Vijayanagara Samrajye
विजयनगर राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों ने की थी जो वारंगल (तेलगाना) के काकतीय राजा के सामंत थे और बाद में काम्पिली (आधुनिक कर्नाटक में) . नामक राज्य में मंत्री बन गए।
काम्पिली पर मुहम्मद-बिन-तुगलक ने आक्रमण कर उसे जीत लिया तथा इन दोनों भाइयों को बंदी बनाकर इस्लाम में दीक्षित कर दिया गया।
अपने गुरू विद्यारण्य के निर्देश पर ये फिर से हिंदू धर्म में दीक्षित हुए तथा उन्होंने विजयनगर में अपनी राजधानी स्थापित की।
हरिहर-1 ( 1336-1356 ई.)
हरिहर-I संगम वंश का प्रथम शासक था। इसकी पहली राजधानी अनेगोण्डी थी, जो तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित थी। हरिहर के सिंहासनारोहण का वर्ष 1336 ई. बताया जाता है।
हरिहर ने विजयनगर (हम्पी) को अपनी द्वितीय राजधानी बनाया। विजयनगर के ध्वंसावशेष हम्पी में विद्यमान हैं।
आरम्भ में विजयनगर राज्य सहकारी राज्य-व्यवस्था पर आधारित था। गद्दी पर बैठने के उपरान्त हरिहर प्रथम ने अपने भाई बुक्का की सहायता से साम्राज्य विस्तार का कार्य प्रारम्भ किया तथा विजयनगर साम्राज्य को उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर दक्षिण में कावेरी नदी तक विस्तृत किया। हरिहर प्रथम ने प्रशासनिक व्यवस्था में भी सुधार का प्रयास किया। उसने काकतीय राजव्यवस्था का अनुकरण कर अपने राज्य को देश, स्थल तथा नाडुओं में विभाजित किया।

बुक्का प्रथम (1356-1377 ई.)
अपने भाई हरिहर प्रथम की मृत्यु होने के पश्चात् 1356 ई. में बुक्का सिंहासन पर बैठा और उसने 1377 ई. तक शासन किया। वह एक महान योद्धा, राजनीतिज्ञ व विद्या प्रेमी था। अभिलेखों में उसे पूर्वी, पश्चिमी व दक्षिणी सागरों का स्वामी कहा गया है
बुक्का प्रथम की महान विजय मदुरा विजय थी, जिसके कारण उसका राज्य सुदूर दक्षिण में रामेश्वरम् तक पहुँच गया। मदुरै विजय हेतु बुक्का ने अपने पुत्र कंपन को भेजा था। उत्तर में विजयनगर का सामना एक बहुत ही प्रबल प्रतिद्वंद्वी बहमनी राज्य से हुआ, बहमनी राज्य की स्थापना 1347 ई. में हुई थी।
एक अफगान अलाउद्दीन हसन, जिसका उत्थान गंगू नामक एक ब्राह्मण की सेवा में रहते हुए हुआ, जिसे हसन गंगू के नाम से जाना जाता है। उसने गद्दीनशीन होने के बाद अलाउद्दीन हसन बहमनशाह के नाम का खिताब धारण किया था। विजयनगर के शासकों और बहमनी सुल्तानों के हितों का टकराव तीन अलग-अलग क्षेत्रों तुंगभद्रा के दोआब, कृष्णा-गोदावरी । के डेल्टा क्षेत्र और मराठवाड़ा प्रदेश में था।
हरिहर द्वितीय ( 1377-1405 ई.)
