता की सुरक्षा के उद्देश्य से एक अनोखी विशेषता का समावेश किया गया है। जिसके तहत ‘भारतीय संघ’ आपात काल के समय संघात्मक से एकात्मक में रूपान्तरित हो जाता है। यद्यपि यह संघवाद के विरुद्ध है, किन्तु राष्ट्र की रक्षा के लिए कुछ समय तक संघवाद के सिद्धान्त को त्याग दिया जाता है। संविधान का भाग-18, अनुच्छेद 352 से 360 तक आपात उपबन्धों के बारे में है।

भाग – 18, जर्मनी के संविधान से प्रेरित (Inspired) है।* भारतीय संविधान में तीन प्रकार के आपात की परिकल्पना की गई हैयथा 

(i) युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशक्त विद्रोह से उत्पन्न आपात अथवा राष्ट्रीय आपात, (अनु. 352

(ii) राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल होने से उत्पन्न आपात, अथवा राष्ट्रपति शासन (अनु. 356)

(ii) वित्तीय आपात (अनु. 360)।

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राष्ट्रीय आपात  ( National Emergency )

अनु. – 352 राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा तथा उससे सम्बन्धित अन्य विषयों के बारे में हैअनु. – 353 तथा 354 के तहत् राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा के प्रभावों को दिया गया है। आपात की उद्घोषणा का मूल अधिकारों पर पड़ने वाला प्रभाव अनु. – 358 तथा 359 में दिया गया है।

राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा (Proclametion of National Emergency)

राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा अनु. – 352 के तहत राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। जब कभी राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि कोई ऐसा गम्भीर आपात विद्यमान है जिसमें, युद्ध (war) या बाह्य आक्रमण (External aggression) या सशस्त्र विद्रोह (armed vebellion) के कारण भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा संकट में है तो वह सम्पूर्ण भारत या उसके किसी भाग के सम्बन्ध में राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा (Proclametion) कर सकता है।

ज्ञातव्य है कि मूल संविधान में ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द के स्थान पर ‘आन्तरिक अशान्ति (Internal Disturbance)’ शब्द था, जिसे 44वें संविधान संशोधन अधि. 1978 द्वारा प्रतिस्थापित (Substituted) किया गया है। यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाता है कि युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह का संकट सन्निकट (imminent danger) है तो वह आपात की उद्घोषणा कर सकता है,

अर्थात् आपात की उदघोषणा युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के वास्तव में घटित होने (actual accurrence) के पूर्व भी की जा सकती है “(44वें संविधान संशोधन अधिनियम-1978 द्वारा यथा संशोधित)। ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति आपात की उद्घोषणा तभी करता है, जबकि मंत्रिमण्डल इस आशय के ‘विनिश्चय की लिखित सूचना’ उसे देती है। ‘लिखित सूचना’ की अनिवार्यता 44वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ी गयी है। उल्लेखनीय है कि 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने आन्तरिक अशान्ति की राष्ट्रपति को संसूचना  भेजकर, गुप्त रुप से आपात की उद्घोषणा करवा दिया था।

मंत्रिमण्डल को उद्घोषणा के बाद सूचित किया गया था। यह एक प्रकार की निरंकुशता थी। भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो इसलिए यह प्रावधान किया गया। __राष्ट्रपति अपने द्वारा जारी उद्घोषणा को किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा (Subsequent Proclamation) द्वारा परिवर्तित (Varied) कर सकता है या वापस (revoked) ले सकता है [अनु. 352 (2)] । ध्यातव्य है कि उद्घोषणा को परिवर्तित करने के लिए मंत्रिमण्डल की लिखित सूचना आवश्यक है, किन्तु उसे वापस लेने के लिए मंत्रिमण्डल की लिखित सूचना आवश्यक नहीं है।

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उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति को भिन्न-भिन्न आधारों यथा; युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के आधार पर अथवा युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के आसन्न संकट के आधार पर भिन्न-भिन्न उद्घोषणायें जारी करने की शक्ति प्राप्त है। राष्ट्रपति को यह शक्ति 38वें संविधान संशोधन अधिनियम1975 द्वारा प्रदान की गयी है। इसके लिए अनु. 352 में खण्ड (9) जोड़ा गया है। 1975 में जब आन्तरिक अशान्ति (internal disturbance) के आधार पर आपात की घोषणा की गई थी, उस समय 1971 में बाह्य आक्रमण के आधार पर घोषित आपात प्रवर्तन में था। 1975 की उद्घोषणा को वैधता प्रदान करने के लिए ही 38वें संविधान संशोधन द्वारा खण्ड (9) के प्रावधान को भूतलक्षी प्रभाव से (retrospectively) अन्तः स्थापित किया गया था। 

