Rowlatt act in hindi | Why did the indians oppose the Rowlatt Act

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रोलेट एक्ट क्या है ?

1919 का वर्ष भारत के लिये अत्यन्त सोच एवं असंतोष का वर्ष था। देश में फैल रही राष्ट्रीयता की भावना तथा क्रांतिकारी गतिविधियों को कुलचने के लिये ब्रिटेन को पुनः शक्ति की आवश्यकता थी क्योंकि भारत के रक्षा अधिनियम की शक्ति समाप्त प्रायः थी।

– इसी संदर्भ में सरकार ने ‘सर सिडनी रौलेट’ की नियुक्ति की, जिन्हें इस बात की जांच करनी थी कि भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करने वाले लोग कहां तक फैले हुए हैं और उनसे निपटने के लिये किस प्रकार के कानूनों की आवश्यकता है। इस संबंध में सर सिडनी रौलेट की समिति ने जो सिफारिशें कीं, उन्हें ही ‘रौलेट अधिनियम या रौलेट एक्ट ( Rowlatt Act )’ के नाम से जाना जाता है।

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इस एक्ट के अंतर्गत एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गयी, जिसमें उच्च न्यायालय के तीन वकील थे। यह न्यायालय ऐसे साक्ष्यों को मान्य कर सकता था, जो विधी के अंतर्गत मान्य नहीं थे। इसके निर्णय के विरुद्ध कहीं भी अपील नहीं की जा सकती थी। न्यायालय द्वारा बनाये गये नियम के अनुसार, प्रांतीय सरकारों को बिना वारंट के तलाशी, गिरफ्तारी तथा बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को रद्द करने आदि की असाधारण शक्तियां दे दी गयीं। युद्ध काल में तो यह विधेयक उचित माना जा सकता था, किंतु शांतिकाल में यह पूर्णतया अनुचित था। भारतवासियों ने इस विधेयक को ‘काला कानून’ कहा तथा इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की

रौलेट एक्ट ( Rowlatt Act ) के विरुद्ध सत्याग्रह-प्रथम जन-आन्दोलन

विश्व युद्ध की समाप्ति पर, जब भारतीय जनता संवैधानिक सुधारों का इंतजार कर रही थी, ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी रौलेट एक्ट ( Rowlatt Act ) को जनता के सम्मुख पेश कर दिया, इसे भारतीयों ने अपना घोर अपमान समझा। अपने पूर्ववर्ती अभियानों से अदम्य व साहसी हो चुके गांधीजी ने फरवरी 1919 में प्रस्तावित रौलेट एक्ट के विरोध में देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया। किन्तु संवैधानिक प्रतिरोध का जब सरकार पर कोई असर नहीं हुआ तो गांधीजी ने सत्याग्रह प्रारम्भ करने का निर्णय किया।

एक ‘सत्याग्रह सभा’ गठित की गयी तथा होमरूल लीग के युवा सदस्यों से सम्पर्क कर अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने का निर्णय हुआ। प्रचार कार्य प्रारम्भ हो गया। राष्ट्रव्यापी हड़ताल, उपवास तथा प्रार्थना सभाओं के आयोजन का फैसला किया गया। इसके साथ ही कुछ प्रमुख कानूनों की अवज्ञा तथा गिरफ्तारी देने की योजना भी बनाई गयी।

आन्दोलन के इस मोड़ के लिये कई कारण थे जो निम्नानुसार हैं

(i) जन सामान्य को आन्दोलन के लिये एक स्पष्ट दिशा-निर्देश प्राप्त हुआ। अब वे अपनी समस्याओं की केवल मौखिक अभिव्यक्ति के स्थान पर प्रत्यक्ष कार्यवाई कर सकते थे। 

(ii) इसके कारण किसान, शिल्पकार और शहरी निर्धन वर्ग सक्रियता से आंदोलन से जुड़ गया। उनकी यह सक्रियता आगे के आंदोलनों में भी बनी रही।

(iii) राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष स्थायी रूप से जनसामान्य से सम्बद्ध हो गया। गांधीजी ने स्पष्ट किया कि अनशन की प्रासंगिकता तभी है जब सभी भारतीय जागृत म होकर सक्रियता से राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागी बनें।

सत्याग्रह 6 अप्रैल, 1919 को प्रारंभ किया गया, किन्तु तारीख की गलतफहमी के कारण सत्याग्रह प्रारम्भ होने से पहले ही आंदोलन ने हिंसक स्वरूप धारण कर लिया। कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद इत्यादि स्थानों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई तथा अंग्रेज  कर विरोधी प्रदर्शन आयोजित किये गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सरकारी दमन,बलपूर्वक नियक्तियों तथा कई कारणों से त्रस्त जनता ने पंजाब में हिंसात्मक प्रतिरोध कर दिया तथा परिस्थिति अत्यन्त विस्फोटक हो गई।

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अमृतसर और लाहौर में को स्थिति पर नियंत्रण पाना मुश्किल हो गया। मजबूर होकर सरकार को सेना का सहारा लेना पड़ा। गांधीजी ने पंजाब जाकर स्थिति को संभालने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्हें बम्बई भेज दिया गया। तत्पश्चात् 13 अप्रैल, 1919 को अंग्रेजी सरकार का वह बर्बर और घिनौना रूप सामने आया, जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक रक्तरंजित धब्बा लगा दिया।

जलियांवाला बाग हत्याकांड कब हुआ ?