दक्षिण भारत में अपनी स्थिति मजबूत बनाकर हरिहर द्वितीय (1377-1406 ई.) के अधीन विजयनगर साम्राज्य ने पूर्वी समुद्री तट की ओर प्रादेशिक विस्तार की नीति आरम्भ की। वह विजयनगर साम्राज्य का प्रथम शासक था, जिसने महाराजाधिराज और राजपरमेश्वर की उपाधि धारण की। हरिहर द्वितीय विरुपाक्ष का उपासक था, किन्तु उसने शैव, वैष्णव व जैनियों को भी समान रूप से संरक्षण प्रदान किया था।
संपूर्ण सुदूर दक्षिण भारत पर विजयनगर साम्राज्य का विस्तार करने का श्रेय हरिहर द्वितीय को दिया जाता है। विद्वता और विद्वानों को प्रदत्त संरक्षण के कारण उसे राजव्यास (राजवाल्मीकि) की उपाधि प्राप्त थी। वेदों के प्रसिद्ध टीकाकार सायणाचार्य उसके मुख्यमंत्री थे। उसके एक अभिलेख में माधव विद्यारण्य को सर्वोच्च प्रकाश का अवतार कहा गया है।
जैन धर्म का अनुयायी और नानार्थ रत्नमाला का लेखक ईरूगांपा उसका सेनापति था। 1404 ई. में हरिहर द्वितीय की मृत्यु हो गयी। कृष्णा-गोदावरी डेल्टा के निचले हिस्से में वारंगल शासकों का राज्य था। हरिहर द्वितीय ने अपने भाईयों के स्थान पर अपने पुत्रों को गवर्नर बनाया। जो एक नयी परम्परा की शुरूआत की।
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देवराय प्रथम (1406–1422 ई.)
हरिहर द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् कुछ समय की अनिश्चितता के उपरांत देवराय प्रथम (1406-1422 ई.) सिंहासनारूढ़ हुआ। बहमनी शासक फिरोजशाह ने विजयनगर पर आक्रमण किया, जिसमें देवराय प्रथम पराजित हुआ। अन्त में दोनों के मध्य एक संधि हुई, जिसके अनुसार देवराय प्रथम ने अपनी पुत्री का विवाह फिरोजशाह के साथ कर दिया तथा बांकापुर को दहेज में दे दिया।
उसने तुंगभद्रा नदी पर एक हरिद्रा बाँध बनवाया ताकि उसमें से नहरें निकालकर उन्हें राजधानी तक लाकर जल की कमी दूर की जा सके। इन नहरों के द्वारा आस-पास के खेतों की सिंचाई भी होती थी।
इन नहरों के कारण उसके राजस्व में 3,50,000 परदाओ की वृद्धि हुई। सिंचाई के प्रयोजनों से उसने हरिद्रा नदी पर भी एक बाँध बनवाया था। देवराय प्रथम ने ही 10000 मुस्लिमों को सेना में प्रथम बार भर्ती किया था। देवराय प्रथम के शासनकाल में इटैलियन यात्री निकोलो डी कॉण्टी ने 1430 ई. में विजयनगर की यात्रा की थी।
उसने नगर में मनाये जाने वाले दीपावली, नवरात्र आदि जस उत्सवों का भी वर्णन किया है। देवराय प्रथम हरविलास नामक ग्रन्थ के रचनाकार व प्रसिद्ध तेलुगू कवि श्रीनाथ को संरक्षण प्रदान किया था।
रामचन्द्र (6 महीने)
1422 ई. में देवराय प्रथम की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के . बाद उसका पुत्र रामचन्द्र इसका उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु वह मात्र 6 माह तक शासन कर पाया।
विजय प्रथम (6 महीने)
विजय प्रथम शासक बना जो विजयभूपति, विजय बुक्का या वीर बुक्का तृतीय के रूप में प्रसिद्ध हुआ। सम्भवतः इसने भी मात्र 6 महीने तक शासन किया।
देवराय द्वितीय (1422-1446 ई.)