उद्घोषणा का अनुमोदन  (Approval of Proclamation)

राष्ट्रपति द्वारा की गई प्रत्येक उद्घोषणा (सिवाय वापस लेने  की उद्घोषणा के) संसद के दोनों सदनों के समक्ष अनुमोदन के लिए  रखा जाना चाहिए। यदि दोनों सदन उद्घोषणा को एक माह के भीतर अनुमोदित नहीं करते हैं, तो उद्घोषणा स्वतः समाप्त हो जाती है। किन्तु यदि उद्घोषणा उस समय की जाती है, जब लोकसभा विघटित हो या एक माह के दौरान उसका विघटन हो जाता है और राज्यसभा द्वारा उसे अनुमोदित कर दिया गया हो तो लोकसभा के पुनर्गठन के बाद होने वाली प्रथम बैठक से 30 दिन के भीतर उसे लोकसभा द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए, अन्यथा वह प्रवर्तन . में नहीं रहेगी। उद्घोषणा के अनुमोदन का संकल्प, प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई (2/3) बहुमत से पारित किया जाता है। इसे विशेष बहुमत भी कहा जाता है।

उद्घोषणा की अवधि (Period of Proclametion)

एक बार अनुमोदित हो जाने पर आपात की उद्घोषणा 6 माह तक प्रवर्तन में रहती है*, (यदि पहले ही वापस न ली गई हो)। 6-माह के अवधि की गणना, दूसरे सदन द्वारा संकल्प के पारित किये जाने की तिथि से की जाती है। उसे 6-माह से आगे जारी रखने के लिए संसद के दोनों सदनों द्वारा पुनः अनुमोदन आवश्यक है और इल संसद के दोनों सदनों द्वारा जितनी बार उद्घोषणा को जारी रखने का की अनुमोदन करने वाला संकल्प पारित किया जाता है और उतनी बार, यह 6-माह की अवधि के लिए उद्घोषणा प्रवर्तन में बनी रहती है, अर्थात्  संसद द्वारा अनुमोदित हो जाने पर उद्घोषणा 6-6 माह की अवधि के वर्ती लिए आगे जारी रहती है।

उद्घोषणा की वापसी (Revoketion of Proclamation)

आपात की उद्घोषणा को राष्ट्रपति ‘पश्चात्वर्ती उद्घोषणा’ (Subsequent Proclamation) द्वारा कभी भी वापस ले सकता है। .ध्यातव्य है कि वापस लेने वाली उद्घोषणा का संसद द्वारा अनुमोदन आवश्यक नहीं है। लोकसभा को भी आपात उद्घोषणा को वापस कराने का अधिकार दिया गया है। यदि लोकसभा साधारण बहुमत से उद्घोषणा. वापस करने का संकल्प पारित कर देती है, तो राष्ट्रपति उद्घोषणा को वापस लेने के लिए बाध्य होता है। यदि लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 1/10 भाग सदस्यों द्वारा आपात उद्घोषणा को वापस लेने वाले संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की लिखित सूचना –

(i) अध्यक्ष को (जबकि लोकसभा सत्र में हो)।

(ii) राष्ट्रपति को (जबकि लोकसभा सत्र में न हो)। दी जाती है तो यथा-स्थिति अध्यक्ष या राष्ट्रपति ऐसी सूचना की प्राप्ति से 14 दिन के भीतर संकल्प पर विचार के लिए लोकसभा की विशेष बैठक बुलाता है [अनु. 352 (8)] 

उद्घोषणा का प्रभाव (Effect of Proclamation)

राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा का अधोलिखित प्रभाव होता है। यथा 

  • आपात के प्रवर्तन के दौरान, संघ की कार्यपालिकाशक्ति का विस्तार राज्यों को यह निर्देश देने तक हो जाता है कि वह अपनी कार्यपालिका शक्ति का किस रीति (manner) से प्रयाग करें। अतः आपात स्थिति में राज्यों की कार्यपालिका शक्ति केन्द्रीय कार्यपालिका के अधीन कार्य करती है। [अनु. 353 (क)]
  • संसद की विधायी शक्ति का विस्तार हो जाता है। वह राज्यसूचा (State List) के किसी भी विषय पर कानन बना सकती है।