अमृतसर हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हुआ। शुरू में प्रदर्शनकारियों ने किसी प्रकार की हिंसा नहीं की। भारतीयों ने अपनी दुकानें बंद कर दी और खाली सड़कों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दिए गए धोखे को लेकर भारतीयों की नाराजगी जाहिर की। 9 अप्रैल को, राष्ट्रवादी नेताओं सैफुद्दीन किचलु और डा. सत्यपाल को ब्रिटिश अधिकारियों ने गिरफ्तार कर लिया।

images of jallianwala bagh
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इस घटना से हजारों भारतीयों में रोष व्याप्त हो गया और वे 10 अप्रैल, 1919 को सत्याग्रहियों पर गोली चलाने तथा अपने नेताओं डा. सत्यपाल व डा. किचलू को पंजाब से बलात् बाहर भेजे जाने का विरोध कर रहे थे। जल्द ही विरोध-प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया, चूंकि पुलिस ने गोली चलाना शुरू कर दिया, जिसमें कुछ प्रदर्शनकारी मारे गए जिससे काफी तनाव फैल गया। दंगे में पांच अंग्रेज भी मारे गए और मार्सेला शेरवुड, एक अंग्रेज मिशनरी महिला, जो साईकिल पर जा रही थी, को पीटा गया।

उपद्रव को शांत करने के लिए तुरंत सैनिक टुकड़ी को भेजा गया। क्षेत्र में मार्शल कानून लागू करने और स्थिति शांतिपूर्ण बनाए रखने की जिम्मेदारी वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर को सौंपी गई। डायर ने, हालांकि, 13 अप्रैल, 1979 को एक घोषणा जारी की कि लोग पास के बिना शहर से बाहर न जाएं और एक समूह में तीन लोगों से अधिक लोग जुलूस, प्रदर्शन या सभाएं न करें।

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13 अप्रैल (बैसाखी के दिन) को, आस-पास के गांव के लोग बैसाखी मनाने के लिए शहर के लोकप्रिय स्थान जलियांवाला बाग(Jallianwala Bagh ) में इकट्ठे हुए, जो जनरल डायर की घोषणा से अनजान थे। स्थानीय नेताओं ने भी इसी स्थान पर एक विरोध सभा का आयोजन किया। त्योहार के आयोजन के बीच विरोध-प्रदर्शन बैठक भी शांतिपूर्ण तरीके से चल रही थी, जिसमें दो प्रस्ताव-रौलेट अधिनियम की समाप्ति और 10 अप्रैल की गोलीबारी की निंदा-पारित किए गए। जनरल डायर ने इस सभा के आयोजन को सरकारी आदेश की अवहेलना समझा तथा सभा स्थल को सशस्त्र सैनिकों के साथ घेर लिया।

डायर ने बिना किसी पूर्व चेतावनी के सभा पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। लोगों पर तब तक गोलियां बरसायी गयीं, जब तक सैनिकों की गोलियां समाप्त नहीं हो गयीं। सभा स्थल के सभी निकास मार्गों के सैनिकों द्वारा घिरे होने के कारण सभा में सम्मिलित निहत्थे लोग चारों ओर से गोलियों से छलनी होते रहे। इस घटना में लगभग 1000 लोग मारे गये, जिसमें युवा, महिलायें, बूढ़े, बच्चे सभी शामिल थे।

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जलियांवाला बाग हत्याकांड(Jallianwala Bagh Massacre)  से पूरा देश स्तब्ध रह गया। वहशी क्रूरता ने देश को मौन कर दिया। पूरे देश में बर्बर हत्याकांड की भर्त्सना की गयी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विरोध स्वरूप अपनी ‘नाइटहुड’ की उपाधि त्याग दी तथा शंकरराम नागर ने वायसराय की कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया। अनेक स्थानों पर सत्याग्रहियों ने अहिंसा का मार्ग त्यागकर हिंसा का मार्ग अपनाया, जिससे 18 अप्रैल 1919 को गांधीजी ने अपना सत्याग्रह को समाप्त घोषित कर दिया, क्योंकि उनके सत्याग्रह में हिंसा का कोई स्थान नहीं था। ए.पी.जे. टेलर, इतिहासकार, के अनुसार, “जलियांवाला बाग जनसंहार एक ऐसा निर्णायक मोड़ था जब भारतीय ब्रिटिश शासन से अलग हुए”।

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1919 की घटना ने पंजाब की प्रतिरोध या विरोध-प्रदर्शन की राजनीति को आकार प्रदान किया। भगत सिंह की भारत नौजवान सभा ने इस जनसंहार को ऐसे कृत्य के रूप में देखा जो असहयोग आंदोलन की समाप्ति के पश्चात् उत्पन्न संताप से उबरने में मदद करेगा। उधम सिंह, जिन्होंने अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आजाद रखा, ने लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर, जिसने पंजाब में 1919 के विरोध प्रदर्शन के वीभत्स रूप से कुचलने का संचालन किया, की हत्या कर दी, जिसके लिए उन्हें वर्ष 1940 में फांसी की सजा दी गई। (वर्ष 1974 में उनकी अस्थियों को भारत लाया गया।)

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