देवराय द्वितीय 1422 ई. में सिंहासन पर बैठा। इसने गजबेटकर (हाथियों का शिकारी), इम्माडि देवराय (प्रौढ़ देवराय) की उपाधि धारण की। इसके अतिरिक्त कुछ प्रमुख सामान्य जन देवराय द्वितीय को हिन्दू पौराणिक आख्यानों के दैवीय शासक इन्द्र का अवतार मानते थे।
देवराय द्वितीय संगम वंश का महानतम् शासक था। उसका साम्राज्य विस्तार श्रीलंका (सीलोन) के तट तक विस्तत हो गया था। अपनी सैनिक शक्ति मजबूत करने के लिए देवराय द्वितीय ने 2000 तुर्की धनुर्धरों को अपनी सेना में भर्ती किया तथा उन्हें जागीरें प्रदान की। . सेना को मजबूत बनाने के लिए उसने ज्यादा मुस्लिमों को भर्ती किया।
कॉण्टी कहता है कि, इस नगर की परिधि साठ मील है। इसकी दीवारें पहाड़ों तक चली गईं हैं और इन पहाड़ों की तराई में पहुंचकर उन्होंने घाटियों के गिर्द घेरा बना दिया है।
फारसी यात्री अब्दुर्रज्जाक ने भारत और दूसरे देशों की दर तक यात्रा की थी। अबुदर्रज्जाक ईरान के शासक मिर्जा शार. के दूत के रूप में भारत आया था। देवराय द्वितीय के शासनकाल में वह विजयनगर पहुंचा था। अब्दुर्रज्जाक मानता था कि, उसने दुनिया में जितने भी नगर देने थे या जितने नगरों के बारे में सुना था, विजयनगर उनमें से सबसे .. भव्य नगरों में से था। तेलुगू के प्रसिद्ध कवि श्रीनाथ ने इसके दरबारी कवि दिनदिमा को एक शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। देवराय द्वितीय ने श्रीनाथ को कवि सार्वभौम की उपाधि से सम्मानित किया और उस पर सोने के सिक्कों की (कनकाभिषेक सम्मान) बौछार की थी।
मल्लिकार्जुन (1446-1465 ई.)
मल्लिकार्जुन ने भी अपने पिता देवराय प्रथम की भाँति गजबेटकर की उपाधि धारण की थी। मल्लिकार्जुन के शासनकाल में माहुआन नामक चीनी यात्रा समुद्री यात्रा कर विजयनगर आया था।
विरुपाक्ष द्वितीय (1465-1485 ई.)
विरुपाक्ष द्वितीय संगम वंश का अन्तिम शासक था। बहमनी वजीर महमूद खाँ और उड़ीसा के गजपति नरेश कपिलेश्वर ने विजयनगर पर आक्रमण किए, जिसमें बहमनी साम्राज्य ने गोवा, दाबुल और चोल तथा गजपतियों ने उदयगिरि व विजयनगर साम्राज्य के आन्ध्रप्रदेश क्षेत्र पर अधिकार कर लिए। बहमनी साम्राज्य द्वारा विजयनगर की यह प्रथम पराजय थी।
प्रौढ़ देवराय (1485 ई.)
विरुपाक्ष की हत्या के बाद कुछ समय तक प्रौढ़ देवराय गद्दी पर बैठा। यह घटना प्रथम बलापहार कहलाती है।
सालुव वंश (1485-1505 ई.)
सालुव नरसिंह (1485-1490 ई.)
विजयनगर साम्राज्य के राजसिंहासन को प्रथम बार बलपूर्वक प्राप्त करने के बाद सालुव वंश की स्थापना हुई। यह विजयनगर का द्वितीय राजवंश था। इस वंश का संस्थापक सालुव नरसिंह था। सालुव नरसिंह के समय में उड़ीसा के पुरुषोत्तम गजपति ने विजयनगर पर आक्रमण किया तथा उसे पराजित कर बंदी बना लिया। 1490 ई. में सालुव नरसिंह की मृत्यु हो गयी। 1505 ई. में नरसा नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने इम्माडि नरसिंह की हत्या कर स्वयं सिंहासन पर अधिकार कर लिया तथा विजयनगर के रतीय राजवंश तुलुव वंश की स्थापना हुई। वीर नरसिंह द्वारा इम्माडि नरसिंह की हत्या कर शासन पर अधिकार करने की घटना को द्वितीय बलापहार (द्वितीय अपहरण) कहा गया।
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तुलुव वंश (1505-1565 ई.)
तुलुव वंश विजयनगर का तृतीय राजवंश था। इसकी स्थापना वीर नरसिंह ने की थी। तुलुव वंश के कुल छः शासकों ने 60 वर्ष तक शासन किया था।
वीर नरसिंह (1505-1509 ई.)