कि इस दौरान राज्य विधान मण्डल के विधि बनाने की शक्ति याप्त नहीं होती, केवल निलम्बित हो जाती है। संसद द्वारा बनाई गयी विधि उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर 6 माह बाद समाप्त हो जाती है (अनु. 250)।

  उल्लेखनीय है कि यदि आपात उद्घोषणा भारत के राज्यक्षेत्र के केवल किसी भाग के लिए की गई हो तो संघ की राज्यों को निर्देश देने की शक्ति या संसद की राज्यसूची पर विधि बनाने की शक्ति का विस्तार उन राज्यों के सम्बन्ध में भी होगा, जिन पर उद्घोषणा प्रवर्तनशील नहीं है; यदि उसकी सुरक्षा, उन राज्यों के क्रियाकलाप के कारण, जिनमें उद्घोषणा प्रवर्तन में है, संकट में है।

आपात उद्घोषणा के प्रवर्तन के दौरान राष्ट्रपति को यह शक्ति प्राप्त होती है कि वह संघ और राज्यों के मध्य राजस्व वितरण से सम्बन्धित उपबन्धों (अनु. 268-279) में परिवर्तन या उपान्तरण (Modifications) का आदेश कर दे। (अनु. 354)। ऐसे आदेश को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाता है।

आपात के दौरान मूल अधिकारों (Fundamental Rights) का | निलम्बन हो जाता है। अनु. 358 के अनुसार जब युद्ध या बाह्य | आक्रमण के आधार पर की गई आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो | तो अनु. 19 द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का अधिकार (Rights of FreeNom) स्वतः निलम्बित हो जाता है।

अतः राज्य कोई ऐसी विधि   बना सकता है  या कार्यपालिकीय कृत्य कर सकती है, जो उन स्वतंत्रताओं में कमी करती है या उन्हें छीनती है। उसे न्यायालय में सुनाती नहीं दी जा सकती। ऐसी विधि उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर तुरन्त प्रभावहीन (Cease) हो जाती है। परन्तु कोई ऐसी विधि  या कार्यपालिकीय कृत्य जो आपात की उद्घोषणा से सम्बन्धित नहीं है, उसके सम्बन्ध में मूल अधिकारों का निलंबन नहीं होता है। अतः यदि वे अनु. 19 में प्रदत्त मूल अधिकारों को छीनते हैं या कम करते हैं तो उन्हें न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

ज्ञातव्य है कि यदि आपात की उद्घोषणा ‘सशस्त्र विद्रोह’ (Armed Rebellion) के आधार पर की गई हो, तो अनु. 19 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार निलंबित नहीं होते हैं, (44वें संविधान संशोधन द्वारा यथा संशोधित)। • अनु. 359 के तहत राष्ट्रपति को मूल अधिकारों को प्रवर्तित (enforce) कराने के अधिकार को निलम्बित करने की शक्ति दी गई है।

जब आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में हो, तब राष्ट्रपति आदेश द्वारा यह घोषित कर सकता है कि भाग – 3 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों में से ऐसे अधिकारों को (अनु. 20 तथा 21 को छोड़कर) जो आदेश में उल्लिखित किये जायें, प्रवर्तित कराने के लिए किसी न्यायालय में आवेदन करने का अधिकार निलम्बित रहेगा। यह आदेश पूरे भारत या उसके किसी भाग के लिए हो सकता है। राष्ट्रपति द्वारा जारी आदेश संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाना चाहिए।

जब राष्ट्रपति उक्त आशय का आदेश जारी कर देता है, तब उन अधिकारों के सम्बन्ध में, जो आदेश में उल्लिखित हैं, राज्य कोई भी विधि बनाने या कार्यपालिकीय कार्यवाही करने के लिए सक्षम हो जाता है। ऐसी विधि या कार्यवाही को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उससे उन मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है। ऐसी विधि आदेश के प्रवर्तन में न रहने पर तुरन्त प्रभावहीन हो जाती है।