वीर नरसिंह तुलुव वंश का संस्थापक था। इसने केवल चार वर्ष तक शासन किया। वीर नरसिंह ने भुजबल की उपाधि ग्रहण की थी। उसने विवाह कर को समाप्त कर एक उदार नीति शुरू . की थी।
कृष्णदेवराय (1509-1530 ई.)
इस राजवंश का सबसे महान शासक कृष्णदेवराय था। पेस नामक एक इतालवी ने कृष्णदेव के दरबार में अनेक वर्ष बिताए थे। कृष्णदेव एक महान निर्माता भी था। उसने विजयनगर के निकट एक नया शहर बसाया और एक विशाल तालाबे भी खुदवाया, जिसका उपयोग सिंचाई के लिए भी किया जाता था।
वह स्वयं तेलुगू और संस्कृत का प्रकांड विद्वान था। उसके शासनकाल में तेलुगू साहित्य में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। तेलुगू के 8 महान विद्वान जिन्हें अष्टदिग्गज कहा जाता था, उसी के दरबार से सम्बंधित थे। अष्टदिग्गज तेलुगू कवियों में पेद्दन सर्वप्रमुख था, जो संस्कृत एवं तेलुगू दोनों भाषाओं का ज्ञाता था। कृष्णदेव की सबसे बड़ी उपलब्धि उसके साम्राज्य में व्याप्त सहिष्णुता और उदारता थी। कृष्णदेवराय के शासनकाल में पुर्तगाली यात्री बारबोसा व डोंमिगो पायस विजयनगर की यात्रा की थी।
बारबोसा कहता है- राजा इतनी आजादी देता है कि, कोई भी | व्यक्ति अपनी इच्छानुसार आ-जा सकता है तथा अपने धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकता है।
कृष्णदेव, गजपतियों को पराजित कर वहां से बालकृष्ण की मूर्ति विजय स्मारक के रूप में ले आया तथा विजयनगर में कृष्णस्वामी मंदिर में एक रत्नजड़ित मंडप में प्रतिमा की स्थापना की।] राजधानी के दक्षिणी सीमांत पर उसने अपनी माता के नाम पर नागलपुर नामक नया नगर बसाया। कृष्ण देवराय ने हास्पेट नामक नगर अपनी पत्नी की स्मृति में बसाया था। उसने अनेक भव्य भवनों व मंदिरों का निर्माण करवाया, जिसमें हजारा मंदिर व विट्ठल स्वामी के मंदिर प्रमुख हैं।
इसके अतिरिक्त चिदम्बरम् मंदिर का निर्माण भी करवाया था। 1530 ई. में कृष्ण देवराय की मृत्यु हो गयी। बाबर ने अपनी पुस्तक बाबरनामा में कृष्ण देव राय का एक महान व वीर शासक के रूप में वर्णन किया है।
अच्युत देवराय (1530-1542 ई.)
कृष्णदेव राय ने अपनी मृत्यु के पूर्व ही अपने चचेरे भाई अच्युत देव राय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, क्योंकि उसका एकमात्र पुत्र जो 18 महीने का था, सिंहासन के योग्य नहीं था। अच्युतदेव राय के समय में ही पुर्तगालियों ने तूतीकोरिन के मोती उत्पादक क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। अच्युतदेवराय के समय में पुर्तगाली यात्री नुनीज ने भारत की यात्रा की थी। नुनीज घोड़े का व्यापारी था। उसने अपनी पुस्तक क्रॉनिकल ऑफ फर्नास नुनीज में विजयनगर साम्राज्य के प्रारम्भ से लेकर अच्युतदेवराय के शासन के अंतिम वर्षों का इतिहास प्रस्तुत किया है। अच्युत देवराय ने महामण्डलेश्वर नामक एक नये अधिकारी की नियुक्ति की थी।
सदाशिवराय (1542-1570 ई.)
1543 ई. में सदाशिवराय गद्दी पर बैठा और 1567 ई. तक उसने शासन किया। सदाशिवराय के शासनकाल में वास्तविक सत्ता रामराय के हाथों में थी।
तालिकोटा (राक्षसतंगड़ी) का युद्ध (1565 ई.)
1565 ई. में तालिकोटा के निकट बन्निहट्टी को युद्ध में बहमनियों के संघ (जिसमें अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुण्डा व बीदर शामिल थे) ने विजयनगर को गहरी शिकस्त दी। इसे तालिकोटा या राक्षसतंगड़ी के युद्ध के नाम से जाना जाता है। गोलकुण्डा व बरार के मध्य पारस्परिक शत्रुता के कारण बरार इसमें शामिल नहीं था। दक्कनी राज्यों ने पारस्परिक वैवाहिक सम्बंधों के द्वारा इस महासंघ को मजबूत बनाया। अहमदनगर के हुसैन निजामशाह की पुत्री जमाली बीबी का विवाह इब्राहिम कुतुबशाह के साथ हुआ था।
हुसैन निजामशाह ने अपनी दूसरी पुत्री चांदबीबी का विवाह बीजापुर के अली आदिल के साथ किया था। रामराय को घेर लिया गया और उसे पकड़कर तुरन्त उसकी हत्या कर दी गयी। विजयनगर को अत्यधिक लूटा गया तथा विनाश के कगार पर पहुंचा दिया गया। बन्नीहाट्टी की लड़ाई को सामान्यतः विजयनगर के महान युग का अंत माना जाता है।
सेवेल जो इस युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी था जिसने ए फॉरंगटन एम्पायर नामक पुस्तक की रचना की है तालिकोटा के युद्ध के तत्काल बाद विदेशी यात्री सीजर फ्रेडरिक ने विजयनगर की यात्रा की एवं स्थिति का वर्णन किया। तालिकोटा युद्ध के पश्चात् रामराय का भाई तिरुमल सदाशिव को लेकर पेनूकोंडा आ गया तथा यहीं से शासन करना प्रारम्भ किया। उसने विजयनगर के चतुर्थ राजवंश आरविडु वंश की स्थापना की।
आरविडु वंश (1570-1652 ई.)
तालिकोटा युद्ध के पश्चात् तिरूमल ने 1570 ई. में सदाशिव राय की हत्या कर आरविडु वंश की स्थापना की तथा पेनूकोण्डा को अपनी राजधानी बनाया। वेंकट द्वितीय इस वंश का सर्वप्रथम शासक था। इसने चंद्रगिरि को अपना मुख्यालय बनाया। इस वंश का अंतिम प्रमुख शासक रंग तृतीय था।
विजयनगर प्रशासन
वियजनगर राज्य में राजा को सलाह देने के लिए मंत्रियों की । एक परिषद् होती थी, जिसमें राज्य के प्रमुख सरदार हुआ करते थे। राज्य मंडलम् में विभाजित होता था। वैसे, मंडलम् को राज्य भा कहा जाता था। मंडलम् के नीचे क्रमश: नाडु (जिला), स्थल (उप-जिला) और ग्राम होता था।
प्रांतीय शासक को अत्यधिक स्वायत्तता प्राप्त होती थी। वह अपना दरबार लगाता था, अपने अधिकारी नियुक्त करता था तथा अपनी सेना भी रखता था। राजा सैनिक सरदारों को अमरम् या (पालिगार) निश्चित राजस्व वाला क्षेत्र देता था। पलफूगार ( पोलिगार ) या नायक कहे जाने वाले इन सरदारों को राज्य की सेवा के लिए एक निश्चित संख्या में पैदल सैनिक, घोड़े और हाथी रखने पड़ते थे।
फसल, मिट्टी की किस्म और सिंचाई की विधि आदि के अनुसार राजस्व की दरों में अंतर होता था। विजय नगर में दास प्रथा का प्रचलन था। भ-राजस्व के अतिरिक्त अन्य कर जैसे संपत्ति कर, पैदावार की बिक्री पर लगने वाला कर, पेशागत कर, सैनिक कर (मुसीबत के दिनों में) और विवाह-कर आदि थे।
सोलहवीं सदी का यात्री निकितिन कहता है- जमीन आबादी से भी हुई थी, लेकिन जो लोग गाँवों में रहते हैं, वे बहुत दयनीय अवस्था में हैं, जबकि सरदार लोग खूब समृद्ध हैं एवं विलासिता का जीवन बिताते हैं। विजयनगर साम्राज्य में शहरी जीवन का विकास हुआ तथा वाणिज्य-व्यापार में भी अत्यधिक वृद्धि हुई। बहुत-से शहर मंदिरों के आस-पास विकसित हुए।