उल्लेखनीय है कि राज्य द्वारा बनाई गई विधि में इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए कि वह तत्समय प्रवृत्त आपात की उद्घोषणा के सम्बन्ध में है, तथा कार्यपालिकीय कार्यवाही आपात से सम्बन्धित विधि के अन्तर्गत की जानी चाहिए, अन्यथा उन्हें राष्ट्रपति 5 आदेश का संरक्षण प्राप्त न होगा और उन्हें न्यायालय में चुनौती 1 जा सकती है।

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जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो संसद को यह  अधिकार होता है कि वह एक बार में एक वर्ष के लिए लोकसभा के कार्यकाल को बढ़ा दे, किन्तु इसका विस्तार आपात काल के प्रवर्तन में न रहने पर 6 माह से अधिक अवधि तक न होगा, (अनु. 83)।

आपात के लागू रहने पर संसद किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन की अवधि 1 वर्ष से अधिक ( अधिकतम 3 वर्ष तक) बढ़ाने के लिए संकल्प पारित कर सकती है, यदि निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर देता है कि निर्वाचन में कठिनाई के कारण ‘राष्ट्रपति शासन’ का बढ़ाया जाना आवश्यक है।

राज्यों में राष्ट्रपति शासन (President Rule in the State)

राज्यों में संवैधानिक तंत्र (Consitutional machinery) के विफल हो जाने पर राष्ट्रपति द्वारा अनु. 356 के तहत जारी की जाने वाली उदघोषणा को आम बोल-चाल की भाषा में ‘राष्ट्रपति शासन कहा जाता है। यह दूसरे प्रकार का आपात उपबन्ध है, यद्यपि संविधान में इसके लिए ‘आपात’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। 

राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा (Proclamation of President Rule)

राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा अनु. 356 (1) के तहत जारी  की जाती है। इसके अनुसार यदि राष्ट्रपति को किसी राज्य के  राज्यपाल से प्रतिवेदन (Report) मिलने पर या अन्यथा, यह समाधान हो जाता है कि उस राज्य का शासन संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तो वह उस राज्य में राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा कर सकता है।

अनु. 365 में कहा गया है कि जब कोई राज्य, संघ की कार्यपालिका द्वारा दिये गये किसी निर्देश (direction) के अनुपालन में असफल रहता है, तो राष्ट्रपति यह समाधान कर सकता है कि उस राज्य का शासन संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि अनु. 256-257 तथा अनु. 353 के तहत संध की कार्यपालिका को राज्यों को निर्देश देने की शक्ति है। यहाँ राष्ट्रपति के समाधान से तात्पर्य है केन्द्रीय मंत्रिमण्डल का समाधान। राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा को किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस लिया जा सकता है या उसमें परिवर्तन किया जा सकता है। [अनु. 356 (2)

उद्घोषणा का अनुमोदन (Approval of Proclamention)

अनु. 356 के अधीन जारी प्रत्येक उद्घोषणा संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखी जाती है। उसे प्रत्येक सदन द्वारा, उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत (साधारण बहुमत) क्रमण,के से दो माह के भीतर पारित करना होता है अन्यथा वह स्वतः  समाप्त हो जाती है। उल्लेखनीय है कि किसी पूर्ववर्ती उद्घोषणा को  वापस लेने वाली उद्घोषणा को संसद के समक्ष रखना आवश्यक नहीं होता है।

यदि उद्घोषणा उस समय की जाती है, जबकि लोकसभा का विघटन हो गया है या लोकसभा का विघटन उद्घोषणा का अनुमोदन किये बिना दो माह के भीतर हो जाता है और उसे राज्यसभा द्वारा अनुमोदित कर दिया गया हो तो ऐसी उद्घोषणा को लोकसभा के पुनर्गठन के पश्चात् उसकी प्रथम बैठक से तीस (30) दिन के भीतर अनुमोदित किया जाना चाहिए, अन्यथा वह 30 दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी

उद्घोषणा की अवधि (Period of Proclametion)

राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा जारी किये जाने की तिथि से दो माह तक प्रवर्तन में रहती है, किन्तु यदि संसद के दोनों सदन इसे साधारण बहुमत से दो माह के भीतर अनुमोदित कर देते हैं तो ऐसी उद्घोषणा ‘जारी किये जाने की तिथि से 6 माह तक’ प्रवर्तन में रहती है। यदि उसे आगे भी जारी रखना हो तो उसे पुनः संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया जाना चाहिए।