मंदिर बहुत बड़े-बड़े होते थे तथा उन्हें तीर्थयात्रियों को प्रसाद, ईश्वर की सेवा, पुजारियों के निर्वाह आदि के लिए खाद्य पदार्थों एवं अन्य वस्तुओं की बहुत अधिक मात्रा में जरूरत होती थी। मंदिर बहुत समृद्ध थे। ये मंदिर आंतरिक एवं अंतर्राष्ट्रीय दोनों तरह के व्यापार में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे।
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बहमनी साम्राज्य
अलाउद्दीन बहमनशाह (1347-1358 ई.):-
1347 ई. में हसन गंगू अलाउद्दीन बहमन शाह के नाम से बहमनी का शासक बना तथा गुलबर्गा को अपनी राजधानी बनाया। इसके सिक्के पर द्वितीय सिकंदर अंकित है। इसने संपूर्ण साम्राज्य को चार तराफों (प्रांतों) गुलबर्गा, दौलताबाद, बीदर, बरार में विभाजित किया था।
मुहम्मदशाह प्रथम
1367 ई. में मुदकल के किले पर विजयनगर के शासक बुक्का प्रथम के साथ हुए युद्ध में प्रथम बार तोपखाने का प्रयोग हुआ।
ताजुद्दीन फिरोजशाह (1407-1422 ई.)
फिरोजशाह विद्धान और विभिन्न भाषाओं का ज्ञाता था, वह अपनी पत्नियों से अलग-अलग भाषा में बात करता था। उसने खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए दौलताबाद में एक वेधशाला का निर्माण करवाया। उसने अपने छोटे भाई अहमदशाह के पक्ष में 1422 ई. में राजसिंहासन का त्याग कर दिया था।
शिहाबुद्दीन अहमदशाह प्रथम
सूफी संत गेसूदराज से संपर्क के कारण उसे वलि के नाम से जाना जाता है। वारंगल द्वारा देवराय प्रथम को सहयोग देने के कारण अहमदशाह ने वारंगल को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा साम्राज्य के विस्तृत होने के कारण गुलबर्गा की जगह बीदर को राजधानी बनाया। इस नवीन राजधानी को मुहम्मदाबाद नाम दिया गया।
हुमायूँ
इसकी क्रूरता के कारण इसे जालिम शाह के नाम से जाना जाता है। इसे दक्कन का हीरो भी कहा जाता था।
निजामशाह
निजामशाह के संरक्षक के रूप में मकदम बेगम, ख्वाजा जहाँ एवं ख्वाजा गवाँ की एक परिषद् का निर्माण हुआ जिसके हाथों में वास्तविक सत्ता थी।

मुहम्मद तृतीय
इसके शासन काल में ख्वाजा जहाँ इसका मंत्री बना। इसके समय में ईरानी व्यापारी महमूद गवाँ ने बहमनी सुल्तान की कृपा प्राप्त कर ली तथा महमूद गवाँ को मलिक-ए-तुज्जार की उपाधि प्रदान की गयी।
महमूदशाह
इसके शासन काल में अराजकता की स्थिति बनी रही। प्रांतीय सूबेदार अपने को स्वतंत्र करने लगे। • इसके पश्चात् महमूदशाह के उत्तराधिकारी कासिम-उल-मुमालिक के हाथों की कठपुतली बने रहे जबकि वास्तविक सत्ता महमूदशाह के हाथ में थी। • कासिम-उल-मुमालिक की मृत्यु के पश्चात् सत्ता उसके पुत्र अमीर-उल-बरीद के हाथों में चली गयी। अमीर-उल-बरीद को दक्कन की लोमड़ी कहा जाता था। ।
कल्लीमुल्ला शाह
यह अंतिम बहमनी शासक था जिसने अपने राज्य को बचाने हेतु बाबर से सहायता मांगी थी।
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महमूद गवाँ