संसद के पुनः अनुमोदन से उद्घोषणा की अवधि 6-6 माह बढ़ायी जा सकती है, किन्तु उसे । किसी भी दशा में 3 वर्ष से अधिक अवधि तक प्रवर्तन में नहीं रखा जा सकता है। अतः राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि 3 वर्ष “तक हो सकती है। परन्तु 1 वर्ष से अधिक अवधि तक राष्ट्रपति शासन को जारी रखने के लिए, संसद द्वारा संकल्प तभी पारित ॥ किया जा सकता है जबकि अधोलिखित निम्न दोनों शर्ते पूरी होती हैं। यथा 

(i) आपात की उद्घोषणा (सम्पूर्ण भारत या उसके किसी भाग में) प्रवर्तन में हो, और

(ii) निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर दे है कि राज्य में चुनाव कराने में कठिनाई के कारण राष्ट्रपति शासन को जारी रखना आवश्यक है। [अनु. 356 (5)] उल्लेखनीय है कि उक्त दोनों शर्ते 44वें संविधान संशोधन अधि0 1978 द्वारा जोड़ी गयी है।

 उद्घोषणा का प्रभाव (Effect of Proclametion) 

जब राष्ट्रपति किसी राज्य में अनु. 356 (1) के तहत उद्घोषणा जारी करता है, तब वह उद्घोषणा द्वारा निम्नलिखित कार्य कर सकता है। यथा

  1.  उस राज्य सरकार के सभी या कोई कृत्य (functions) अपने हाथ में ले सकता है तथा उन शक्तियों को भी अपने हाथ में ले सकता है जो उस राज्य के राज्यपाल या किसी निकाय (body) याधिकारी (authority) में निहित है, किन्तु राज्य विधानमण्डल निहित किसी शक्ति को वह अपने हाथ में नहीं ले सकता है।
  2. यहघोषित कर सकता है कि राज्य विधानमण्डल की शक्तियाँ संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोग की जायेंगी।
  3. कोई ऐसा उपबन्ध (Provisions) कर सकता है, जो राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी से सम्बन्धित किन्हीं संवैधानिक प्रावधानों के प्रवर्तन को निलम्बित करता है, या उद्घोषणा को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है।

किन्तु राष्ट्रपति उच्च न्यायालय में निहित (vested) किसी शक्ति को अपने हाथ में नहीं ले सकता और न ही उच्च न्यायालय से सम्बन्धित किसी संवैधानिक प्रावधानों के प्रवर्तन (operation) को निलम्बित कर सकता है।

विधायी शक्तियों का प्रयोग (Exercise of Legislative Powers)

अनु. 357 के अनुसार जब राष्ट्रपति यह घोषित कर देता राज्य विधानमण्डल की विधायी शक्तियाँ संसद द्वारा या उसका प्राधिकार के अधीन प्रयोग की जायेगी, तब

  1. संसद इस बात के लिए सक्षम होगा कि वह राणा विधानमण्डल की विधायी शक्तियाँ, राष्ट्रपति को प्रदान कर राष्ट्रपति को इसके लिए प्राधिकृत कर दे कि वह विधायन का शक्ति किसी अन्य प्राधिकारी को प्रत्यायोजित कर सकता है।
  2. संसद, राष्ट्रपति या ऐसे अन्य प्राधिकारी विधि द्वारा, संघ या उसके प्राधिकारियों को शक्ति प्रदान करने या उन पर कर्तव्य अधिरोपित करने के लिए सक्षम होंगे।
  3.  लोकसभा के सत्र में न रहने पर राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि से व्यय को प्राधिकृत (authorise) कर सकता है।

उल्लेखनीय है कि राज्य विधानमण्डल की शक्तियों के प्रयोग में संसद राष्ट्रपति या अन्य प्राधिकारी द्वारा बनायी गयी विधि उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर भी तब तक प्रवृत्त (continue) बनी रहती है जब तक कि विधानमण्डल या अन्य प्राधिकारी द्वारा उसका परिवर्तन, निरसन या संशोधन नहीं कर दिया जाता है। 

वित्तीय आपात ( financial Emergency )

संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपात’ के बारे में प्रावधान किया गया है। यह तीसरे प्रकार का आपात उपबन्ध है।अनु. 360 के तहत राष्ट्रपति वित्तीय आपात की उद्घोषणा कर सकता है, यदि उसका यह समाधान हो जाय कि सी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिससे कि भारत या उसके किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व अथवा साख (Financial Stability or Credit) संकट में है। उल्लेखनीय है कि यहाँ राष्ट्रपति के समाधान से तात्पर्य केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के समाधान से है। अतः राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमण्डल) की सलाह पर ही वित्तीय आपात की उद्घोषणा करता है। किन्तु इसके लिए मंत्रिमण्डल की लिखित सलाह आवश्यक नहीं है।

उद्घोषणा की अवधि (Period of Proclamation)

वित्तीय आपात की उद्घोषणा संसद के अनुमोदन के बिना दो माह तक प्रवर्तन में रहती है। किन्तु यदि संसद साधारण बहुमत से दो माह के पूर्व उद्घोषणा को अनुमोदित कर देती है तो वह अनिश्चित काल तक प्रवर्तन में बनी रहेगी। उल्लेखनीय है कि वित्तीय आपात की उद्घोषणों को जारी रखने के लिए, उसका बार-बार अनुमोदन आवश्यक नहीं है।

यदि आपात का उद्घोषणा के समय लोकसभा विघटित हो या, 2 माह की अवधि में उसका विघटन हो जाता है और संकल्प राज्यसभा द्वारा अनुमोदित हो जाता है, किन्तु लोकसभा द्वारा नहीं होता है, तो उद्घोषणा उस तारीख से, जब नई लोकसभा बैठती है, 30 दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी, जब तक कि इस अवधि के भीतर उद्घोषणा के अनुमोदन का संकल्प लोकसभा द्वारा पारित नहीं हो जाता है।

राष्ट्रपति उद्घोषणा को किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा कभी भी वापस ले सकता है या परिवर्तित कर सकता है।

उद्घोषणा का प्रभाव (Effect of Proclametion)

वित्तीय आपात की उद्घोषणा के निम्नलिखित प्रभाव होते हैं। यथा• संघ की कार्यपालिका द्वारा किसी राज्य को ऐसे वित्तीय औचित्य सम्बन्धी सिद्धान्तों (such canons of financial propriety) को पालन करने का निर्देश दिया जा सकता है, जो ऐसे निर्देश में विनिदिष्ट किए जाए। किसी राज्य के अधीन सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग के व्यक्तियों के वेतन एवं भत्तों में कमी की जा सकती है। 

संघ के अधीन सेवा करने वाले किसी या सभी व्यक्तियों (जिसके अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी है।) के वेतन एवं भत्तों में कमी की जा सकती है।  राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित धन विधेयक और वित्त विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किये जाने का प्रावधान किया जा सकता है।

प्रमुख उपबंध

भारतीय संविधान का भाग 19, अनु0 361 से 367 तक गिर विविध उपबन्धों के बारे में है। इसके तहत किये गये कुछ प्रमुख किस उपबन्ध अधोलिखित हैं। यथा 

राष्ट्रपति और राज्यपालों का संरक्षण 

अनु0 361 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को उनके कर्तव्यों का के निर्वहन के लिए कतिपय संरक्षण प्रदान किए गये हैं। इसका उद्देश्य लि संविधान के संरक्षक के रूप में संघ व राज्यों के अध्यक्षों की प्रतिष्ठा और स गरिमा को बनाए रखना है। इसके तहत प्रदत्त संरक्षण अधोलिखित हैं। यथा-

  1. राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने कर्तव्यों के निर्वहन हेतु किए गए किसी कार्य के लिए, किसी न्यायालय के प्रति उत्तदायी नहीं होते हैं, किन्तु अनु0 61 के तहत राष्ट्रपति पर महाभियोग की प्रक्रिया के दौरान  लगाए गए किसी आरोप की जाँच संसद के किसी सदन द्वारा नियुक्त किसी न्यायालय, अधिकरण या निकाय द्वारा की जा सकती है।
  2.  राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी । न्यायालय में किसी भी प्रकार की दांडिक कार्यवाही (Criminal Proceedings) न तो आरम्भ की जा सकती है और न ही चालू रखी जा सकती है।
  3. राष्ट्रपति या राज्यपाल की पदावधि के दौरान उनकी  गिरफ्तारी या कारावास (Arrest or Imaprisonment) का आदेश किसी न्यायालय द्वारा नहीं दिया जा सकता है।
  4. राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा पद ग्रहण करने से पूर्व या पश्चात् अपने व्यक्तिगत हैसियत में किए गए किसी कार्य के लिा कोई सिविल कार्यवाही (Civil Proceedings) तब-तक संस्थित नहीं की जा सकती जब-तक कि मामले के संपूर्ण विवरण के साथ इसकी य लिखित सूचना राष्ट्रपति या राज्यपाल को देने के पश्चात् दो माह का केया और समय समाप्त न हो गया हो 