वह जन्म से ईरानी था और आरम्भ में वाणिज्य-व्यापार में लगा हुआ था। सुल्तान ने उसे मलिक-उन-तज्जार (व्यापारियों का प्रधान) का खिताब प्रदान किया था। इसके कुछ समय परमार वह सुल्तान का पेशवा या प्रधानमंत्री बन गया। महमूद गवाँ का प्रमुख सैनिक योगदान पश्चिमी तट के प्रदेशों दाभोल और गोवा पर विजय प्राप्त करना था। महमद गवाँ ने राज्य की उत्तरी सीमाओं को स्थायित्व प्रदान करने की कोशिश की थी। महमूद गवाँ ने कई आंतरिक सुधार किए। उसने राज्य को आठ प्रांतों या तराफों में विभाजित किया था।
महमूद गवाँ कला का बहुत बड़ा संरक्षक था। उसने राजधानी बीदर में एक भव्य मदरसा या विद्यालय बनवाया। और भूमि की नियमित नाप के आदेश दिए। बहमनी सल्तनत की एक बड़ी समस्या अमीरों के मध्य होने वाले झगड़े थे। अमीर लोग पूर्वागंतुकों, दक्कनियों और अफ्रीकियों या नवागंतुकों (जो गरीब-भी कहलाते थे) में बँटे हुए थे। महमूद गवाँ नवागंतुक था। उसके विरोधियों ने युवा सुल्तान को भड़का दिया तथा 1482 ई. में उसने गवाँ को मृत्युदंड दे दिया। शीघ्र ही बहमनी सल्तनत पाँच छोटे-छोटे राज्यों में बँट गयागोलकुंडा, बीजापुर, अहमदनगर, बरार और बीदर। बहमनी सल्तनत ने उत्तर और दक्षिण के बीच सांस्कृतिक सेतु का काम किया था।
बहमनी साम्राज्य का विभाजन
अहमदनगर के निजामशाह (1490-1633 ई.) 1490 ई. में मलिक अहमद ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर निजामशाही वंश की स्थापना की। 1633 ई. में शाहजहाँ ने इस वंश को इसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया। 1527 ई. में अमीर-उल-बरीद ने कल्लीमुल्ला शाह की हत्या कर बीदर के बरीदशाही वंश की स्थापना की। • 1618-19 ई. में औरंगजेब ने बीदर पर अधिकार कर लिया।
बीजापुर के आदिल शाही ( 1490-1686 ई.)
1490 ई. में युसुफ आदिल शाह ने बीजापुर को स्वतंत्र का वहां आदिल शाही वंश की स्थापना की। इब्राहिम आदिलशाह ने फारसी के स्थान पर हिन्दी को राजमा बनाया था। इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय को जगदगुरु अबला बाबा तथा निर्धनों का मित्र कहा जाता था। इसने किताब-ए-नौरस की रचना की। इस वंश का अंतिम शासक मुहम्मद आदिलशाह था। इसका मकबरा गोलगुंबद के नाम से प्रसिद्ध है।
गोलकुंडा के कुतुबशाही ( 1518-1687 ई.)
1518 ई. में कुली कुतुबशाह द्वारा गोलकुंडा की स्थापना तथा कुतुबशाही वंश की नींव डाली एवं गोलकुंडा को अपनी राजधानी बनाया। एक अन्य कुतुबशाही शासक मुहम्मद अली कुतुबशाह ने हैदरावाद नगर की स्थापना की एवं वहाँ पर प्रसिद्ध चार मीनार का निर्माण करवाया। औरंगजेब ने 1687 ई. में गोलकुंडा को मुगल साम्राज्य के अधीन कर लिया।
बरार के इमाद शाही ( 1490-1574 ई.)
1490 ई. में फुतुल्लाह खाँ इमाद-उल-मुल्क ने बरार में स्वतंत्रता की घोषणा की तथा इमादशाही वंश की स्थापना की। 1574 ई. में अहमद नगर ने बरार को अपने राज्य में मिला लिया।
बीदर के बरीदशाही ( 1527-1619 ई.)
1527 ई. में अमीर-उल-बरीद द्वारा बीदर में बरीद शाही वंश की स्थापना की गयी। 1619 ई. में बीजापुर के आदिल शाही शासकों ने इसे अपने राज्य में मिला लिया।
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