विधानमण्डलों की कार्यवाहियों के प्रकाशन

संसद तथा राज्यों के विधानमण्डलों की कार्यवाहियों के प्रकाशन  को संरक्षण प्रदान करने के लिए 44वें संविधान संशोधन अधिo त 1978 द्वारा अनु0 361क जोड़ा गया है। अनु0 361क के अनुसार संसद या राज्य विधानमंडल के भारत ने किसी सदन की कार्यवाहियों की सारतः सही रिपोर्ट किसी समाचार । पत्र में प्रकाशित करने के लिए किसी व्यक्ति के विरुद्ध सिविल या दांडिक कार्यवाही तब-तक नहीं की जाएगी जब तक कि उसका प्रकाशन विद्वेषपूर्वक (with malice) न किया गया हो। परन्तु  किसी सदन की किसी गुप्त बैठक की कार्यवाही को प्रकाशित करने पर यह संरक्षण प्राप्त नहीं होगा। उल्लेखनीय है कि यह संरक्षण रेडियो और टीवी के प्रसारणों पर भी लागू होता है।

लाभप्रद राजनीतिक पद हेतु निरर्हता (Disqualification for Remunerative Political Post)

91वें संविधान संशोधन अधि0 2003 द्वारा अनु0 361ख को जोड़कर दल-बदल के आधार पर, (10वीं अनुसूची के तहत) निरहित घोषित किसी सदन, संसद या राज्य विधानमण्डल के सदस्य को किसी लाभप्रद राजनीति पद पर नियुक्ति के लिए अयोग्य घोषित किया गया है। ऐसा सदस्य निरर्हता की तिथि से सदस्य के रूप में अपनी पदावधि की समाप्ति तक या किसी सदन के लिए पुनः चुने जाने तक (जो पहले हो) किसी लाभप्रद राजनीतिक पद को धारण नहीं कर सकता है। यहाँ ‘लाभप्रद राजनीतिक पद’ से अभिप्रेत है – (i) भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन कोई पद, जिसके लिए वेतन या पारिश्रमिक लोक राजस्व (Public Revenue) से दिया जाता है, अथवा

(ii) भारत सरकार या राज्य सरकार के अंशतः या पूर्णतः स्वामित्वाधीन किसी निकाय के अधीन पद, जिसका वेतन ऐसे निकाय द्वारा दिया जाता है। 

कुछ विवादों में न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्जन (Bar to Interference by Courts in Certain disputes)

अनु0 363 के तहत कुछ सन्धियों, करारों आदि से उत्पन्न विवादों में न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्जन किया गया है। इसके अनुसार देशी रियासतों के शासकों द्वारा संविधान के प्रारम्भ के पूर्व, भारत सरकार या उसके पूर्ववर्ती सरकारों के साथ की गई संधियां, करार आदि से उत्पन्न विवादों के मामले में उच्चतम न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।

देशी राज्यों के शासकों की मान्यता और निजी थैलियों का अन्त

26वें संविधान संशोधन 1971 द्वारा अनु0 363क जोडल पशा रियासतों के शासकों और उनके उत्तराधिकारियों के विशेषाधि तथा उनको दी जा रही निजी थैलियों की समाप्ति के बारे में प्रावधान किया गया है। उल्लेखनीय है कि 26वे संविधान संशोधन अनु0 291 (शासकों की निजी थैली की राशि) तथा अनु0 362  (देशी राज्यों के शासकों के अधिकार व विशेषाधिकार) को निरसित भी किया गया था।

संघ के निदेशों के अनुपालन में असफलता का प्रभाव

अनु0 365 के अनुसार यदि कोई राज्य संघ की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करते हुए दिए गए किसी निदेश का अनुपालन करने या उसे प्रभावी बनाने में असफल रहता है, तो राष्ट्रपति के लिए यह जानना विधिपूर्ण होगा कि राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों 7 अनुसार नहीं चलाया जा सकता। उल्लेखनीय है जब राष्ट्रपति का ह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य का शासन संविधान के वधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तब वह उस राज्य में नु0 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा कर सकता है।

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